मन कर रहा है WhatsApp, Messenger, सब बन्द कर दूँ और 1941 के दौर वाली परम्परा अपनाऊँ मै, हर हफ्ते तुम्हे एक लम्बा सा खत लिखूँ और फिर : हफ्ता भर रोज शाम को उस राह की तरफ गहरी उम्मीद से निहारू जिस राह से भूरी वर्दी वाला डाकिया चिट्ठी का झोला लटकाए ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंगअपनी साइकिल की घंटी बजाता हुआ आता है,वह डाकिया मेरे घर के सामने रूके और मै इशारों .....इशारों ...मे उससे पूछूँ मेरी भी कोई चिट्ठी आई है क्या ?मेरे मौन इशारों पर डाकिया मुस्कुरा दे और हाँ मे तुम्हारी चिट्ठी मेरी तरफ बढ़ा दे, फिर तुम्हारी उस चिट्ठी को मै आहिस्ता से तब खोलूँ जब रात गहरा जाए बडे बुजूर्गोँ के अदब का पहरा कम हो जाए फिर एक नही एक हजार बार एक एक शब्द पढ़ूँ
मन कर रहा है
WhatsApp, Messenger, सब बन्द कर दूँ
और 1941 के दौर वाली परम्परा अपनाऊँ मै,
हर हफ्ते तुम्हे एक लम्बा सा खत लिखूँ
और फिर :
हफ्ता भर रोज शाम को
उस राह की तरफ गहरी उम्मीद से निहारू
जिस राह से भूरी वर्दी वाला डाकिया
चिट्ठी का झोला लटकाए
ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग
अपनी साइकिल की घंटी बजाता हुआ आता है,
वह डाकिया मेरे घर के सामने रूके
और मै इशारों .....इशारों ...मे उससे पूछूँ
मेरी भी कोई चिट्ठी आई है क्या ?
मेरे मौन इशारों पर डाकिया मुस्कुरा दे
और हाँ मे तुम्हारी चिट्ठी मेरी तरफ बढ़ा दे,
फिर तुम्हारी उस चिट्ठी को मै
आहिस्ता से तब खोलूँ
जब रात गहरा जाए
बडे बुजूर्गोँ के अदब का पहरा कम हो जाए
फिर एक नही एक हजार बार
एक एक शब्द पढ़ूँ
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