उत्तराखंड में कुछ इस तरह से मनाया जाता है संक्रांति का त्योहार काले कौआ : ले कौवा पुलेणी, मी कें दे भल-भल धुलेणीपूस की कुड़कुड़ा देने वाली ठंड, कितना ही ओढ़ बिछा लो, पंखी, लोई लिपटा लो कुड़कुड़ाट बनी रहती. नाक से भी पानी चूता रहता. नानतिनों की क्या कहें, ठुले जवान बुड़-बाड़ि स्वीटर, फतुई, कुरता, जो पहना हो में नाक रगड़ ही लेते. आद मर्चवानी चाहा की कितली उबलती रहती. ऐसे ही पूस के मासांत की रात या मकर संक्रांन्ति की पुष्यूड़िया मनाया जाता घुघुतिया त्यार. मोटे आटे में घी का मोयन डाल इसे एकसार मसल देते. फिर अंदाजे से गुड़ का पाग मिला सख्त गूँथ लिया जाता. अब इससे बनते खजूरे. खजूरे के साथ ही दाड़िम का फूल, ढाल तलवार, घुघुते, पुलेनि, छोटी पूरी बनाई जाती. सांकल का आकार दे कर मोडा जाता. डमरू जैसा हुड़का भी बनता इनको तलने में डालडा या तेल का उपयोग होता. जैसे ही यह सिक जाते. बड़े स्युड में मोटे धागे या ऊन में इन्हें पिरो कर माला बना ली जाती.पहले भाँग की डोरी में भी पिरोया जाता था बल. माला के बीच बीच में मूंगफली, तालमखाने और बड़े भी पिरोये जाते. नारंगी का दाना भी. घर के हर बच्चे के लिए तो माला बनती ही. भगवान जी के लिए भी चढाई जाती. अगल बगल पडोसी और बिरादरों के साथ माल -मैदान -परदेश गए मित्रों के नाम की भी एक -एक माला बनती. घुघुते की माला इग्यारा, इक्कीस, इकावन, एकसौआठ घुघुतों से बनती. दूसरे दिन सुबह बच्चों का कौतुक होता. घर की छत से या खुले में काले काले की धाल लगा कौवे की पुकार लगती. कौवों की खूब मिन्नत होतीं ढाल, तलवार, पुलेंणी जो भी माला में होता उसे दे उससे मांग भी की जाती. कौओं के लिए अलग से भी लगड़, पूरी, बड़ा रखा जाता. बड़े बूढ़े कहते कि कौवा सुबे सुबे बागेश्वर सरयू में नहा धो के आता है. सरयू के उत्तर वाले इलाके गंगोली, सोर, कुमूँ में काले कऊवा मासांत को मना कर संक्रांति को कौआ बुलाया जाता है. तो सरयू के दक्षिण वाले भाग में संक्रांति के दिन त्यार मना माघ की दो गते सुबे-सुबे कौआ बुलाया जाता है. संक्रांति के दिन का भात तो कौवे के लिए रखा ही जाता है. ह्यून या हेमंत में खूब जाड़ा पड़ता. खेती का काम भी कम होता. घास के पुले और लकड़ी के गट्ठर पहले ही सार लिए जाते. गोठ-भकार हैसियत के हिसाब से भरे रहते. भट्ट, गहत भाँग, गुड़, चुवा, च्यूड़, निम्बू चूक, गदुवा, गड़ेरी घुइयां, तिल बदन की गर्मी बनाये रखने को पूस में खूब खायी जातीं. पूस माह में इतवार को उपवास किया जाता. दूध और नमक नहीं खाते. सूरज दिखने पर उसकी पूजा होती. तब तक आग सेकना, तात पाणि में हाथ लगाना, चाय पीने का भी परहेज होता. मकर संक्रांति के दिन ठया या पूजा घर में चौकी पर लाल वस्त्र बिछा अक्षतों का अष्टदल बना सूर्य भगवान की मूर्ति को स्थापित करते हैं. फिर षोडशोपचार पूजा होती.आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ होता है. घी, चीनी, तिल, मेवे से हवन किया जाता है. “ॐ भगवते सूर्याय, ॐ सूर्याय नमः मंत्र का जाप करते हैं. अन्नम , स्नानं, जपो, होमो देवतानाम च पूजनम, उपवास्तथा दानमेकेंक पावनं स्मृतम. संक्रांति यानि दत्तानि हव्यकव्यानि दातृभि:तानि नित्यं ददात्यक: पुनर्जनमानि जन्मानि.घुघूती त्यार के बारे में एक काथ कुमाऊं के चंदवंशीय राज से भी जुड़ी है. जब राजा कल्याण चंद के पुत्र निर्भय चंद का अपहरण राजा के मंत्री ने कर लिया. निर्भय चंद को लाड़ से घुघूती कहा जाता था. तभी एक कौवे ने कांव-कांव कर घुघूती को छुपाये स्थान का भेद दे दिया. बस राजा ने खुश हो कर कौवों को मीठा खिलाने का चलन शुरू किया और इसे घुघूती त्यार नाम मिला. मकर संक्रांति का दिन इस लिहाज से भी यादगार बन गया। सभी को घुघुतिया त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏 साभार -मृगेश पाण्डे काफल ट्री

उत्तराखंड में कुछ इस तरह से मनाया जाता है संक्रांति का त्योहार 

काले कौआ : ले कौवा पुलेणी, मी कें दे भल-भल धुलेणी

पूस की कुड़कुड़ा देने वाली ठंड, कितना ही ओढ़ बिछा लो, पंखी, लोई लिपटा लो कुड़कुड़ाट बनी  रहती. नाक से भी पानी चूता रहता. नानतिनों की क्या कहें,  ठुले जवान बुड़-बाड़ि स्वीटर, फतुई, कुरता, जो पहना हो में नाक रगड़ ही लेते. आद मर्चवानी चाहा की कितली उबलती रहती. ऐसे ही पूस के मासांत की रात या मकर संक्रांन्ति की पुष्यूड़िया मनाया जाता घुघुतिया त्यार. 

