जय जय गिरिबरराज किसोरी १
जय जय गिरिबरराज किसोरी जय महेस मुख चंद चकोरी
माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड
जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव विभव पराभव कारिनि।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
[दोहा]
पतिदेवता सुतीय महुँ,
मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि,
सहस सारदा सेष।।235।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायिनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
[छंद]
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु,
सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु,
सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय,
सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि,
मुदित मन मंदिर चली।।
[सोरठा]
जानि गौरि अनुकूल सिय,
हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल,
बाम अंग फरकन लगे।।
क्यों कहते हैं शिव जी को भोले भंडारी ?
शिव जी को "भोले भंडारी" के नाम से भी पुकारते हैं , लेकिन क्यों ? कारन नाम से ही स्पष्ट है। शिव जी को भोले भंडारी के नाम से इसलिए जाना जाता है क्यों की वो अपने भक्तों पर बहुत दयालु हैं और जो उन्हें याद करते हैं, भले ही पूजा अर्चना ना ही करते हों, उन पर सदैव बाबा का हाथ होता है और वो उन्हें भी आशीर्वाद देते हैं। शिव जी की पूजा के लिए भी किसी विशेष सामग्री की आवश्यकता नहीं होती हैं। बाबा को मात्रा बेल पत्र और पानी से भी प्रशन्न किया जा सकता है। बाबा के भोले स्वाभाव के कारन ही शिव जी को भोले भंडारी कहा जाता है।
यहाँ ये भी दिलचस्प है की एक और तो शिवजी को सम्पूर्ण श्रस्टि का विनाश करने की ताकत रखने वाला और भूत प्रेत के साथ रहने वाला और शमशान निवासी बताया गया है और वही दूसरी और भक्तों के लिए बाबा भोलेनाथ भी हैं ?
भोलेनाथ का शाब्दिक अर्थ है बच्चे की तरह से मासूमियत रखने वाला "भोला " . भक्तों के लिए बाबा के दिल में सदैव आशीर्वाद होता है और किसी तरह से अहंकार नहीं होता है।
क्या है कहानी बाबा के "भोलेनाथ" बनने की ?
बाबा के भोलेनाथ बनने के पीछे एक कहानी है। एक समय की बात है एक असुर जिसका नाम भस्मासुर था उसने बाबा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या शुरू कर दी। तपस्या भी ऐसी की उसने रात और दिन एक कर दिए। बाबा ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसके सामने आये और कहा की उसकी क्या मनोकामना है। इस पर भस्मासुर के बाबा से वरदान माँगा की उसे ऐसा वरदान दे की कोई भी उसे छूते ही भस्म हो जाए। बाबा ने दैत्य की इस मनोकामना को पूर्ण कर दिया। लेकिन असुर तो होते ही असुर हैं, भस्मासुर ने सोचा की क्यों ना शिव जी के वरदान की परीक्षा शिव जी से ही ली जाए और शिव जी के समाप्त होते ही उससे श्रेष्ठ इस संसार में कोई नहीं होगा।
भष्मासुर जब शिव जी की और उन्हें भस्म करने के लिए दौड़ा तो शिव जी भी आगे आगे दौड़ने लगे। भगवन विष्णु जी ने जब ये नजारा देखा तो तुरंत पूरा माजरा समझ गए और शिव जी की मदद के लिए उन्होंने मोहिनी का रूप धारण कर असुर का ध्यान अपनी और खींचा। अपने मोहक नृत्य से भस्मासुर का हाथ उसके ही सर पर रखवा दिया जिससे भस्मासुर भस्म हो गया। ये उदहारण है की शिव जी कितने भोले स्वभाव के हैं। यही कारन हैं की भगवन शिव जी को भोले नाथ के नाम से पुकारा जाता है।
क्या महत्त्व है कावड़ का : मान्यता है की सर्वप्रथम भगवान् परशुराम ने अपने आराध्य देव श्री शिव के गंगा जल का कावड़ लाकर पूरा महादेव में प्राचीन शिव लिंग का जलाभिषेक किया था। परशुराम ने पुरे विश्व कर विजय हासिल करने के बाद (दिग्विजय के बाद ) मेरठ के पास पूरा नाम के स्थान पर विश्राम किया। यह स्थान उन्हें विश्राम करने के लिए अत्यंत ही मनमोहक और शांत प्रतीत हुआ। मान्यता है की परशुराम ने यहाँ श्री शिव मंदिर बनाने का सकल्प लिया और पत्थर लाने के लिए गंगा तट पर गए और जब वे वहां से पत्थर लाने लगे तो पत्थर रोने लगे क्यों की वे गंगा माता से अलग नहीं होना चाहते थे। तब परशुराम ने उनसे वादा किया की मंदिर निर्माण में काम आने वाले पत्थरों का चिरलकाल तक गंगा जल से अभिषेक किया जायेगा।
माना जाता है की उसी समय से कावड़ लाने की प्रथा का जन्म हुआ माना जाता है। पूरा महादेव में शिव मंदिर की स्थापना परशुराम ने ही की थी। तभी से इस परंपरा की शुरुआत मानी जाती है। भगवान् परशुराम श्रावण माह के प्रत्येक सोमवार को नियमित रूप से श्री शिव को गंगा जल से अभिषेक करवाते थे। आज भी पुरे देश में सावन महीने में पवित्र स्थानों से कावड़ में जल लाकर श्री श्रीव के अभिषेक किया जाता है। श्रावण माह का सोमवार श्री शिव को प्रिय माना जाता है। भगवन शिव को सावन माह में पवित्र जल और पंचामृत ( दूध, दही, घी, शहद और शक्कर ) का अभिषेक करने से शिव प्रशन्न होते हैं और व्यक्ति के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
कावड़ का अर्थ : कावड़ का अर्थ होता है कावर जिसका मतलब होता है कन्धा। पवित्र जल को कंधे पर एक लकड़ी के सहारे से दोनों और पवित्र जल के पात्र लटकाये जाते हैं। कावड़ लाने वाले को कावड़िया कहा जाता है। सावन माह में मार्गों पर भगवा वस्त्र धारण किये हुए कावड़ियों की शोभा देखते ही बनती है। कावड़िये मार्ग में आने वाली तमाम तरह की मुश्किलों को सह कर पवित्र जल श्री शिव के अर्पित करते हैं।
कावड़ चढ़ाने से मिलेगा श्री शिव का आशीर्वाद : कावड़ चढाने से श्री शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। कावड़ से श्री शिव प्रशन्न होते हैं और यह हमारे व्यक्तित्व निर्माण और सकल्प शक्ति का भी निर्माण करती है। कावड़ दूर दराज इलाकों से लायी जाती है जिसमे श्री शिव नाम की मस्ती और जोश तो होता है जबकि कठिन मार्गों से कावड़ लाने पर व्यक्ति के संकल्प शक्ति का विकास भी होता है। कावड़ यात्रा के दौरान भगवन शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। भगवान् शिव की जटाओं में गंगा विराजमान रहती है इसलिए भगवान् शिव को गंगा जल अत्यंत ही प्रिय है और गंगा जल से अभिषेक करने से श्री शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है इसलिए आप भी इस सावन को कावड़ जरूर लाएं श्री शिव आपकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे।
पूरा महादेव मंदिर : उतर प्रदेश के मेरठ के पास एक छोटे से गाँव में स्थापित है पूरा महादेव मंदिर। श्री शिव भक्तों की आस्था का महा केंद्र है यह मंदिर। यह मंदिर बहुत प्राचीन है और सिद्धपीठ माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण भगवान् परशुराम जी के द्वारा किया गया है। हरिद्वार से गंगा का पवित्र जल कावड़ लाकर यहाँ चढाने से श्री शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है और अत्यंत ही शुभ माना जाता है।
ज्योतिर्लिङ्ग और शिवलिंग में क्या अंतर है : शिव पुराण में एक जगह उल्लेख मिलता है की श्री शिव और श्रष्टि के रचियता श्री ब्रह्मा जी में विवाद उत्पन्न हो गया की दोनों में से श्रेष्ठ कौन है ? तब श्री शिव एक विशाल ज्योति के स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए। ज्योतिर्लिंग स्वयंभू होते है जबकि लिंग मानव के द्वारा निर्मित होते हैं। ग्रंथों के द्वारा कुल १२ ज्योतिर्लिङ्ग का शिव पुराण की रुद्र संहिता में विवरण प्राप्त होता है।
द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग : श्री शिव भगवान् के प्रकट होने के स्थानों को ज्योतिर्लिङ्ग के नाम से जाना जाता है।
ज्योतिर्लिङ्ग की संख्या १२ है जो श्री शिव का वरदान है । ये द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग निम्न प्रकार से हैं :-
श्रीसोमनाथ : यह गुजरात के सौराष्ट्र में स्थापित है। श्री सोमनाथ को भारत में ही नहीं पृथ्वी पर प्रथम ज्योतिर्लिङ्ग है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है। श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना स्वंय चंद्र देव के द्वारा की गयी थी। श्री सोमनाथ ने कई विदेश आक्रांताओं के हमले झेले हैं और कई बार बना और बिगड़ा है। श्री सोमनाथ पर १७ विदेशी हमले हुए थे। श्री चंद्रदेव को दक्ष प्रजापति ने क्षय रोग का श्राप दिया था और उन्होंने श्री सोमनाथ में ही तप करके अपने श्राप से मुक्ति पायी थी।
श्रीमल्लिकार्जुन : श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिङ्ग आंध्र प्रदेश में स्थापित है और श्रीशैल पर्वत (कृष्णा नदी के तट पर ) की चोटी पर स्थापित है। अनेक धार्मिक ग्रंथों में इस की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है की इसके दर्शन से होने वाले लाभ श्री कैलाश पर्वत के दर्शन के समान है। श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शन से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है।
श्री महाकालेश्वर : श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग मध्य प्रदेश की धार्मिक धुरी उज्जैन में स्थापित है। यहाँ प्रतिदिन भस्म आरती की जाती है जो भारत में ही नहीं विश्व भर में विख्यात है। यह ज्योतिर्लिङ्ग दक्षिणमुखी है। लम्बी और स्वस्थ आयु और अकाल बाधाओं को दूर रखने के लिए श्री महाकालेश्वर की अर्चना अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।
श्री ॐकारेश्वर : ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के बहाव क्षेत्र इंदौर के समीप स्थापित है। नर्मदा नदी यहाँ धूम कर ॐ की आकृति बनाती है इसी लिए इस ज्योतिर्लिङ्ग को ओमकारेश्वर के नाम से पुकारा जाता है।
श्री केदारनाथ : श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिङ्ग उत्तराखंड में स्थापित है। स्कन्द पुराण और शिव पुराण में श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिङ्ग का परिचय मिलता है। इस ज्योतिर्लिङ्ग के जीर्णोद्धारक आदि शंकराचार्य थे। श्री केदार नाथ के दर्शन से पाप मुक्ति होती है और जीवन मुक्ति का मार्ग खुलता है। मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिङ्ग के पुजारी होते हैं।
श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग : महाराष्ट्र के पूणे जिले में सह्याद्रि नामक पर्वत पर भीमा शंकर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग : धर्म की नगरी काशी, वाराणसी में श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है। ऐसी मान्यता है की काशी नगरी श्री शिव के त्रिशूल पर स्थापित है। इस मंदिर के दर्शन से मोक्ष प्राप्त होता है। श्री काशी विश्वनाथ जी में दिन में भव्य ५ बार आरती की जाती है जो विश्वभर में प्रशिद्ध हैं।
श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग: महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के समीप श्री त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित है जिसकी धार्मिक मान्यता है। ऐसा कहा जाता है की गौतम ऋषि और गोदावरी के विनती करने पर भगवान् शिव यहाँ रहे थे इसीलिए भगवन शिव के एक नाम त्रयंबकेश्वर के ऊपर इस जगह का नाम त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग रखा गया।
श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग : यह पवित्र धाम वर्तमान में झारखण्ड के दुमका जनपद में स्थापित है और इसे वैधनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है। श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग को नौवां प्रमुख ज्योतिर्लिङ्ग बताया गया है। श्री शिव को वैद्यों का नाथ भी कहा जाता है। देवताओं ने प्रत्यक्ष श्री शिव के दर्शन किये और धाम का नाम श्री वैद्यनाथ रखा।
श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग : श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग गुजरात के द्वारिका क्षेत्र में स्थापित है। रूद्र संहिता में इसे दारुकावने नागेशं कहा गया है। शास्त्रों में इसकी महिमा है और कहा गया है की इसकी कथा सुनने और दर्शन से समस्त पाप कट जाते हैं। शृद्धा भाव से आने वाले भक्तों की सभी मनोकामनाएं यहाँ आने और दर्शन करने से पूर्ण होती हैं।
श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग : श्री रामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग तमिलनाडु के रामनथपुर में स्थापित है। ऐसी मान्यता है की भगवान् श्री राम ने स्वंय इसकी स्थापना की थी।
श्रीघुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग : यह ज्योतिर्लिङ्ग महाराष्ट्र के संभाजी नगर के पास दौलताबाद के पास स्थापित है। इस ज्योतिर्लिङ्ग की महिमा है की इसके दर्शन मात्र से समस्त दुःख दर्द दूर हो जाते हैं।
यदि कोई व्यक्ति प्रातः काल में इन ज्योतिर्लिङ्ग का नाम लेता है तो नाम लेने मात्र से उसके सात जन्मों के पाप भी कट जाते हैं। ज्योतिर्लिङ्ग का नाम लेने मात्र ले इतना लाभ होता है जैसे की वह व्यक्ति स्वंय ज्योतिर्लिङ्ग में जाकर दर्शन कर कृपा प्राप्त करे। श्री शिव जी को भोलेनाथ कहा जाता है क्यों की उन्हें जो भी कोई निश्छल भाव से सुमिरन करता है, श्री शिव उसकी समस्त बाधाएं दूर करते हैं। श्री शिव को मानने के लिए किसी कठोर पूजा अर्चना की भी आवश्यकता नहीं होती है।
श्री शिव को देवो के देव महादेव कहा जाता है। श्री शिव भोलेनाथ भी हैं जो बड़ी ही सहजता से अपने भक्तों को प्रशन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। श्री शिव का स्मरण करते ही एक छवि बनती है अलमस्त, अपने हाथ में डमरू, त्रिशूल और गले में नाग देवता और मस्तक पर चन्द्रमा दिखाई देता है। श्री शिव जी के पास त्रिशूल, डमरू,गले में नाग और मस्तक पर चन्द्रमा कहा से आये, आइये जानते हैं।
श्री शिव और त्रिशूल : श्रष्टि की उत्पत्ति के समय रज तम और सत का भी जन्म हुआ था। श्री शिव उसी समय श्री शिव इन तीन शूल को त्रिशूल रूप में धारण करते हैं। भगवान् शिव धनुष भी धारण करते हैं जिसका नाम पिनाक था जिसका आविष्कार स्वंय श्री शिव ने किया था। पौराणिक मान्यता के अनुसार श्री शिव अस्त्र शस्त्र के परम ज्ञाता थे और हर प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुणता हासिल थी। मान्यता है की त्रिशूल तीन देवों का भी प्रतीक है ब्रह्म, विष्णु और महेश। देवी शक्ति त्रिसूल से असुर शक्तियों का विनाश करती हैं इसलिए त्रिशूल को माता लक्ष्मी, माता पार्वती और माता सरस्वती जी के प्रतीकात्मक शक्ति के रूप में भी देखा जाता है।
श्री शिव और डमरू : श्रष्टि के जन्म पर सरस्वती जी ने वीणा बजाकर ध्वनि को पैदा किया। श्री शिव ने आनंदित होकर १४ बार डमरू बजाय और सुर, लय, व्याकरण और ताल का आविष्कार किया। तभी से सभी सुरों का जन्म हुआ बताया जाता है और यही कारन है की श्री शिव जी हाथों में डमरू धारण किये हुए दिखता है। डमरू को ब्रह्म का प्रतीक भी माना जाता है। हिन्दू धर्म का नृत्य और गायन से गहरा सम्बद्ध रहा है। श्रष्टि की रचना भी ध्वनि और दैवीय प्रकाश से हुयी है। ध्वनि के महत्त्व को शिव जी के डमरू से समझा जा सकता है।
शिव के गले में शोभित नाग : नागों के स्वामी हैं वासुकि और उन्हें श्री शिव के पास रहने का वरदान प्राप्त है। वासुकि श्री शिव के परम भक्त हैं इसलिए वो सदा शिव के गले पर लिपटा रहना पसंद करते हैं। समुद्र मंथन के समय वासुकि ने रस्सी का काम किया था। यही कारण है की श्री शिव के गले में नाग आभूषण की तरह से दिखाई देते हैं।
मस्तक पर चन्द्रमा : चंद्र देव का विवाह दक्ष प्रजापति की २७ कन्याओं से हुआ था। यह कन्याओं २७ नक्षत्र भी कही जाती हैं। चंद्र देव रोहिणी से विशेष प्रेम करते थे और अन्य कन्याओं ने जब दक्ष से इस बारे में शिकायत की तो उन्होंने चंद्र देव को क्षय होने का श्राप दिया। श्री चंद्र देव ने क्षय होने के श्राप से बचने के लिए श्री शिव की पूजा और तपस्या सोमनाथ में शुरू की। श्री चंद्र देव की तपस्या से प्रशन्न होकर श्री शिव ने चंद्र देव को अपने शीश पर स्थान दिया। चंद्र देव के आकार का घटना और बढ़ना दक्ष प्रजापति जी के श्राप के कारन ही होता है।
Comments
Post a Comment