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Showing posts from December, 2019

तो आखिर तुमने पैकअप कर ही लिया नही मानोगे ? तो ˈमै मान लूँ अब कि : फ़ाइनली” finally” मुझे छोड़ करतुम आज चले जा रहे हो ?? अब और नही रूकोगे ना ?? सुनो : जा तो रहे हो पर क्या ! पैकअप करते वक्त तुमने गिना है की : तुमने अपने जर्नी बैग मे मेरे हिस्से की ! कितनी यादें, कितने राज,कितने आंसू, कितने मेरे टूटे सपनेपैक कर लिए है ??सुनो ! मै बोलती कम हूँ,सुनो ! मुझे ! अपनी बात कहने भी नही आती, पर इसका मतलब यह तो नही कि : जब कोई मेरा अपना :मुझे अकेला करके, मुझे छोड़ करकेमुझसे हमेशा के लिए दूर जाने लगे तो : मेरे भीतर कोई टीस, मेरे भीतर कोई दर्द नही होता, किसी अपने के जाने का किसी अपने के बिछडने कादर्द मुझे भी बहुत गहरे तक होता है आखिर यही दर्द तो है जो मेरी भावना के साथ मिलकर मेरी कविता बनता है अर्ची ! वर्ष 2018 तुम्हारे साथ जब कुल 12 माह का साथ रहा है मेरा तो : तुमसे प्यार हो जाना,तुमसे जुडाव हो जाना, तुमसे लगाव हो जाना, बहुत लाजमी है बारह माह ! 12 सौ से भी ज्यादे मेरे सपने कुछ टूटते - बिखरते सपने,कुछ सच होते सपने,कुछ :तिरस्कार - अभाव की भेंट चढ़ गए सपने, सबकी यादें आज मेरी कविता मे समा रही है तुमसे यह कहते हुए : हैप्पी जर्नी वर्ष 2018, सुनो मन पर नही लेना मेरे यह शब्द क्या है कि ! मै गुड बाय नही बोल सकती तुम्हे कलम की चितेरा हूँ मै ! जानती हूँ मै : मेरे कविता संसार में अतीत की यादें क्या महत्व रखती है ???जानती हूँ मै ! कविता मे कभी किसी को आखिरी विदाई नही दी जातीक्योंकि कविता ! यादो की नीव परनवीन - नव जीवन, नवीन - नव सृजन, नवीन नव वर्ष के आरम्भ का दूसरा बदला हुआ नाम है अर्ची जादू जैसा बदला हुआ नाम !!!================================कलम से : भारद्वाज अर्चिता 31/12/2018

तो आखिर तुमने पैकअप कर ही लिया  नही मानोगे ?  तो ˈमै मान लूँ अब कि :  फ़ाइनली” finally” मुझे छोड़ कर तुम आज चले जा रहे हो ??  अब और नही रूकोगे ना ??  सुनो : जा तो रहे हो  पर क्या ! पैकअप करते वक्त  तुमने गिना है की :  तुमने अपने जर्नी बैग मे  मेरे हिस्से की ! कितनी यादें, कितने राज, कितने आंसू, कितने मेरे टूटे सपने पैक कर लिए है ?? सुनो ! मै बोलती कम हूँ, सुनो ! मुझे ! अपनी बात  कहने भी नही आती,  पर इसका मतलब यह तो नही कि :  जब कोई मेरा अपना : मुझे अकेला करके, मुझे छोड़ करके मुझसे हमेशा के लिए दूर जाने लगे तो :  मेरे भीतर कोई टीस,  मेरे भीतर कोई दर्द नही होता,  किसी अपने के जाने का  किसी अपने के बिछडने का दर्द मुझे भी बहुत गहरे तक होता है  आखिर यही दर्द तो है जो  मेरी भावना के साथ मिलकर  मेरी कविता बनता है अर्ची !  वर्ष 2018 तुम्हारे साथ जब  कुल 12 माह का साथ रहा है मेरा  तो : तुमसे प्यार हो जाना, तुमसे जुडाव हो जाना,  तुमसे लगाव हो जाना, बहुत लाजमी है  बारह माह ! 12 सौ ...

मेरा विश्वास मानिए, आपके जितने भी दुश्मन, दोस्त, प्रतिद्वंद्वी, प्रेमी, नफ़रत करने वाले हैं, आज से 40 साल के भीतर ही उनमें से लगभग सब मर चुके होंगे!.. 40 साल भी शायद हमने ज़्यादा बता दिया! शायद 30-35 में ही ज़्यादातर निपट चुके होंगे.. जो बचे भी होंगे, वो आंख, कान, हाथ, पैर, दिमाग़, याद्दाश्त...सब खो चुके होंगे...ये कड़वी सच्चाई है..समय का चक्र है..जरावस्था की हक़ीक़त है..और ये 30-35 साल पलक झपकते गुज़र जाएंगे! ठीक वैसे ही, जैसे अबतक की उम्र गुज़र गई! यहां सब क्षणिक है.. बेहद क्षणिक.. फिर कैसी चिंता, किस बात की फिक्र, कैसा डर, किससे डर, किससे तुलना, किससे प्रतिद्वंद्व, किससे दुश्मनी, किससे द्वेश, किस बात का द्वेश, किससे झिझक, कैसी झिझक...! इसलिए हमेशा मस्त रहें, प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, खुशहाल रहे, ऊर्जावान रहें, चहकते रहें, हंसते रहें, हंसाते रहें...अपनी हैसियत अनुसार कभी होटलों में तो कभी खेतों-खलिहानों में, कभी नदी के किनारों पर तो कभी चौराहे के नुक्कड़ों पर, कभी किसी ज़रूरतमंद की मदद करते हुए तो कभी बच्चों के साथ खिलखिलाते हुए, कभी मित्रों के साथ तो कभी परिजनों के साथ, कभी पहाड़ों पर तो कभी झीलों के किनारे... कभी खेल के मैदान में तो कभी चौराहे वाली छोटी सी चाय की दुकान पर अपनी उम्र, पद, रैंक, पेशे इत्यादि झूठे व क्षणिक आवरण को फेंककर अट्ठाहास करके, पूरा मुंह खोलकर, हंस लिया कीजिए... चहक लिया करिए.. मृत्यु तय है.. जीवन बेहद अनिश्चित है.. बेहद छोटा है..

मेरा विश्वास मानिए, आपके जितने भी दुश्मन, दोस्त, प्रतिद्वंद्वी, प्रेमी, नफ़रत करने वाले हैं, आज से 40 साल के भीतर ही उनमें से लगभग सब मर चुके होंगे!.. 40 साल भी शायद हमने ज़्यादा बता दिया! शायद 30-35 में ही ज़्यादातर निपट चुके होंगे.. जो बचे भी होंगे, वो आंख, कान, हाथ, पैर, दिमाग़, याद्दाश्त...सब खो चुके होंगे...ये कड़वी सच्चाई है..समय का चक्र है..जरावस्था की हक़ीक़त है..और  ये 30-35 साल पलक झपकते गुज़र जाएंगे! ठीक वैसे ही, जैसे अबतक की उम्र गुज़र गई!  यहां सब क्षणिक है.. बेहद क्षणिक.. फिर कैसी चिंता, किस बात की फिक्र, कैसा डर, किससे डर, किससे तुलना, किससे प्रतिद्वंद्व, किससे दुश्मनी, किससे द्वेश, किस बात का द्वेश, किससे झिझक, कैसी झिझक...!  इसलिए हमेशा मस्त रहें, प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, खुशहाल रहे, ऊर्जावान रहें, चहकते रहें, हंसते रहें, हंसाते रहें... अपनी हैसियत अनुसार कभी होटलों में तो कभी खेतों-खलिहानों में, कभी नदी के किनारों पर तो कभी चौराहे के नुक्कड़ों पर, कभी किसी ज़रूरतमंद की मदद करते हुए तो कभी बच्चों के साथ खिलखिलाते हुए, कभी मित्रों के साथ तो कभी परिजनों के साथ, क...

आज अगर भारत इस महान विप्लवी को उनके जन्मदिवस पर भी याद नहीं कर रहा है तो ये हमारी बदनसीबी है. करतार के बलिवेदी चढ़ने से पहले किसी ने उनसे उनका परिचय पूछा था, तुसी किस दे बन्दे ओ? उन्होंने अपना परिचय बताते हुए कहा था, असी हिन्द दा बंदा (मैं हिन्द का बंदा हूं). मगर अफ़सोस आज 'हिन्द' में कोई उस करतार का स्मरण करने वाला नहीं है. आज करतार सिंह सराभा का जन्म दिवस है, कम से कम आज तो उनका पुण्य-स्मरण कर हम अपने पापों का परिमार्जन कर लें.

देश के युवाओं के लिए भगत सिंह सबसे बड़े आदर्श हैं पर स्वयं भगत सिंह जिन्हें अपना आदर्श मानते थे, उनके बारे में बहुत कम लोग जानतें हैं. भगत का आदर्श कोई बुजुर्ग साधु-संन्यासी, कोई राजनेता या कोई आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं था, बल्कि साढ़े 19 साल का एक युवक था. भगत अपनी जेब में साढ़े 19 साल के इस युवक की तस्वीर रखा करते थे और उसकी तस्वीर के सामने माल्यार्पण कर अपनी किसी सभा या जलसे की शुरुआत करते थे.  भगत का ये आदर्श पंजाब के लुधियाना के एक छोटे से गांव के धनाढ्य परिवार में जन्मा था. इस युवा के तीनों चाचा सरकारी सेवा में अच्छे पदों पर थे. जब वह अपनी उम्र के 11 वे साल में थे, तब बंगाल में बंग भंग आन्दोलन शुरू हो गया और वहीं से क्रांति और देशप्रेम का बीजारोपण उनके अंदर हुआ. हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उस बालक ने 1911 में अमेरिका का रुख किया. जहाज से जब अमेरिका की भूमि पर सैन फ्रांसिस्को तट पर कदम रखा तो वहां के अधिकारियों ने बेहद अपमानजनक तरीके से उनकी तलाशी ली और उनके साथ बुरा व्यवहार किया. ऐसा बर्ताव जहाज से आने वाले दूसरे लोगों के साथ नहीं किया जा रहा था तो व...
जादू तुम्हारे लिए बस तुम्हारे लिए :  कुछ लोग जिंदगी के किसी मोड पर अचानक टकराते हैं, और पल भर मे ही ऐसा लगने लगता है जैसे हम उन्हे युगो से जानते हैं ।  ऐसा लगने लगता है जैसे युगो - युगो से उनका ही तो हम इंतजार कर रहे थे !  कुछ लोग तिलिस्मी होते हैं...मतलब बहुत ही सादा और सीधे लेकिन आप न चाहते हुए भी खिंचे चले जाते हैं उनकी तरफ़......।  मैने भी तुम्हे जब पहली बार देखा था जादू बिल्कुल ऐसा ही अपनापन महसूस किया था । है तो यह बहुत ही साधारण सी बात है, पर बहुत मुश्किल भी है .....कितने ही लोगों से आप रोज मिलते हैं, टकराते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं...लेकिन कुछ लोग कभी-कभी बड़ी ख़ामोशी से क़दम रखते हैं और हो सकता है कि आपकी ज़िंदगी में असल में भी न क़दम रखा हो बल्कि वर्चुअली कहीं टकरा गए हों आपसे और बहुत गहरा प्रभाव छोड़ दिया हो आपके मन पर.. ( जैसे फेसबुक की भीड भरी दुनिया मे अचानक एक दिन तुम मुझसे टकरा गए थे जादू )  कुछ अलग ही आभा होती है ऐसे लोगों की जो छा जाती है आप पर और कितना भी न-न कर लें आप, संभालें नहीं संभाल पाते ख़ुद को.. हालाँकि कई लोग इसे इश्क़ कह सकते ...
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न्यायपालिका किसी भी जनतंत्र के तीन प्रमुख अंगों में से एक है। अन्य दो अंग हैं - कार्यपालिका और व्यवस्थापिका। न्यायपालिका, संप्रभुतासम्पन्न राज्य की तरफ से कानून का सही अर्थ निकालती है एवं कानून के अनुसार न चलने वालों को दण्डित करती है।   विकिपीडिया वीडियो YouTube ·  EDU TERIA 14:08 विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका समझ एक दृष्टि ... 22 जुल॰ 2018 AajTak 4:24 'संसद के महत्व का ख्याल न्यायपालिका को भी रखना ... 28 सित॰ 2018 YouTube ·  Pratham Academy 3:54 न्यायपालिका ।। न्यायपालिका के कार्य ।। upsc ।। upsc prepration ... 15 दिस॰ 2018 YouTube ·  MARGDARSHAN For Civil Services 21:05 न्यायपालिका:प्रमुख कार्य और महत्व Judiciary : Functions and ... 15 अग॰ 2019 YouTube ·  Rapid Study 7:09 भारत की न्यायपालिका, न्यायालय की संरचना _ Judiciary ... 12 दिस॰ 2018 YouTube ·  NewsPlatform 8:02 In Depth: न्यायपालिका की साख को लेकर चिंतित एक जज | Judge ... 21 नव॰ 2019 YouTube ·  NDTV 29:00 Prime Time with Ravish Kumar | प्राइम टाइम : न्यायपालिका की ... 26 अप्रैल 2018

शहीद भगत सिंह ने क्यों कहा कि "मैं नास्तिक हूँ"भगत सिंह का जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी | उन्होंने 5,6 अक्टूबर 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक धार्मिक आदमी को जवाब देने के लिये एक निबंध लिखा था जिसने उनके ऊपर नास्तिक होने का आरोप लगाया था | भगत सिंह की उम्र उभगत सिंह को शहीद-ए-आजम के नाम से भी जाना जाता था| वे 12 साल की उम्र में ही क्रांतिकारी बन गए थे. 13 अप्रेल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके दिमाग पर गहरी चाप छोड़ी थी जिसके कारण वे वीर स्वतंत्रता सेनानी बने और अपने कॉलेज की पढाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना कर डाली| जिस प्रकार से उन्होंने ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया उसे भुलाया नहीं जा सकता है|उनका जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी | उन्होंने 5,6 अक्टूबर 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक धार्मिक आदमी को जवाब देने के लिये एक निबंध लिखा था जिसने उनके ऊपर नास्तिक होने का आरोप लगाया था | भगत सिंह की उम्र उस समय 23 वर्ष की थी | इस निबंध को 1934 में प्रकाशित किया गया था और इसे युवाओं के बीच बहुत ही जबरदस्त समर्थन मिला था | कॉलेज के विद्यार्थियों ने इस किताब को बहुत पसंद किया था और इसकी बहुत सी प्रतियाँ भी बिकी थीं|उन्होंने लिखा था कि मैं सर्वशक्तिमान परमात्मा को मानने से इंकार करता हूँ, मैं नास्तिक इसलिये नहीं बना कि मैं अभिमानी, पाखंडी या फिर निरर्थक हूँ, मैं ना तो किसी का अवतार हूँ और ना ही ईश्वर का दूत और ना ही खुद परमात्मा | मैं अपना जीवन एक मकसद के लिए न्योछावर करने जा रहा हूँ और इससे बड़ा आश्वासन क्या हो सकता है| ईश्वर में विश्वास रखने वाला एक हिन्दु पुनर्जन्म में एक राजा बनने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या एक इसाई को स्वर्ग में भोगविलास पाने की इच्छा हो सकती है, लेकिन मुझे क्या आशा करनी चाहिए| मैं जानता हूँ कि जिस पल रस्सी का फंदा मेरे गले लगेगा और मेरे पैरो के नीचे से तख्ता हटेगा वो मेरा अंतिम समय होगा, पर किसी स्वार्थ भावना के बिना, यहाँ या यहाँ के बाद किसी पुरस्कार की इच्छा किये बिना मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को आज़ादी के नाम कर दिया हैपर वे ये भी कहते थे कि जब उनको लाहौर केस में पुलिस ने पकड़ लिया था तब भी उनका विश्वास भगवान से नहीं उठा था क्योंकि बचपन में वे पूजा अर्चना करते थे, उनके पिता ने उन्हें पाला था और वे आर्य समाजी थे और उन्ही की वजह से उन्होंने खुद को देश के लिए समर्पित किया था। कॉलेज के समय से वो भगवान के बारे मे सोचते थे और फिर वे एक रेवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और वहाँ उन्हें सचिन्द्र नाथ सान्याल के बारे में पता चला जिनको क़ाकोरी षड्यंत्र में जेल हुई थी । वहाँ से भगत सिंह के जीवन को एक नया मोड़ मिला और उनको पता चला की किसी भी क्रांतिकारी नेता को अपने विचारों से ही लोगों को प्रभावित करना होता हैं । पर जब उन चारो को फाँसी दे दी गई थी और सारी ज़िम्मेदारीं उनके कंधो पर आ गई , तब उन्हें समझ मे आया कि 'धर्म मानव कमजोरी का परिणाम या मानव ज्ञान की सीमा है' क्योकिं वे चारों जिनको फाँसी हुई थी वे भी धर्म के साथ ही देशभक्ति का प्रचार करते थे फिर भगत सिंह लिखते हैं कि हमारे पूर्वजो को ज़रूर किसी सर्वशक्तिमान अर्थात भगवान में आस्था रही होगी और उस विश्वास के सच या उस परमात्मा के अस्तित्व को जो भी चुनौती देता है, काफ़िर या फिर पाखंडी कहा जाता है| चाहे उस व्यक्ति के तर्क इतने मज़बूत क्यों ना हो कि उन्हें झुठलाना नामुमकिन हो, या उसकी आत्मा इतनी शसक्त क्यों ना हो की उसे ईश्वर के प्रकोप का डर दिखा कर भी झुकाया नही जा सकता है| मैं घमंड की वजह से नास्तिक नहीं बना बल्कि ईश्वर पर मेरे अविश्वास ने आज सभी परिस्तिथियों को मेरे प्रतिकूल बना दिया है और ये स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ सकती है| जरा सा अध्यात्म इस स्थिति को एक अलग मोड़ दे सकता है, लेकिन अपने अंत से मिलने के लिए मैं कोई तर्क देना नही चाहता हूँ|Jagranjoshलाहौर सेंट्रल जेल15 अगस्त 1947 रात 12 बजे ही क्यों भारत को आजादी मिली थी?आगे वे लिखते हैं कि मै यथार्थवादी व्यक्ति हूँ और अपने व्यवहार पर मैं तर्कशील होकर विजय पाना चाहता हूँ, भले ही मैं हमेशा इन कोशिशो में कामियाब नही रहा हूँ, लेकिन ये मनुष्यों का कर्तव्य है कि वो कोशिश करता रहे क्योंकि सफलता तो सहयोग और हालातों पर ही निर्भर करती है| आगे बढ़ते रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये ज़रूरी है कि वो पुरानी आस्था के सभी सिद्धान्तो में दोष ढूंढे और उसे एक-एक करके सभी मान्यताओं को चुनौती देनी चाहिए, उसे सभी बारीकियों को परखना और समझना चाहिए| अगर कठोर तर्क वितर्क के बाद वो किसी निर्णय तक पहुँचता है तो उसके विश्वास को सरहाना चाहिए| उसके तर्कों को झूठा भी समझा जा सकता हैं, पर ये भी तो संभव हैं की उसे सही ठहराया जाए क्योंकि तर्क ही जीवन का मार्गदर्शक हैं | बल्कि मुझे यह कहना चाहिए की विश्वास होना गलत नही है पर अंधविश्वास बहुत ही घातक हैं | वो एक व्यक्ति कि सोच एवं समझने की शक्ति को मिटा देता हैं और उसे सुधार विरोधी बना देता है जो भी व्यक्ति खुद को यथार्थवादी कहने का दावा करता है, उसे पुरानी मान्यताओं को चुनौती देनी होगी और मेरा मानना हैं कि यदि आस्था तर्क के प्रहार को सहन ना कर पाए तो वो बिखर जाती है| यहाँ पर अंग्रेजों का शासन इसीलिए नहीं है क्योंकि ईश्वर ऐसा चाहता है बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने का साहस नहीं है | अंग्रेज़ ईश्वर की मदद से हमें काबू मे नहीं रख रहें हैं बल्कि वो बन्दूको, गोलियों ओर सेना के सहारे ऐसा कर रहें हैं और सबसे ज्यादा हमारी बेपरवाही की वजह से | मेरे एक दोस्त ने मुझसे प्रार्थना करने को कहा, जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात कही तो उसने कहा कि जब तुम्हारें आखरी दिन नज़दीक आएँगे तब तुम यकीन करने लगोगे | तब मैंने कहा नहीं मेरे प्यारे मित्र ऐसा कभी नहीं होगा| मैं इसे अपने लिए अपमानजनक और नैतिक पतन की वजह समझता हूँ, ऐसी स्वार्थी वजहों से मैं कभी भी प्रार्थना नहजानें पहली बार अंग्रेज कब और क्यों भारत आभारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 7 महानायक जिन्होंने आजादी दिलाने में मुख्य भूमिका निभाईभगत सिंह ने क्यों कहा कि "मैं नास्तिक हूँ"भगत सिंह का जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी | उन्होंने 5,6 अक्टूबर 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक धार्मिक आदमी को जवाब देने के लिये एक निबंध लिखा था जिसने उनके ऊपर नास्तिक होने का आरोप लगाया था | भगत सिंह की उम्र उस समय 23 वर्ष की थी|Why Bhagat Singh said that he is an Atheistभगत सिंह को शहीद-ए-आजम के नाम से भी जाना जाता था| वे 12 साल की उम्र में ही क्रांतिकारी बन गए थे. 13 अप्रेल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके दिमाग पर गहरी चाप छोड़ी थी जिसके कारण वे वीर स्वतंत्रता सेनानी बने और अपने कॉलेज की पढाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना कर डाली| जिस प्रकार से उन्होंने ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया उसे भुलाया नहीं जा सकता है|उनका जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी | उन्होंने 5,6 अक्टूबर 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक धार्मिक आदमी को जवाब देने के लिये एक निबंध लिखा था जिसने उनके ऊपर नास्तिक होने का आरोप लगाया था | भगत सिंह की उम्र उस समय 23 वर्ष की थी | इस निबंध को 1934 में प्रकाशित किया गया था और इसे युवाओं के बीच बहुत ही जबरदस्त समर्थन मिला था | कॉलेज के विद्यार्थियों ने इस किताब को बहुत पसंद किया था और इसकी बहुत सी प्रतियाँ भी बिकी थीं|उन्होंने लिखा था कि मैं सर्वशक्तिमान परमात्मा को मानने से इंकार करता हूँ, मैं नास्तिक इसलिये नहीं बना कि मैं अभिमानी, पाखंडी या फिर निरर्थक हूँ, मैं ना तो किसी का अवतार हूँ और ना ही ईश्वर का दूत और ना ही खुद परमात्मा | मैं अपना जीवन एक मकसद के लिए न्योछावर करने जा रहा हूँ और इससे बड़ा आश्वासन क्या हो सकता है| ईश्वर में विश्वास रखने वाला एक हिन्दु पुनर्जन्म में एक राजा बनने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या एक इसाई को स्वर्ग में भोगविलास पाने की इच्छा हो सकती है, लेकिन मुझे क्या आशा करनी चाहिए| मैं जानता हूँ कि जिस पल रस्सी का फंदा मेरे गले लगेगा और मेरे पैरो के नीचे से तख्ता हटेगा वो मेरा अंतिम समय होगा, पर किसी स्वार्थ भावना के बिना, यहाँ या यहाँ के बाद किसी पुरस्कार की इच्छा किये बिना मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को आज़ादी के नाम कर दिया है |पर वे ये भी कहते थे कि जब उनको लाहौर केस में पुलिस ने पकड़ लिया था तब भी उनका विश्वास भगवान से नहीं उठा था क्योंकि बचपन में वे पूजा अर्चना करते थे, उनके पिता ने उन्हें पाला था और वे आर्य समाजी थे और उन्ही की वजह से उन्होंने खुद को देश के लिए समर्पित किया था। कॉलेज के समय से वो भगवान के बारे मे सोचते थे और फिर वे एक रेवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए और वहाँ उन्हें सचिन्द्र नाथ सान्याल के बारे में पता चला जिनको क़ाकोरी षड्यंत्र में जेल हुई थी । वहाँ से भगत सिंह के जीवन को एक नया मोड़ मिला और उनको पता चला की किसी भी क्रांतिकारी नेता को अपने विचारों से ही लोगों को प्रभावित करना होता हैं । पर जब उन चारो को फाँसी दे दी गई थी और सारी ज़िम्मेदारीं उनके कंधो पर आ गई , तब उन्हें समझ मे आया कि 'धर्म मानव कमजोरी का परिणाम या मानव ज्ञान की सीमा है' क्योकिं वे चारों जिनको फाँसी हुई थी वे भी धर्म के साथ ही देशभक्ति का प्रचार करते थे ।फिर भगत सिंह लिखते हैं कि हमारे पूर्वजो को ज़रूर किसी सर्वशक्तिमान अर्थात भगवान में आस्था रही होगी और उस विश्वास के सच या उस परमात्मा के अस्तित्व को जो भी चुनौती देता है, काफ़िर या फिर पाखंडी कहा जाता है| चाहे उस व्यक्ति के तर्क इतने मज़बूत क्यों ना हो कि उन्हें झुठलाना नामुमकिन हो, या उसकी आत्मा इतनी शसक्त क्यों ना हो की उसे ईश्वर के प्रकोप का डर दिखा कर भी झुकाया नही जा सकता है| मैं घमंड की वजह से नास्तिक नहीं बना बल्कि ईश्वर पर मेरे अविश्वास ने आज सभी परिस्तिथियों को मेरे प्रतिकूल बना दिया है और ये स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ सकती है| जरा सा अध्यात्म इस स्थिति को एक अलग मोड़ दे सकता है, लेकिन अपने अंत से मिलने के लिए मैं कोई तर्क देना नही चाहता 15 अगस्त 1947 रात 12 बजे ही क्यों भारत को आजादी मिली थी?आगे वे लिखते हैं कि मै यथार्थवादी व्यक्ति हूँ और अपने व्यवहार पर मैं तर्कशील होकर विजय पाना चाहता हूँ, भले ही मैं हमेशा इन कोशिशो में कामियाब नही रहा हूँ, लेकिन ये मनुष्यों का कर्तव्य है कि वो कोशिश करता रहे क्योंकि सफलता तो सहयोग और हालातों पर ही निर्भर करती है| आगे बढ़ते रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये ज़रूरी है कि वो पुरानी आस्था के सभी सिद्धान्तो में दोष ढूंढे और उसे एक-एक करके सभी मान्यताओं को चुनौती देनी चाहिए, उसे सभी बारीकियों को परखना और समझना चाहिए| अगर कठोर तर्क वितर्क के बाद वो किसी निर्णय तक पहुँचता है तो उसके विश्वास को सरहाना चाहिए| उसके तर्कों को झूठा भी समझा जा सकता हैं, पर ये भी तो संभव हैं की उसे सही ठहराया जाए क्योंकि तर्क ही जीवन का मार्गदर्शक हैं | बल्कि मुझे यह कहना चाहिए की विश्वास होना गलत नही है पर अंधविश्वास बहुत ही घातक हैं | वो एक व्यक्ति कि सोच एवं समझने की शक्ति को मिटा देता हैं और उसे सुधार विरोधी बना जो भी व्यक्ति खुद को यथार्थवादी कहने का दावा करता है, उसे पुरानी मान्यताओं को चुनौती देनी होगी और मेरा मानना हैं कि यदि आस्था तर्क के प्रहार को सहन ना कर पाए तो वो बिखर जाती है| यहाँ पर अंग्रेजों का शासन इसीलिए नहीं है क्योंकि ईश्वर ऐसा चाहता है बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने का साहस नहीं है | अंग्रेज़ ईश्वर की मदद से हमें काबू मे नहीं रख रहें हैं बल्कि वो बन्दूको, गोलियों ओर सेना के सहारे ऐसा कर रहें हैं और सबसे ज्यादा हमारी बेपरवाही की वजह से | मेरे एक दोस्त ने मुझसे प्रार्थना करने को कहा, जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात कही तो उसने कहा कि जब तुम्हारें आखरी दिन नज़दीक आएँगे तब तुम यकीन करने लगोगे | तब मैंने कहा नहीं मेरे प्यारे मित्र ऐसा कभी नहीं होगा| मैं इसे अपने लिए अपमानजनक और नैतिक पतन की वजह समझता हूँ, ऐसी स्वार्थी वजहों से मैं कभी भी प्रार्थना नहीं करूँगा !भगत सिंह को लगता था कि स्वार्थी होकर हमें परमात्मा से प्रार्थना नहीँ करनी चाहिए बल्कि खुद को अंग्रेजों के लिए इतना मज़बूत बनाना चाहिए की हम उन लोगों का सामना कर सके !

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शहीद भगत सिंह ने क्यों कहा कि "मैं नास्तिक हूँ" भगत सिंह का जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी | उन्होंने 5,6 अक्टूबर 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक धार्मिक आदमी को जवाब देने के लिये एक निबंध लिखा था जिसने उनके ऊपर नास्तिक होने का आरोप लगाया था |  भगत सिंह की उम्र उ भगत सिंह को शहीद-ए-आजम के नाम से भी जाना जाता था| वे 12 साल की उम्र में ही क्रांतिकारी बन गए थे.  13 अप्रेल, 1919  को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके दिमाग पर गहरी चाप छोड़ी थी जिसके कारण वे वीर स्वतंत्रता सेनानी बने और अपने कॉलेज की पढाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना कर डाली| जिस प्रकार से उन्होंने ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया उसे भुलाया नहीं जा सकता है| उनका जन्म सितम्बर 1907 में पंजाब में हुआ था  और सैंडर्स की हत्या के आरोप में दोषी पाये जाने के कारण  23 मार्च 1931  को उन्हें लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गयी थी |   उन्हो...

भगत सिह सुखदेव और राजगुरू

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से संबंधित कुछ अनजाने तथ्य Nov 07, 2019, Nikhilesh Mishra शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत को आजाद होने में मुख्य भूमिका निभाई थी. इनके बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है.  क्या आप जानते हैं कि इनको तय दिन और समय से 11 घंटे पहले ही फांसी पर चढ़ा दिया गया था. इस दिन को हर वर्ष शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं. इस लेख में हम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत को याद करते हुए उनसे जुड़े कुछ अनजाने तथ्यों का विवरण दे रहे हैं. भगतसिंह 1 . 8 वर्ष की छोटी उम्र में ही वह भारत की आजादी के बारे में सोचने लगे थे और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया थाl 2 . भगत सिंह के माता-पिता ने जब उनकी शादी करवानी चाही तो वह कानपुर चले गए थेl उन्होंने अपने माता-पिता से कहा कि “अगर गुलाम भारत में मेरी शादी होगी तो मेरी दुल्हन मौत होगीl” इसके बाद वह “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” में शामिल हो गए थेl 3.  भगत सिंह ने अंग्रेजों से कहा था कि “फांसी के बदले मुझे गोली मार देनी चाहिए” लेकिन अंग्रेजों ने इसे नहीं माना। इसका उल...

भगत महत्वपूर्ण

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घर कोई भी निकट प्रवेश सेटिंग्स विकिपीडिया के बारे में   अस्वीकरण मुख्य मेनू खोलें खोजें सुखदेव भारतीय क्रांतिकारी किसी अन्य भाषा में पढ़ें डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें सुखदेव  ( पंजाबी : ਸੁਖਦੇਵ ਥਾਪਰ, जन्म:  15 मई   1907  मृत्यु:  23 मार्च   1931 ) का पूरा नाम  सुखदेव थापर  था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने नाम के साथ थापर नहीं लिखा। यह दावा शहीद भगत सिंह के भान्जे प्रोफेसर जगमोहन सिंह ने भी किया।उन्होंने बताया की सुखदेव ने हमेशां अपने नाम सुखदेव को ही लिखा और कभी भी जाति का ज़िक्र नहीं किया।इसी तरह राजगुरु और टी सिंह ने भी अपनी जाति का उल्लेख अपने नाम के साथ कभी नहीं किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम  के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्हें  भगत सिंह  और  राजगुरु  के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था। इनकी शहादत को आज भी सम्पूर्ण  भारत  में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। सुखदेव  भगत सिंह  की तरह बचपन से ही आज़ादी का सपना पाले हुए थे। ये दोनों 'लाहौर नेशनल कॉलेज' के छात्र थे। दोनों ए...