मोटे आटे में घी का मोयन डाल इसे एकसार मसल देते. फिर अंदाजे से गुड़ का पाग मिला सख्त गूँथ लिया जाता. अब इससे बनते खजूरे. खजूरे के साथ ही दाड़िम का फूल, ढाल तलवार, घुघुते, पुलेनि, छोटी पूरी बनाई जाती. सांकल का आकार दे कर मोडा जाता. डमरू जैसा हुड़का भी बनता इनको तलने में डालडा या तेल का उपयोग होता. जैसे ही यह सिक जाते. बड़े स्युड में मोटे धागे या ऊन में इन्हें पिरो कर माला बना ली जाती.
पहले भाँग की डोरी में भी पिरोया जाता था बल.  माला के बीच बीच में मूंगफली, तालमखाने और बड़े भी पिरोये जाते. नारंगी का दाना भी. घर के हर बच्चे के लिए तो माला बनती ही. भगवान जी के लिए भी चढाई जाती. अगल बगल पडोसी और बिरादरों के साथ माल -मैदान -परदेश गए मित्रों के नाम की भी एक -एक माला बनती. घुघुते की माला इग्यारा, इक्कीस, इकावन, एकसौआठ घुघुतों से बनती. 
दूसरे दिन सुबह बच्चों का कौतुक होता. घर की छत से या खुले में काले काले की धाल लगा कौवे की पुकार लगती. कौवों की खूब मिन्नत होतीं ढाल, तलवार, पुलेंणी जो भी माला में होता उसे दे उससे मांग भी की जाती. कौओं के लिए अलग से भी लगड़, पूरी, बड़ा रखा जाता. बड़े बूढ़े कहते कि कौवा सुबे सुबे बागेश्वर सरयू में नहा धो के आता है. 
सरयू के उत्तर वाले इलाके गंगोली, सोर, कुमूँ में काले कऊवा मासांत को मना कर संक्रांति को कौआ बुलाया जाता है. तो सरयू के दक्षिण वाले भाग में संक्रांति के दिन त्यार मना माघ की दो गते सुबे-सुबे कौआ बुलाया जाता है. संक्रांति के दिन का भात तो कौवे के लिए रखा ही जाता है. 
ह्यून या हेमंत में खूब जाड़ा पड़ता. खेती का काम भी कम होता. घास के पुले और लकड़ी के गट्ठर पहले ही सार लिए जाते. गोठ-भकार हैसियत के हिसाब से भरे रहते. भट्ट, गहत भाँग, गुड़, चुवा, च्यूड़, निम्बू चूक, गदुवा, गड़ेरी घुइयां, तिल बदन की गर्मी बनाये रखने को पूस में खूब खायी जातीं. पूस माह में इतवार को उपवास किया जाता. दूध और नमक नहीं खाते. सूरज दिखने पर उसकी पूजा होती. तब तक आग सेकना, तात पाणि में हाथ लगाना, चाय पीने का भी परहेज होता. 
मकर संक्रांति के दिन ठया या पूजा घर में चौकी पर लाल वस्त्र बिछा अक्षतों का अष्टदल बना सूर्य भगवान की मूर्ति को स्थापित करते हैं. फिर षोडशोपचार पूजा होती.आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ होता है. घी, चीनी, तिल, मेवे से हवन किया जाता है.  “ॐ भगवते सूर्याय, ॐ सूर्याय नमः मंत्र का जाप करते हैं. 
अन्नम , स्नानं, जपो, होमो  देवतानाम  च पूजनम, 
उपवास्तथा दानमेकेंक पावनं स्मृतम. 
संक्रांति यानि दत्तानि हव्यकव्यानि  दातृभि:
तानि  नित्यं  ददात्यक: पुनर्जनमानि जन्मानि.
घुघूती त्यार के बारे में एक काथ  कुमाऊं के चंदवंशीय राज से भी जुड़ी है. जब राजा कल्याण चंद  के पुत्र निर्भय चंद का अपहरण राजा के मंत्री ने कर लिया. निर्भय चंद को लाड़ से घुघूती कहा जाता था. तभी एक कौवे ने कांव-कांव कर घुघूती को छुपाये स्थान का भेद दे दिया. बस राजा ने खुश हो कर कौवों को मीठा खिलाने का चलन शुरू किया और इसे घुघूती त्यार नाम मिला. 
मकर  संक्रांति का दिन इस लिहाज से भी यादगार बन गया। 
सभी को घुघुतिया त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
 
साभार -मृगेश पाण्डे 
काफल ट्री

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता