गांधी के सत्य अहिंसा के मार्ग में माँ पुतली बाई का योगदान
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती विशेष के उपलक्ष में लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता की कलम से स्माइली लाइव क्रिएशन्स परिवार की प्रसतुति
“गांधी से महात्मा बनने तक गांधी के जीवन मे माँ पुतलीबाई का योगदान” !
विज्ञान के मानक पर भी इस सत्य की पुष्टि की जा चुकी है की बच्चे के विकास मे, बच्चे के चरित्र निर्माण मे, मां की भूमिका अनुवांशिक ( genetic ) रूप से एवम व्यवहारिक रूप से बहुत बडी होती है !
बच्चा भविष्य मे वही बनता है, बचपन मे प्राथमिक स्तर पर मां जो संस्कार, जो परवरिश, जो आचरण उसमे विकसित करती है, संचारित करती है, बोती है, यही वजह है कि दुनिया में जब भी कोई व्यक्ति महान बनता है तो उसकी महानता के पीछे मजबूत प्रोटेक्शन के रूप में उसकी मां की कुशल परवरिश का संरक्षण खडा होता है !
आज हम अपनी कहानी श्रृंखला “ माँ तेरा आँचल जो हमेशा साथ रहता है” में लेकर आये हैं वैश्विक स्तर के महान चरित्र, सत्य अहिंसा के पुजारी, मानवता के पक्षधर, सहिष्णुता - समानता के संस्थापक मोहनदास करमचन्द गांधी के युग नायक बनने के मार्ग में उनकी मां पुतली बाई के योगदान की सच्ची कहानी !
मोहनदास करम चन्द गांधी विश्व पटल पर अंकित एक ऐसा सार्वभौमिक “Universal” नाम जो निश्चित रूप से आज किसी परिचय का मोहताज नही है ! किन्तु उसका यह परिचय जिस चरित्र ने निर्मित किया विश्व ने कभी उस चरित्र पर गहनता से प्रकाश नही डाला, जबकि उस चरित्र पर प्रकाश डालने की नितान्त जरूरत महसूस होती है क्योकि मोहनदास करमचन्द गांधी का जीवन काव्य उस रस रूप अलंकार के बिना नीरस और अधूरा प्रतीत होता है जिसने उन्हे मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी बनने मे सतत सहयोग किया !
आइए आज लेकर चलते है आप सभी को मां पुतलीबाई और बालक मोहनदास करमचन्द की सच्ची कहानी पर :
मोहनदास करमचन्द गांधी जन्म 2 अक्टूबर 1869 भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का वह महत्वपूर्ण आध्याय है जिसपर आज पूरा विश्व मनन करते हुए सिर झुकाता है !
मोहनदास करमचन्द गांधी को इतनी ऊँचाई तक उनके जिस गुण ने पहुँचाया वह था सत्य, अहिंसा, आचरण की शुद्धता, एवम जटिलता के पथ का त्याग कर समाज को सहजता के पथ पर ले जाने की अवधारणा,भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने से लेकर सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य के मार्ग का सुचिता से पालन करना और समाज से भी इनका पालन करने के लिये वकालत करना साथ ही समाज मे समानता ले आने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास !
“अपनी आत्मकथा मे गांधी ने बताने का प्रयास किया है कि अपनी माँ से बचपन मे मिले उन ब्रत, तप, त्याग, शुद्ध आचरण के अनुभव, ( जो वह पूरी निष्ठा से किया करती थी बिना किसी प्रलोभन के )ने मेरी परम्परागत भारतीय पोशाक, मेरा सादा शाकाहारी भोजन और मेरे द्वारा आत्मशुद्धि के लिये लम्बे -लम्बे उपवास रखने के पीछे बहुत बडी भूमिका निभाया ! मै कह सकता हूँ मेरे बचपन मे मिला केवल मेरी माँ का व्यवहारिक आचरण ही सदैव मेरी प्रेरणा बना रहा । ”
जैसा की मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात प्रदेश के एक तटीय शहर पोरबंदर में हुआ था। इनका परिवार सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखता था ! एवम ब्रिटिश व्यवस्था के अन्तर्गत इनके पिता करमचन्द गांधी काठियावाड की एक छोटी सी रियासत पोरबंदर के दीवान अर्थात प्रधान मन्त्री हुआ करते थे।
चूँकि पिता एक रियासत के दीवान थे इसलिए उनकी दैनिक दिनचर्या अति व्यस्तता से भरी होती थी ! रोज घर मे आना परिवार के साथ रहना नही हो पाता था ऐसे मे बेटे मोहनदास को भी पिता का साथ कम ही मिल पाता था ! पिता का कम साथ मिलना या न के बराबर पिता के साथ समय गुजारना बेटे मोहनदास को माँ पुतलीबाई का करीबी बनाता चला गया ! बच्चो के लिए पिता और माता दोनो का सजग दायित्व माँ पुतलीबाई को अकेले निभाना पडता था ! गाँधी ने स्वयम भी स्वीकारा है कि “ मेरे प्रारम्भिक जीवन मे मेरी माँ ने मुझमे जो आचरण डाले मेरे लिए वह आचरण ही मेरे जीवन मूल्य बन गए ”
मोहनदास गांधी की माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द गांधी की चौथी पत्नी थी।करमचन्द गांधी की पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। पुतलीबाई जिस परिवार की बेटी थी वह परिवार जैन परम्पराओं के करीब था ! परिवार की जैन भक्ति का असर बचपन से ही पुतलीबाई के चरित्र मे समाहित हुआ था ! जैन परम्परा मे आस्था रखने वाली माता की देखरेख, परवरिश, और अपने आस - पास के क्षेत्र मे जैन धर्म के लोगो की बहुलता के चलते बचपन से लेकर 13 वर्ष की अवस्था तक ( विवाह से पूर्व तक ) मोहनदास पर जैन धर्म के सिद्धान्तो के गहरे प्रभाव पड़ चुके थे ।
माँ से मिले यही वह मूल्य परक प्रभाव थे जिन्होंने आगे चलकर मोहनदास के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
एक बार जब बालक मोहन दास को साथियो से यह पता चला कि माशाहार करने से शरीर पुष्ट होता है, ताकत आती है, बच्चे स्वस्थ्य होते है, तो उन्होने माशाहार करने का मन बनाया घर से छुपकर बाहर तैयारी भी हुई किन्तु जब निवाला होट तक पहुँचा तभी बालक मोहनदास को माता पुतली बाई के शब्द याद हो आए यथा :
“ मोहन क्या कभी किसी निर्बल की हत्या करके कोई महान बन सकता है ?
शुद्ध शाकाहारी भोजन आत्मा को पवित्र करता है और पवित्र आत्मा मे ही शुद्ध विचार का जन्म होता है ?