भगत सिंह (जन्म: सितम्बर/अक्टूबर १९०७[a] , मृत्यु: २३ मार्च १९३१) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी थे। चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर इन्होंने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया। पहले लाहौर में साण्डर्स की हत्या और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन्होंने असेम्बली में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ( कुल दो केस में ) फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश में उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया जाता है।भगत सिंहਭਗਤ ਸਿੰਘ19 october 1907[a] से 23 मार्च 1931 ई०भगत सिंह 1929 ई० मेंजन्मस्थल : गाँव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में)जटृ जाट(सिक्ख)मृत्युस्थल: लाहौर जेल, पंजाब (अब पाकिस्तान में)आन्दोलन: भारतीय aditya rathourस्वतन्त्रता संग्रामप्रमुख संगठन: नौजवान भारत सभा, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशनसुखदेव, राजगुरु तथा भगत सिंह के लटकाये जाने की ख़बर - लाहौर से प्रकाशित द ट्रिब्युन के मुख्य पृष्ठजन्म और परिवेशभगत सिंह संधु का जन्म २८ सितंबर १९०७ को प्रचलित है परन्तु तत्कालीन अनेक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म १९ अक्टूबर १९०७ ई० को हुआ था।[a] उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक जाट [{सिक्ख}] परिवार था। उनका परिवार पूर्णतः आर्य समाजी था।अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजी सरकार ने उनसे बम फोड़ने की वजह जानना चाही तब भगत सिंह ने कहा,"बहरो तक अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए धमाके की जरूरत पड़ती है"क्रान्तिकारी गतिविधियाँ भगत सिंह,राजगुरु एवं सुखदेवभगत सिंहउस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ, पर पूरे राष्ट्र की तरह वो भी महात्मा गांधी का सम्मान करते थे। पर उन्होंने गांधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिये हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। शहीद भगत सिंह के बारे में आप शहीद भगत सिंह लेख में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हे।लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोधसंपादित करेंसॉण्डर्स की हत्या के बाद एचएसआरए द्वारा लगाए गए परचे१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो। गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० lवी० स्कूल की चहादीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।१७ दिसंबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया।एसेम्बली में बम फेंकना भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी विचारधारा को मानते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका ताल्लुक था और उन्हीं विचारधारा को वे आगे बढ़ा रहे थे। यद्यपि, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। कलान्तर में उनके विरोधी द्वारा उनको अपने विचारधारा बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे है उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, ताकि किसी को भी नुकसान न पहुंचे। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा[9] लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।जेल के दिनसिन्ध से प्रकाशित बिस्मिल की आत्मकथा का प्रथम पृष्ठ। यही पुस्तक भगतसिंह को लाहौर जेल में भेजी गयी थी।जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?[10][11] जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ( जतिनदास ) ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।फांसीभगत सिंह का मृत्यु प्रमाण पत्र26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को ब्रिटिश दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई।[12] फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।[13] कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे।मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। २३ वर्ष की छोटी सी आयु में फांसी के तख्ते पर हंसते हंसते चढ़ने वाले भगत सिंह अपने विचारों के कारण हमेशा के लिये अमर हो गये।व्यक्तित्वजेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है। उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवं उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को।भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[14]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[15] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।“किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते । वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं । सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं ।”~ भगत सिंहख्याति और सम्मानसंपादित करेंहुसैनीवाला में तीनों शहीदों का स्मारकउनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, पर चूँकि भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी। देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया।दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ?" पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसू के २२-२९ मार्च १९३१ के अंक में तमिल में सम्पादकीय लिखा। इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था।आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी।उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया।

भगत सिंह  (जन्म: सितम्बर/अक्टूबर १९०७ [a]  , मृत्यु: २३ मार्च १९३१)  भारत  के एक प्रमुख  स्वतंत्रता सेनानी  क्रांतिकारी थे।  चन्द्रशेखर आजाद  व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर इन्होंने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया। पहले  लाहौर  में साण्डर्स की हत्या और उसके बाद  दिल्ली  की केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम-विस्फोट करके  ब्रिटिश साम्राज्य  के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन्होंने असेम्बली में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें  २३ मार्च   १९३१  को इनके दो अन्य साथियों,  राजगुरु  तथा  सुखदेव  के साथ( कुल दो केस में ) फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश में उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया जाता है। भगत सिंह ਭਗਤ ਸਿੰਘ 19 october 1907 [a]  से 23 मार्च 1931 ई० भगत सिंह 1929 ई० में जन्मस्थल : गाँव  बंगा , जिला  लायलपुर ,  पंजाब  (अब  पाकिस्तान  म...