#आत्महत्या.वास्तविक ज़िंदगी और परदे की ज़िंदगी में बड़ा फ़र्क़ होता है।युवाओं को instant gratification से ऊपर उठना होगा।आख़िर उन चमचमाती शहरों में,गगनचुंबी और अपनी ऊँचाई पर इठलाती इमारतों में किस बात की कमी है कि लोग अपनी ज़िंदगी तक को तबाह करने में क्षण भर के लिए नहीं सोचते!संसाधनों से लैश शहरों की अपेक्षा संसाधन विहीन गाँव में ऐसी घटनाएँ विरले ही सुनने को मिलती हैं।हम रिश्तों से दूर होते जा रहे हैं।प्राइवेसी,सेकरेसी और कैरियर सरीखे कुछ अंग्रेज़ी शब्दों के नीचे हम रिश्तों के साथ-साथ ख़ुद की बलि चढ़ाते जा रहे हैं।हम भूलते जा रहे हैं कि हम इंसान हैं।हम सिस्टम नहीं हैं जो अरिथमेटीक और मशीन की भाषा से नियंत्रित होंगे!हममें संवेदना है,हमको प्यार की ज़रूरत है।हम जब निराश होते हैं तो हमें माँ या अपने लोगों के लाड़-प्यार से सम्बल मिलता है।जब ग़लती करते हैं तो पिता या बड़े भाई के एक थप्पड़ से हमको दिशा मिलती है।पर जब अपने हमारे पास होंगे तब तो!हम तो अपनों का साथ छोड़ अपार्टमेंट को अपना सब कुछ बना चुके हैं और कुत्तों और बिल्लियों को हम अपने अकेलेपन के साथी के रूप में देखने लगे हैं।हम सक्सेस को अपने ढंग से परिभाषित करने में बहुत तेज गति से लगे हुए हैं।भौतिकता,अपने समाज से पृथक,पैसे के पीछे भागना,जीवनशैली में पूर्णतः बदलाव इन सब को हम अपनी दिनचर्या बना चुके हैं।ख़राब से ख़राब दिखने वाला इंसान भी ख़ुद को जब आइने में देखता है तो वह अपने आप पर इठलाता है और ख़ुद को स्टार समझने से परहेज़ नहीं करता और करना भी नहीं चाहिए।पर धीरे-धीरे उसके भीतर घर कर गए अवसाद में कितनी शक्ति है कि वह व्यक्ति को अपनी जान देने को मजबूर कर जाता है।अवसाद का बोझ एक जीवंत और कभी भी उदास न होने वाले इंसान को भी मरणशैय्या पर लेटने को विवश कर देता है।34 वर्ष की अवस्था भी भला मरने और आत्महत्या करने की होती है।Rip सुशान्त 💐
#आत्महत्या.
वास्तविक ज़िंदगी और परदे की ज़िंदगी में बड़ा फ़र्क़ होता है।
युवाओं को instant gratification से ऊपर उठना होगा।
आख़िर उन चमचमाती शहरों में,गगनचुंबी और अपनी ऊँचाई पर इठलाती इमारतों में किस बात की कमी है कि लोग अपनी ज़िंदगी तक को तबाह करने में क्षण भर के लिए नहीं सोचते!
संसाधनों से लैश शहरों की अपेक्षा संसाधन विहीन गाँव में ऐसी घटनाएँ विरले ही सुनने को मिलती हैं।
हम रिश्तों से दूर होते जा रहे हैं।
प्राइवेसी,सेकरेसी और कैरियर सरीखे कुछ अंग्रेज़ी शब्दों के नीचे हम रिश्तों के साथ-साथ ख़ुद की बलि चढ़ाते जा रहे हैं।
हम भूलते जा रहे हैं कि हम इंसान हैं।
हम सिस्टम नहीं हैं जो अरिथमेटीक और मशीन की भाषा से नियंत्रित होंगे!
हममें संवेदना है,हमको प्यार की ज़रूरत है।हम जब निराश होते हैं तो हमें माँ या अपने लोगों के लाड़-प्यार से सम्बल मिलता है।
जब ग़लती करते हैं तो पिता या बड़े भाई के एक थप्पड़ से हमको दिशा मिलती है।
पर जब अपने हमारे पास होंगे तब तो!
हम तो अपनों का साथ छोड़ अपार्टमेंट को अपना सब कुछ बना चुके हैं और कुत्तों और बिल्लियों को हम अपने अकेलेपन के साथी के रूप में देखने लगे हैं।
हम सक्सेस को अपने ढंग से परिभाषित करने में बहुत तेज गति से लगे हुए हैं।
भौतिकता,अपने समाज से पृथक,पैसे के पीछे भागना,जीवनशैली में पूर्णतः बदलाव इन सब को हम अपनी दिनचर्या बना चुके हैं।
ख़राब से ख़राब दिखने वाला इंसान भी ख़ुद को जब आइने में देखता है तो वह अपने आप पर इठलाता है और ख़ुद को स्टार समझने से परहेज़ नहीं करता और करना भी नहीं चाहिए।
पर धीरे-धीरे उसके भीतर घर कर गए अवसाद में कितनी शक्ति है कि वह व्यक्ति को अपनी जान देने को मजबूर कर जाता है।
अवसाद का बोझ एक जीवंत और कभी भी उदास न होने वाले इंसान को भी मरणशैय्या पर लेटने को विवश कर देता है।
34 वर्ष की अवस्था भी भला मरने और आत्महत्या करने की होती है।
Rip सुशान्त 💐
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