बसंत
याद आता है वो बसंत......
भारत में पूरे साल को छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। फूलों पर भर भर भंवरे भंवराने लगते। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु देवी, सरस्वती और कामदेव की पूजा होती|
यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से भी उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है। बसंत का प्रतीकात्मक शुभ रंग पीला है और इस दिन पीले चावल और लड्डू का अपना ही महत्व है। मुझे याद है जब हमारे गांव में वसंत आता था तो आम के पेड़ों में बौर खोजे जाते थे, और उस बौर की सुगंध आज भी मन में बसी हुई है| हमारे नए पीले रंग वाले कपड़े आते, दादी-बाबा से लेकर मां-पिता, बुआ, बहन-भाई सब एक ही रंग में रंगे होते जैसे सब ने कोई यूनिफार्म पहन रखी हो। कानों में आम के बौर खोंसे जाते, सिर पर सरसों के फूलों का श्रृंगार किया जाता। आंगन में गेरू और हल्दी चावल से चौक पूरा जाता, पूजा होती। मां, दादी, चाची, ताई इस दिन शाम होने से पहले पंडिताइन के हाथों सुहाग लेतीं। खाने में भी पीले रंग की धूम रहती। कढ़ी चावल और केसरिया रंग के मीठे चावल बनाए जाते। एक अजब ही आनंद और उल्लास से भरा होता था तब हमारा वो वसंत।
परंतु आज मेरे मैट्रोपोलिटन सिटी वाले बसंत में सबकुछ बदला बदला सा है। इधर अब पीला ऱंग आउटडेटड हो चला है। पीला रंग अब अंडे की जर्दी में, किसी विज्ञापन के सड़क किनारे लगे होर्डिंग में, पिज्जा के चीज़ में, बिरियानी के चावल में, नाचोज़ के चिप्स में और मैंगो जूस में दिखता है| ..
अब मैं सुहाग देने आने वाली किसी पंडिताइन के इंतजार में नहीं सजती , मैं पार्लर जाती हूं, बसंत थीम वाली किटी पार्टी में होने वाले फैशन शो में भाग लेने को। अब कोई मीठे पीले चावल का प्रसाद देने नही आता, हां व्हाट्स एप पर सुबह से पीले चावल वाले कई फोटो मेरी फोन की गैलरी का जायका जरूर बढ़ाते हैं। अब माँ बाप अपनी लाडली बेटी को स्कूल में बसंत पंचमी सेलिब्रेशन के लिए पीली फ्राक नही दिलवा पाते क्योंकि वो बोलती है, यैलो यैलो डर्टी फैलो.....
अब आम का वो पेड़ तो नही ...कोयल की कूक, और भौंरे की गुनगुन सुनने का जब मन करता है तो चंद फिल्मी गीत सुन लेती हूं ... भंवरे की गुन गुन है मेरा दिल.... मेरे उस गांव वाले बसंत पर शायद डाका पड़ गया है अब इस हाईटेक बसंत का | हम इस हाईटेक वसंत को न देख पा रहे हैं, न समझ पा रहे हैं| इसे जीने की बात तो बहुत दूर की है....हे मां सरस्वती! हो सके तो मुझे बस मेरा वही बचपन वाला बसंत लौटा दो।...
Comments
Post a Comment