अपनी कविताओं में प्रकृति की सुवास को चहुंओर बिखेरने वाले चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत का आज जन्म दिन है । विश्व व्यापी सँकट Covid-19 कोरोनावाइरस के चलते देश के भीतर लॉक डाउन का चौथा चरण चल रहा है इस चौथे चरण के आने तक सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करते हुए कही न कही बहुत सारी परेशानी का सामना हम सब कर रहे हैं । पर अपने चारो तरहफ के वातावरण मे एक सुंदर परिवर्तन भी महसूस कर रहे है, वह परिवर्तन है हमारी प्रकृति मे नित हो रहे निखार का परिवर्तन । आज कल सुबह जब हम सब जग रहे है चिडियो का मधुर कलरव, पेड - पौधो का हरियाली लिएमुस्कुरा कर मिलना, बिना कुछ बोलेे ही फूलो का खिलखिला कर हमसे कुछ अबुझ सा बोल पडना यह सब देखते - सुनते - महसूस करते हुए आज मन ने कहा आओ लेखक द्वय चलो अपनी कलम से : पहाड एवम प्रकृति के सुकुमार बेटे, सदाबहार - कुशल चितेरे कवि, सुमित्रानंदन पंत जी को उनके जन्मदिन पर प्रकृति के साथ उनके मनोरम रिश्ते एवम विविध रूपों सहित याद करो यथा : अल्मोड़ा (उत्तर प्रदेश) के कौसानी गांव में 20 मई, 1900 को हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही मां का निधन होने से उन्होंने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण अपने गांव की प्रकृति को ही अपनी मां मान लिया। बाल्यकाल से ही अल्मोड़ा में हारमोनियम और तबले की धुन पर गीत गाने के साथ ही उन्होंने सात वर्ष की अल्पायु में अपनी सृजनशीलता व रचनाधर्मिता का परिचय देते हुए काव्य सृजन करना शुरू कर दिया। नन्हीं उम्र में नेपोलियन की तस्वीर को देखकर उनकी तरह अपने बालों को ताउम्र बड़े रखने का निर्णय लेने के साथ ही उन्होंने अपने नाम गुसाई दत्त को बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। अपने नम्र व मधुर स्वभाव, गौरे वर्ण, आंखों पर काला चश्मा और लंबे रेशमी घुंघराले बाल एवं शारीरिक सौष्ठव के कारण वे हमेशा कवियों के मध्य आकर्षण का केंद्र रहें। पंत को बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थीं। वे घंटों घंटों तक ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते थे। अपने काव्य सृजन को भी ईश्वर पर आश्रित मानकर कहते थे- 'क्या कोई सोचकर लिख सकता है भला, उसे जब लिखवाना होगा, वो लिखवाएगा।' उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से लेने के बाद अपने बड़े भाई देवीदत्त के साथ आगे की शिक्षा के लिए काशी आकर क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया और अपनी कविताओं से सबके चहेते बन गए। पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्री पर ही कविता लिखते रहें। वह नारी स्वतंत्रता के कटु पक्षधर थे। उनका कहना था कि 'भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो।' वे स्वयं कहते है : 'मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को। युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखि प्यारी को।' उन्हें आर्थिक तंगहाली से भी गुजरना पड़ा। स्थिति इतनी विकट हुई कि उन्हें अल्मोड़ा की जमीन जायदाद बेचने के साथ कर्ज चुकाने के लिए अपना पुश्तैनी घर भी बेचना पड़ा। इसी दरमियान अपने भाई और बहन के आकस्मिक निधन के आघात से उनके पिता भी चल बसे। 28 वर्ष की उम्र में इतने आघात सहने के बाद पंत विरक्ति की भावना में डूब गए। लेकिन, जल्द ही 1931 में कालाकांकर जाकर अपने मकान नक्षत्र में कई कालजयी कृतियों की रचना की। पंत ताउम्र अविवाहित रहें। उनकी शादी में उनकी आर्थिक स्थिति बाधक रही। सच्चाई यह है कि पंत ने प्रकृति सौन्दर्य मे डूबकर ईश्वर को पाने के सिवाए कभी व्यक्तिगत सुख की कोई चाह नहीं रखी। जिनका मन प्रकृति और ईश्वरीय आराधना में रम गया हो, वे आखिर किसी सुंदरी के भ्रम जाल में कैसे फंस सकते हैं। बकौल कवि पंत : 'छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले ! तेरे बाल-जाल मेंकैसे उलझा दूं लोचन?' इसके बावजूद भी पंत के काव्य में नारी के विविध रूपों मां, पत्नी, सखी, प्रिया आदि सम्मान पाते हुए मिलते हैं। सन 1955 से 1962 तक वे प्रयाग स्थित आकाशवाणी स्टेशन में मुख्य कार्यक्रम निर्माता तथा परामर्श दाता रहे और भारत में जब टेलीविजन के प्रसारण प्रारंभ हुए, तो उसका भारतीय नामकरण 'दूरदर्शन' उन्होंने ही किया । पंत के कृतित्व की बात करें तो उन्होंने चींटी, सेम, पल्लव जैसे विषयों पर कविता लिखकर घोषणा की कि हिंदी काव्य अब तुतलाना छोड़ चुका है। ब्रज भाषा के सौंदर्य में नहाती, कान्हा के विरह अग्नि में जलती गोपियों के बाद हिन्दी काव्य कालिदास के प्रकृति से जुड़े जिन उपमानों को भूल गया था, पंत उन्हें वापस लेकर आए। पंत ने भले ही अपने काव्य में सार्वधिक प्रकृति के सुकोमल पक्ष की प्रबलता की हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने नारी चेतना और उसके सामाजिक पक्ष के साथ ही ग्राम्य जीवन की विसंगतियों को भी उजागार किया है। भाषा के समृद्ध और सशक्त हस्ताक्षर व संवेदना एवं अनुभूति के कवि सुमित्रानंदन पंत ने चिदंबरा, उच्छवास, वीणा, गुंजन, लोकायतन समेत अनेक काव्य कृतियों की रचना की हैं। गुंजन को तो वे अपनी आत्मा का गुंजन मानते हैं। पंत की प्रारंभिक कविताएं 'वीणा' में संकलित हैं। उच्छवास तथा पल्लव उनकी छायावादी कविताओं का संग्रह है। ग्रंथी, ग्राम्या, युगांत, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम आदि उनकी अन्य प्रमुख कृतियां हैं। उन्होंने गेय और अगेय दोनों में अपनी लेखन कला का लौहा मनवाया है। साहित्य में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण, ज्ञानपीठ, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से विभूषित किया गया । 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।' सर्वथा अनूठे और विशिष्ट कवि सुमित्रानंदन पंत जी केे जन्मदिन पर भावनाओ से भरी पंत जी की ही उपरोक्त पंक्तियो से लेखक द्वय का विनम्र प्रणाम । चूँकी पंत जी की रचना धर्मिता मे प्रकृति के सुकोमल पक्ष की प्रबलता रही है अत: आज हम सभी के द्वारा प्रकृति संरक्षण का संकल्प लेना ही सही मायने मे उन्हे याद करने की सार्थक पहल होगी ।कलम से : लेखक विभांशु जोशीभारद्वाज अर्चिता २०/०५/२०२०


अपनी कविताओं में प्रकृति की सुवास को चहुंओर बिखेरने वाले चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत का आज जन्म दिन है । विश्व व्यापी सँकट Covid-19 कोरोनावाइरस के चलते देश के भीतर लॉक डाउन का चौथा चरण चल रहा है इस चौथे चरण के आने तक सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन करते हुए कही न कही बहुत सारी परेशानी का सामना हम सब कर रहे हैं । पर अपने चारो तरहफ के वातावरण मे एक सुंदर परिवर्तन भी महसूस कर रहे है, वह परिवर्तन है हमारी प्रकृति मे नित हो रहे निखार का परिवर्तन । आज कल सुबह जब हम सब जग रहे है चिडियो का मधुर कलरव, पेड - पौधो का हरियाली लिए
मुस्कुरा कर मिलना, बिना कुछ बोलेे ही फूलो का खिलखिला कर हमसे कुछ अबुझ सा बोल पडना यह सब देखते - सुनते - महसूस करते हुए आज मन ने कहा आओ लेखक द्वय चलो अपनी कलम से : पहाड एवम प्रकृति के सुकुमार बेटे, सदाबहार - कुशल चितेरे कवि, सुमित्रानंदन पंत जी को उनके जन्मदिन पर प्रकृति के साथ उनके मनोरम रिश्ते एवम विविध रूपों सहित याद करो यथा : 

अल्मोड़ा (उत्तर प्रदेश) के कौसानी गांव में 20 मई, 1900 को हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही मां का निधन होने से उन्होंने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण अपने गांव की प्रकृति को ही अपनी मां मान लिया।
 
बाल्यकाल से ही अल्मोड़ा में हारमोनियम और तबले की धुन पर गीत गाने के साथ ही उन्होंने सात वर्ष की अल्पायु में अपनी सृजनशीलता व रचनाधर्मिता का परिचय देते हुए काव्य सृजन करना शुरू कर दिया। नन्हीं उम्र में नेपोलियन की तस्वीर को देखकर उनकी तरह अपने बालों को ताउम्र बड़े रखने का निर्णय लेने के साथ ही उन्होंने अपने नाम गुसाई दत्त को बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। अपने नम्र व मधुर स्वभाव, गौरे वर्ण, आंखों पर काला चश्मा और लंबे रेशमी घुंघराले बाल एवं शारीरिक सौष्ठव के कारण वे हमेशा कवियों के मध्य आकर्षण का केंद्र रहें। पंत को बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थीं। वे घंटों घंटों तक ईश्वर के ध्यान में मग्न रहते थे। अपने काव्य सृजन को भी ईश्वर पर आश्रित मानकर कहते थे- 'क्या कोई सोचकर लिख सकता है भला, उसे जब लिखवाना होगा, वो लिखवाएगा।' उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से लेने के बाद अपने बड़े भाई देवीदत्त के साथ आगे की शिक्षा के लिए काशी आकर क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया और अपनी कविताओं से सबके चहेते बन गए। पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्री पर ही कविता लिखते रहें। वह नारी स्वतंत्रता के कटु पक्षधर थे। उनका कहना था कि 'भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो।' वे स्वयं कहते है : 

'मुक्त करो नारी को मानव, 
चिर वन्दिनी नारी को। 
युग-युग की निर्मम कारा से, 
जननी सखि प्यारी को।' 

उन्हें आर्थिक तंगहाली से भी गुजरना पड़ा। स्थिति इतनी विकट हुई कि उन्हें अल्मोड़ा की जमीन जायदाद बेचने के साथ कर्ज चुकाने के लिए अपना पुश्तैनी घर भी बेचना पड़ा। इसी दरमियान अपने भाई और बहन के आकस्मिक निधन के आघात से उनके पिता भी चल बसे। 28 वर्ष की उम्र में इतने आघात सहने के बाद पंत विरक्ति की भावना में डूब गए। लेकिन, जल्द ही 1931 में कालाकांकर जाकर अपने मकान नक्षत्र में कई कालजयी कृतियों की रचना की। पंत ताउम्र अविवाहित रहें। उनकी शादी में उनकी आर्थिक स्थिति बाधक रही। सच्चाई यह है कि पंत ने प्रकृति सौन्दर्य मे डूबकर ईश्वर को पाने के सिवाए कभी व्यक्तिगत सुख की कोई चाह नहीं रखी। जिनका मन प्रकृति और ईश्वरीय आराधना में रम गया हो, वे आखिर किसी सुंदरी के भ्रम जाल में कैसे फंस सकते हैं। बकौल कवि पंत : 

'छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, 
तोड़ प्रकृति से भी माया, 
बाले ! तेरे बाल-जाल में
कैसे उलझा दूं लोचन?'
 
इसके बावजूद भी पंत के काव्य में नारी के विविध रूपों मां, पत्नी, सखी, प्रिया आदि सम्मान पाते हुए मिलते हैं। सन 1955 से 1962 तक वे प्रयाग स्थित आकाशवाणी स्टेशन में मुख्य कार्यक्रम निर्माता तथा परामर्श दाता रहे और भारत में जब टेलीविजन के प्रसारण प्रारंभ हुए, तो उसका भारतीय नामकरण 'दूरदर्शन' उन्होंने ही किया ।
 
पंत के कृतित्व की बात करें तो उन्होंने चींटी, सेम, पल्लव जैसे विषयों पर कविता लिखकर घोषणा की कि हिंदी काव्य अब तुतलाना छोड़ चुका है। ब्रज भाषा के सौंदर्य में नहाती, कान्हा के विरह अग्नि में जलती गोपियों के बाद हिन्दी काव्य कालिदास के प्रकृति से जुड़े जिन उपमानों को भूल गया था, पंत उन्हें वापस लेकर आए। पंत ने भले ही अपने काव्य में सार्वधिक प्रकृति के सुकोमल पक्ष की प्रबलता की हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने नारी चेतना और उसके सामाजिक पक्ष के साथ ही ग्राम्य जीवन की विसंगतियों को भी उजागार किया है। भाषा के समृद्ध और सशक्त हस्ताक्षर व संवेदना एवं अनुभूति के कवि सुमित्रानंदन पंत ने चिदंबरा, उच्छवास, वीणा, गुंजन, लोकायतन समेत अनेक काव्य कृतियों की रचना की हैं। गुंजन को तो वे अपनी आत्मा का गुंजन मानते हैं। पंत की प्रारंभिक कविताएं 'वीणा' में संकलित हैं। उच्छवास तथा पल्लव उनकी छायावादी कविताओं का संग्रह है। ग्रंथी, ग्राम्या, युगांत, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम आदि उनकी अन्य प्रमुख कृतियां हैं। उन्होंने गेय और अगेय दोनों में अपनी लेखन कला का लौहा मनवाया है। साहित्य में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण, ज्ञानपीठ, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से विभूषित किया गया ।   

'वियोगी होगा पहला कवि, 
आह से उपजा होगा गान। 
निकलकर आंखों से चुपचाप, 
बही होगी कविता अनजान..।' 

सर्वथा अनूठे और विशिष्ट कवि सुमित्रानंदन पंत जी केे जन्मदिन पर भावनाओ से भरी पंत जी की ही उपरोक्त पंक्तियो से लेखक द्वय का विनम्र प्रणाम । चूँकी पंत जी की रचना धर्मिता मे प्रकृति के सुकोमल पक्ष की प्रबलता रही है अत: आज हम सभी के द्वारा प्रकृति संरक्षण का संकल्प लेना ही सही मायने मे उन्हे याद करने की सार्थक पहल होगी ।

कलम से : 
लेखक विभांशु जोशी
भारद्वाज अर्चिता 
२०/०५/२०२०

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता