ग़ज़ल तुम्हारी नफरतों
तुम्हारी नफरतों की दीवार ढहेगी एक दिन
है खबर मुझे अवि,
मेरे दर से होकर ही गुजरेगी राहें मंजिल तुम्हारी
एक दिन ...............
मेरे सब्र की इंतेहा यही है,
हां सितमगर मेरे सब्र की इंतेहा यही है !!
जब भी सोचा है तुम्हें
इक ग़ज़ल की तरह सोचा है मैंने,
एक -एक नज़्म :
दर्द भी फानी है
जख्म भी फानी है ...
मेरे सब्र की इंतेहा यही है
हां सितमगर मेरे सब्र की इंतेहा यही है !!
जिस्म पर जमाने भर का हिजाब
तोहमतो का है फिर भी सफर,
सैकड़ा पूरा भी नही हो पाएगा
चलचला कारवां चल पड़ेगा ...,
हम जिएंगे हजार उम्र खाक में मिलकर भी...
रूह से रूह की तय की है हमने रवायतें नातेदारी...
मेरे सब्र की इंतेहा यही है
हां सितमगर मेरे सब्र की इंतेहा यही है ..
तुमको जादू यूं ही तो ना कहा है मैंने,
कई सियाह रातों में :
तुम्हारी फितरत को नापा है मैंने,
बोल-चाल की जुबान पर ताला लगा कर
बंद करके एहसासों के दरवाजे सभी
सूकून से जो सो न पाए हो तुम एक भी रात
मेरे “माजी”
मेरे सब्र की इंतेहा यही है,
हां सितमगर मेरे सब्र की इंतेहा यही है !!
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कलम से :
लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता
20/09/2018
संयुक्त रूप से लिखी गयी ग़ज़ल
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