माँ के शब्द स्मरण होते ही बालक मोहनदास के हाथ रूक गए और वह बिना माशाहार किए ही दौडकर माता के पास आए और सारी घटना माता से कह सुनाए घटना सुनने के बाद बालक मोहन को अपनी पीठ पर माता के साबासी वाले हाथ का अनुभव हुआ जिस अनुभव के साथ उनके भीतर कभी माशाहार न करने की इच्छा बलवती हुई ।
बचपन मे बालक मोहन देखता था माँ पुतलीबाई अक्सर उपवास रखा करती थी उत्सुकता बस जब भी वह माँ से पूछता माँ यह उपवास क्यो रखती हो आप ? तब माँ का उत्तर मिलता आत्मशुद्धि के लिये ।
बचपन मे माँ से मिले यही उत्तर आगे चल कर संघर्ष हेतु सत्याग्रह करते वक्त गांधी के जीवन सस्त्र बने और गांधी को जगत मे मोहनदास से महात्मा बना दिए ।
पोरबंदर से मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद आगे क्या करना है यह तय करना गांधी के लिए सहज काम न था क्योकि दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर के मानक पर वह एक औसत छात्र थे । मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने
भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ जब उत्तीर्ण की और वहाँ रहते हुए अप्रसन्नता दिखायी तो माँ पुतलीबाई ही उन्हे सम्बल देती रही यह कहते हुए की इस त्याग पर ही उनका उज्ज्वल भविष्य टिका हुआ है ! जैसा कि गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के साथ मेरा प्रयोग ( My Experiment With Truth ) मे लिखा है “ उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था जिसके लिए वह खुश नही थे ॥”
विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत करने हेतु जब अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पूर्व 4 सितम्बर 1888 को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड जाने लगे तब वह उनकी माँ पुतलीबाई ही थी जिन्होने जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष बेटे मोहनदास के हाथ मे गंगाजली के साथ तुलसी पत्र रखकर बेटे से विदेश मे मांसाहार न करने, शराब न पीने, परस्त्रीगामी न होने, सत्य बोलने, शुद्ध आचरण का पालन करने, अपने उद्देश्य पर केन्द्रित होने, एक पत्नी ब्रती होने, तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने का सपथपूर्ण वचन लिया था । यह वह वचन रहे जिन्होने पुत्र मोहनदास को
इंग्लैंड की शाही राजधानी लन्दन मे भी शाकाहारी एवम शुद्ध आचरण पालनकर्ता बनाए रखा ।
गांधी लिखते है लन्दन मे रहते हुए भी उन्होंने शाकाहारी
भोजनालयों की शरण ली और अपनी माता की इच्छाओं का पालन किया और यही से शाकाहारी भोजन को आजीवन अपना भोजन स्वीकार किया।
माँ की प्रेरणा के चलते ही लन्दन मे उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हुआ ।
बचपन मे माँ द्वारा गाए जाने वाले श्री श्याम के भजन एवम चरित्र का वर्णन सुनते - सुनते ही गांधी के भीतर
श्रीमद्भग्वदगीता पढ़ने की इच्छा ने जन्म लिया ।
माँ पुतलाबाई की कहानियो मे राम रावण के युद्ध का वर्णन सुनते हुए जब बालक मोहनदास माँ से पूछता माँ सूर्य अस्त के साथ राम रावण के बीच युद्ध क्यो बन्द कर दिया जाता था ?
जवाब मे माता पुतलीबाई कहती “ क्योकि उस युद्ध मे श्रीराम लड रहे थे और श्री राम कभी मर्यादा के विरूद्ध कोई कार्य नही करते थे ॥”
निश्चित रूप से गाँधी के जीवन मे जब देश मे राम राज्य लाने की कल्पना जगी तो उसके पीछे माँ की बचपन वाली कहानी मे वर्णित मर्यादा पुरूषोत्म रघु नायक का आचरण व्यवहार एवम उनकी आदर्श नीति व्यवस्था ही कार्य कर रही थी !
अफ्रीका में गान्धी जी जब भारतीयों पर भेदभाव की घटनाओं से आहत होकर उनके हक और न्याय की लडाई लड रहे थे उस वक्त की एक बडी घटना का जिक्र आता है जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था । न्यायाधीश के आदेश को सुनते ही गांधी को माँ के बचपन वाले वह सिद्धान्त स्मरण हो आए जिसमे माँ कहा करती थी व्यक्ति का अकारण किसी के आगे नतमस्तक होना भी एक प्रकार की जघन्य हिंसा है जो वह अपने निज सम्मान पर आत्मा के सच को मार कर करता है ।” मा के शब्द याद आते ही गांधी ने न्यायाधीश के सामने पूरी निडरता के साथ अपनी पगडी उतारने से मना कर दिया था॥
हमारी कलम से लिखी गयी उपरोक्त सच्ची कहानी से अवगत होने के बाद यह स्वीकार करना हर माँ के लिए गौरव की बात होगी की मोहनदास करमचन्द गांधी वही बने जो उनकी माँ पुतलीबाई ने उनकी परवरिश के दौरान उनके आचरण मे रोपित किया था ।
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