12 साल का वह एक बच्चा जिसके बाल मन पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के तहत दिवारों पर उभरी गलियों के निशान ने लिखा क्रांति का प्रथम अध्याय : ================================= हमारी किताब का यह पन्ना 12 वर्षीय उस बालक के भीतर क्रांति का बीज बोने वाले जलियांवाला बाग हत्याकांड से जुडा है जिसे 23 मार्च सन 1931 के बाद दुनिया ने शहीदे आजम भगत सिंह के नाम से याद रखना मुनासिब समझा ! अंग्रेजी हुकूमत की जडों को अपने साहस से हिला कर रख देने वाले मात्र 23 वर्ष 5 माह 25 दिन के उस राष्ट्रवादी महानायक से जिसने अपनी उम्र से कईगुना ज्यादे अपने चरित्र का विस्तार कर लिया था जन - जन के मन एवम आत्मा पर, उसको जब जेल प्रशासन ने फांसी देने से पहले वाहे गुरू का ध्यान करने की सलाह दी तो उसकी आँख के सामने जलियांवाला बाग की दिवार पर लगी गोलियोँ के वह आडे - तिरछे - बेतरतीब निशान जिवन्त हो गए जिन्हे देखने के बाद 12 वर्ष की उम्र मे उसने अपने आर्य समाजी पिता सरदार किशन सिंह से कहा था “ पिता जी मै भी चाचा अजीत सिंह की तरह बनूँगा और अत्याचारी ब्रिटिश हूकूमत को घुटनो पर लाकर छोडूगाँ । जलियांवाला बाग की दिवार पर लगी गोलियोँ के निशान को जब मै महसूस करता हूँ तो अपने उन निहत्थे निर्दोश परिवारोँ के दर्द को भी महसूस करता हूँ जिन्हे अकारण ब्रिटिश हूकूमत ने मौत के घाट उतारा है !” जेलर के शब्द सुनकर भगत सिंह जोर - जोर से हँसे और वंदे मातरम , इंकलाब जिंदाबाद, का उद्घोष करते हुए जेलर से जो आखिरी शब्द बोलो वह कुछ इस प्रकार से थे “ जेलर साहब आखिरी वक्त मे भगवान को क्या याद करना, जिन्दगी भर तो मैं देश पूजा करते हुए नास्तिक रहा, अब भगवान को याद करूंगा तो लोग कहेंगे मैं बुजदिल और बेईमान था इसी लिए आखिरी वक्त मे मौत को सामने देखकर मेरे पैर लडख़ड़ाने लगे और मैने अपना राष्ट्र धर्म भुला दिया।” अपने यह शब्द समाप्त करने के साथ ही एक बार पुन: उन्होने पूरी शक्ति के साथ वंदे मातरम इंकलाब जिंदाबाद का उद्घोष किया और मैं व्यस्त हूँ अपने एकमात्र धर्म राष्ट्रवादी धर्म का पालन करते हुए पूरी निडरता से फांसी का फंदा चूम लिया था ! जैसा की हम सब जानते है अंग्रेजों को भीतर तक सहमा देने वाले शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के ग्राम चक 105 जिला लायलपुर में 28 सितम्बर 1907 को हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती देवी कौर था। सिर्फ 12 साल की उम्र में जलियांवाला बाग हत्याकांड के साक्षी रहे भगत सिंह की सोच पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना कर डाली। भगत सिंह के भतीजे किरणजीत सिंह ने बातचीत में बताया कि “ ताया शहीद भगत सिंह जी की साहसी क्रांतिकारी व्यक्तित्व को एक तरफ रखकर देखें तो पता चलता है कि वे एक सरस, सजीव, विनम्र, चुहलबाजी मसखरा करने वाले सह्रदय, सन्तुलित और उदार व्यक्तित्व के थे। उन्होंने बताया कि “ हमारे ताया जी ”शहीदे आजम भगत सिंह की अपने निश्चयों के प्रति ऐसी अटलता थी कि जैसी धार्मिक मनुष्यों की अपने धर्म के प्रति होती है, एक बार जो निश्चय हो गया उसमे न वे ढील करते थे, न ढील सहते थे। कोई ढील करे, तो उन्हें वह नागवार गुजरता था। उनकी एक विशेषता यह भी थी की वह कभी निज स्वार्थ हेतु किसी को ठेस नही पहुंचाते थे। यदि उन्हें यह महसूस होता की उनकी बात से किसी को ठेस लगी है, किसी को दु:ख पहुँचा है तो वह हंसी खुशी का वातावरण बना कर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। और इससे काम न चले तो, गले मे हाथ डालकर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। जेल के अफसर उनकी देख - रेख करते थे। लाहौर जेल के बडे जेलर खान बहादुर मुहम्मद अकबर कहा करते थे कि उन्होंने अपने समूचे जीवन में भगत सिंह जैसा श्रेष्ठ मनुष्य नहीं देखा जो राष्ट्र धर्म के लिए कुल धर्म की भी परवाह नही करता और खुद को ऐसा नास्तिक क्रान्तिकारी घोषित कर चुका है जो राष्ट्र के उद्धार को ही अपना ध्येय और राष्ट्र को अपना ईष्ट मान चुका है।” भगत सिंह को रोना धोना उदासी के बिल्कुल पसन्द नही थी और मित्रो मे सदैव कहा करते थे “ मै जब तक जिन्दा हूँ हर हाल मे मुस्कराता रहूँगा और मेरी मुस्कराहट ही गोरो के भय का कारण बना रहेगा और जब दरूँगा तब भी मुस्कुराते हुए क्रान्ति गीत गाते हुए मरूँगा ! मौत के समय की मेरी मुस्कुराहट, और मेरे क्रान्तिगीत देश के दुश्मनो एवम ब्रिटेन की रानी के सिंहासन को इस कदर अस्थिर करेँगे कि दुनिया मे एक नए इतिहास की नीव रखी जाएगी ! यही वजह रही कि फांसी का फंदा चूमते वक़्त भी वह मौत के खौफ से डगमगाए नही ना ही किसी प्रकार की उदासी उनके पास फटकने पायी थी। साहस भगत सिंह के स्वभाव का अभिन्न अंग था। जैसा की तमाम जानकारी प्राप्त करने के दरम्यान हमे पता चला की कम उम्र से ही भगत सिंह को लिखने पढ़ने का शौक था, वर्ष 1925 मे शहीदे आजम दिल्ली के वीर अर्जुन में सम्पादन विभाग का काम भी करते थे। दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के साथ एक चौबारे में रहते थे यथा दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के शब्दों मे “भगत सिंह मितभाषी और अध्ययन शील थे। खाली समय में और रात को प्राय: राजनीतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पुस्तकें पढते रहते थे। उम्र भले कम थी पर समाचार की तैयारी करने मे बेहद चुस्त थे। उनका जीवन अत्यन्त सादा और संयम पूर्ण था।” दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के ही शब्दो मे यथा “ यह सच है की भगत सिंह हर स्थिति मे संयमपूर्वक मुस्कुराते रहते हुए खुद को मजबूत रखते थे किन्तु देर रात को वह अक्सर चौबारे की छत पर अकेले बैठे रोया भी करते थे। कई बार जब मैने उनसे रोने का कारण पूछा, तो बहुत देर तक चुप रहने के बाद बोले, मातृभूमि की इस दुर्दशा को देखकर मेरा दिल छलनी हो रहा है। एक ओर विदेशियों के अत्याचार हैं, दूसरी और भाई - भाई का गला काटने को तैयार है। इस हालत में मातृभूमि के ये बन्धन कैसे कटेंगे।?”
12 साल का वह एक बच्चा जिसके बाल मन पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के तहत दिवारों पर उभरी गोलियों के निशान ने लिखा क्रांति का प्रथम अध्याय :
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हमारी किताब का यह पन्ना 12 वर्षीय उस बालक के भीतर क्रांति का बीज बोने वाले जलियांवाला बाग हत्याकांड से जुडा है जिसे 23 मार्च सन 1931 के बाद
दुनिया ने शहीदे आजम भगत सिंह के नाम से याद रखना मुनासिब समझा !
अंग्रेजी हुकूमत की जडों को अपने साहस से हिला कर रख देने वाले मात्र 23 वर्ष 5 माह 25 दिन के उस राष्ट्रवादी महानायक से जिसने अपनी उम्र से कईगुना ज्यादे अपने चरित्र का विस्तार कर लिया था जन - जन के मन एवम आत्मा पर, उसको जब जेल प्रशासन ने फांसी देने से पहले वाहे गुरू का ध्यान करने की सलाह दी तो उसकी आँख के सामने जलियांवाला बाग की दिवार पर लगी गोलियोँ के वह आडे - तिरछे - बेतरतीब निशान जिवन्त हो गए जिन्हे देखने के बाद 12 वर्ष की उम्र मे उसने अपने आर्य समाजी पिता सरदार किशन सिंह से कहा था “ पिता जी मै भी चाचा अजीत सिंह की तरह बनूँगा और अत्याचारी ब्रिटिश हूकूमत को घुटनो पर लाकर छोडूगाँ । जलियांवाला बाग की दिवार पर लगी गोलियोँ के निशान को जब मै महसूस करता हूँ तो अपने उन निहत्थे निर्दोश परिवारोँ के दर्द को भी महसूस करता हूँ जिन्हे अकारण ब्रिटिश हूकूमत ने मौत के घाट उतारा है !”
जेलर के शब्द सुनकर भगत सिंह जोर - जोर से हँसे और वंदे मातरम , इंकलाब जिंदाबाद, का उद्घोष करते हुए जेलर से जो आखिरी शब्द बोलो वह कुछ इस प्रकार से थे “ जेलर साहब आखिरी वक्त मे भगवान को क्या याद करना, जिन्दगी भर तो मैं देश पूजा करते हुए नास्तिक रहा, अब भगवान को याद करूंगा तो लोग कहेंगे मैं बुजदिल और बेईमान था इसी लिए आखिरी वक्त मे मौत को सामने देखकर मेरे पैर लडख़ड़ाने लगे और मैने अपना राष्ट्र धर्म भुला दिया।” अपने यह शब्द समाप्त करने के साथ ही एक बार पुन: उन्होने पूरी शक्ति के साथ वंदे मातरम इंकलाब जिंदाबाद का उद्घोष किया और मैं व्यस्त हूँ अपने एकमात्र धर्म राष्ट्रवादी धर्म का पालन करते हुए पूरी निडरता से फांसी का फंदा चूम लिया था !
