ग़ज़ल


उस जनम के बिछड़े
इस जनम में आ मिले हैं
मुद्दत के बाद मिले हैं “हम”
आइए बैठिए तो सही,

एक जमाना गुजर गया है 
देखे हुए आपको,
आइए बैठिए तो सही .....
उस जनम के बिछडे .......॥

देखते हैं क्यों मुझे बेरुखी से
अजनबी की तरह ?
तोड़िये ख़ामोशी
राजे दिल खोलिए तो सही
उस जनम के बिछड़े
इस जनम मे आ मिले हैं ॥

कुछ हमारी सुनिये, कुछ अपनी सुनाइए,
कितनी सजा मिली वफ़ा के नाम पर ?
जहर कितना उतारा गया हलक से,
किस-किस ने बनाया तमाशा बेबसी का ?
छोड़िए झिझक कुछ बोलिए तो सही,
उस जनम के बिछड़े ........॥

एक कसक सी उठी है मन में
पाकर करीब आपको,
जी उठी है पहचान कोई
पा कर करीब आपको,
कहाँ खबर थी ग़ज़ल को अवि
ले आएगी यूँ पास फिर नसीब आपको

ग़ज़ल अभी अधूरी है,
सुर अभी अधूरे हैं,
तोडिए शाम-ए-शहर का सियाह भंवर
आइए साथ मिलकर सुर नया कोई
छेडिए तो सही,
उस जनम के बिछड़े ...........॥
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कलम से :
विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता
संयुक्त रूप से लिखी गयी ग़ज़ल
@ ग़ज़ल संग्रह “ शाम-ए-शहर ” से

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