पिछले 8 वर्ष से विवेकानन्द पर कुछ कुछ लिख रही हूँ । उस दार्शनिक पर, उस राग मुक्त वैरागी पर नितानन्त निज शोध के तहत उसके जीवन के उन पहलू को खँगाल रही हूँ जो उसके वैराग और कर्म के बीच खडे रागी अवरोध - विरोध रहे ! अपने जीवन पर्यन्त जिनसे वह लडता रहा ! बहुत कुछ हाथ लगा और बहुत कुछ लिखा भी । मैने लिखा कि : वैराग के बाद भी विवेकानन्द चाचाओँ और पटिदारो द्वारा माँ सहित अपने परिवार के सदस्यो को घर से बेदखल कर दिए जाने के बाद माँ के लिए भगवा बाना मे कोर्ट तक गए । मैने उस वैरागी दार्शनिक के लिए यह सब जब लिखा तो बहुत सारे हिन्दू, बहुत सारे मुसलमान बन्धू, बहुत सारे लेफ्ट के लोगो ने मुझपर तोहमत जडा की अर्ची विवेकानन्द तो पश्चिम द्वारा निर्मित सन्त है लिखना है तो दयानन्द पर लिखो जो विशुद्ध भारतीय सन्त है ! उपरोक्त लोगो के विचार से अवगत हो मुझ बेपरवाही शोधक ने उन्हे केवल इतना कहा मैने तो लिखा दोनो पर है आप सब कभी दोनो को एक साथ तौलो नही क्योकि दोनो हमारे समाज के वह दर्पण है जिन्होने समाज को जितना ही जोडा है खुद को उतना ही तोडा है ! और इस टूटने मे ही उनकी योग साधना पूरी तरह परिपक्व हुई । आत्मा का वैरागी हो जाना और पग - पग समाज, देश, परिवार, के प्रति दाईत्व निर्वहन मे शरीर का और शरीर से किए गए कर्म का रागी रहना यही तो विवेक का आनन्द है ! यही तो विवेकानन्द है ! साभार : भारद्वाज अर्चिता
पिछले 8 वर्ष से विवेकानन्द पर कुछ कुछ लिख रही हूँ । उस दार्शनिक पर, उस राग मुक्त वैरागी पर नितानन्त निज शोध के तहत उसके जीवन के उन पहलू को खँगाल रही हूँ जो उसके वैराग और कर्म के बीच खडे रागी अवरोध - विरोध रहे !
अपने जीवन पर्यन्त जिनसे वह लडता रहा ! बहुत कुछ हाथ लगा और बहुत कुछ लिखा भी ।
मैने लिखा कि : वैराग के बाद भी विवेकानन्द चाचाओँ और पटिदारो द्वारा माँ सहित अपने परिवार के सदस्यो को घर से बेदखल कर दिए जाने के बाद माँ के लिए भगवा बाना मे कोर्ट तक गए ।
मैने उस वैरागी दार्शनिक के लिए यह सब जब लिखा तो बहुत सारे हिन्दू, बहुत सारे मुसलमान बन्धू, बहुत सारे लेफ्ट के लोगो ने मुझपर तोहमत जडा की अर्ची विवेकानन्द तो पश्चिम द्वारा निर्मित सन्त है लिखना है तो दयानन्द पर लिखो जो विशुद्ध भारतीय सन्त है !
उपरोक्त लोगो के विचार से अवगत हो मुझ बेपरवाही शोधक ने उन्हे केवल इतना कहा मैने तो लिखा दोनो पर है आप सब कभी दोनो को एक साथ तौलो नही क्योकि दोनो हमारे समाज के वह दर्पण है जिन्होने समाज को जितना ही जोडा है खुद को उतना ही तोडा है !
और इस टूटने मे ही उनकी योग साधना पूरी तरह परिपक्व हुई ।
आत्मा का वैरागी हो जाना और पग - पग समाज, देश, परिवार, के प्रति दाईत्व निर्वहन मे शरीर का और शरीर से किए गए कर्म का रागी रहना यही तो विवेक का आनन्द है ! यही तो विवेकानन्द है !
साभार :
भारद्वाज अर्चिता
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