जैसा की हम सब जानते है अंग्रेजों को भीतर तक सहमा देने वाले शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के ग्राम चक 105 जिला लायलपुर में 28 सितम्बर 1907 को हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती देवी कौर था। सिर्फ 12 साल की उम्र में जलियांवाला बाग हत्याकांड के साक्षी रहे भगत सिंह की सोच पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना कर डाली। भगत सिंह के भतीजे किरणजीत सिंह ने बातचीत में बताया कि “ ताया शहीद भगत सिंह जी की साहसी क्रांतिकारी व्यक्तित्व को एक तरफ रखकर देखें तो पता चलता है कि वे एक सरस, सजीव, विनम्र, चुहलबाजी मसखरा करने वाले सह्रदय, सन्तुलित और उदार व्यक्तित्व के थे।
उन्होंने बताया कि “ हमारे ताया जी ”शहीदे आजम भगत सिंह की अपने निश्चयों के प्रति ऐसी अटलता थी कि जैसी धार्मिक मनुष्यों की अपने धर्म के प्रति होती है, एक बार जो निश्चय हो गया उसमे न वे ढील करते थे, न ढील सहते थे। कोई ढील करे, तो उन्हें वह नागवार गुजरता था। उनकी एक विशेषता यह भी थी की वह कभी निज स्वार्थ हेतु किसी को ठेस नही पहुंचाते थे। यदि उन्हें यह महसूस होता की उनकी बात से किसी को ठेस लगी है, किसी को दु:ख पहुँचा है तो वह हंसी खुशी का वातावरण बना कर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। और इससे काम न चले तो, गले मे हाथ डालकर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। जेल के अफसर उनकी देख - रेख करते थे। लाहौर जेल के बडे जेलर खान बहादुर मुहम्मद अकबर कहा करते थे कि उन्होंने अपने समूचे जीवन में भगत सिंह जैसा श्रेष्ठ मनुष्य नहीं देखा जो राष्ट्र धर्म के लिए कुल धर्म की भी परवाह नही करता और खुद को ऐसा नास्तिक क्रान्तिकारी घोषित कर चुका है जो राष्ट्र के उद्धार को ही अपना ध्येय और राष्ट्र को अपना ईष्ट मान चुका है।”
भगत सिंह को रोना धोना उदासी के बिल्कुल पसन्द नही थी और मित्रो मे सदैव कहा करते थे “ मै जब तक जिन्दा हूँ हर हाल मे मुस्कराता रहूँगा और मेरी मुस्कराहट ही गोरो के भय का कारण बना रहेगा और जब दरूँगा तब भी मुस्कुराते हुए क्रान्ति गीत गाते हुए मरूँगा ! मौत के समय की मेरी मुस्कुराहट, और मेरे क्रान्तिगीत देश के दुश्मनो एवम ब्रिटेन की रानी के सिंहासन को इस कदर अस्थिर करेँगे कि दुनिया मे एक नए इतिहास की नीव रखी जाएगी ! यही वजह रही कि फांसी का फंदा चूमते वक़्त भी वह मौत के खौफ से डगमगाए नही ना ही किसी प्रकार की उदासी उनके पास फटकने पायी थी। साहस भगत सिंह के स्वभाव का अभिन्न अंग था। जैसा की तमाम जानकारी प्राप्त करने के दरम्यान हमे पता चला की कम उम्र से ही भगत सिंह को लिखने पढ़ने का शौक था, वर्ष 1925 मे शहीदे आजम दिल्ली के वीर अर्जुन में सम्पादन विभाग का काम भी करते थे। दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के साथ एक चौबारे में रहते थे यथा दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के शब्दों मे “भगत सिंह मितभाषी और अध्ययन शील थे। खाली समय में और रात को प्राय: राजनीतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पुस्तकें पढते रहते थे। उम्र भले कम थी पर समाचार की तैयारी करने मे बेहद चुस्त थे। उनका जीवन अत्यन्त सादा और संयम पूर्ण था।”
दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के ही शब्दो मे यथा “ यह सच है की भगत सिंह हर स्थिति मे संयमपूर्वक मुस्कुराते रहते हुए खुद को मजबूत रखते थे किन्तु देर रात को वह अक्सर चौबारे की छत पर अकेले बैठे रोया भी करते थे। कई बार जब मैने उनसे रोने का कारण पूछा, तो बहुत देर तक चुप रहने के बाद बोले, मातृभूमि की इस दुर्दशा को देखकर मेरा दिल छलनी हो रहा है। एक ओर विदेशियों के अत्याचार हैं, दूसरी और भाई - भाई का गला काटने को तैयार है। इस हालत में मातृभूमि के ये बन्धन कैसे कटेंगे।?”
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