हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी की उन्नति के लिए क्या होना चाहिए ? मैं क्या कर सकती हूँ ? हिंदी भाषा - भाषी भारतीय नागरिकों को क्या करना चाहिए ? जैसे उपरोक्त बिंदु पर हर वर्ष १४ सितम्बर को परिचर्चा, सेमिनार, संगोष्ठी, बहस, का आयोजन देखते, सुनते, शामिल होते, दशकों बीत गए पर परिणाम ज्यों का त्यों रह जाना इस बात का साक्ष्य है कि हमारी कथनी करनी मे : : तारतम्यता नही है, :सजगता नही है, :भावनात्मक जुडाव नही है, अगर उपरोक्त इन तीन बिंदु का पालन हुआ होता तो हिंदी भाषा जिस दिशा में जा रही है, जिस दसा मे है शायद उसकी न यह दसा होती, न ही यह दिशा होती ! शहर के रेलवे राजभाषा अधिकारी लगायत, बैंक, एडमिन, एवम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागा अध्यक्ष सहित दर्जन भर हिंदी रचनाकारो के साथ आज परिचर्चा करवाने के बाद जब परिचर्चा से मुक्त हुई तो मेरे मन मे एक ही भाव शेष था और इसमे कोई दो राय नही कि वह शेष ही मेरे भीतरी भावना का परम सत्य है यथा :
हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी की उन्नति के लिए क्या होना चाहिए ?
मैं क्या कर सकती हूँ ?
हिंदी भाषा - भाषी भारतीय नागरिकों को क्या करना चाहिए ?
जैसे उपरोक्त बिंदु पर हर वर्ष १४ सितम्बर को परिचर्चा, सेमिनार, संगोष्ठी, बहस, का आयोजन देखते, सुनते, शामिल होते, दशकों बीत गए पर परिणाम ज्यों का त्यों रह जाना इस बात का साक्ष्य है कि हमारी कथनी और करनी मे :
: तारतम्यता नही है,
: सजगता नही है,
: भावनात्मक जुडाव नही है,
अगर उपरोक्त इन तीन बिंदु का पालन हुआ होता तो हिंदी भाषा जिस दिशा में जा रही है, जिस दशा मे है, शायद उसकी न यह दशा होती, न ही यह दिशा होती ....न ही ..हिंदी भाषा इस दुर्दशा को पहुँचती की हिंदी भाषा मे अपनी बात कहने के लिए हमारे देश के युवा अपनी एक अलग ही भाषा रोमन मिश्रित हिं-अँग्रेजी को ईजाद कर कर लेते !
रेलवे राजभाषा अधिकारी लगायत, बैंक, एडमिन, आकाशवाणी, विश्वविद्यालय के हिंदी विभागा अध्यक्ष, दर्जन भर हिंदी रचनाकारों सहित हिंदी विषय के शोधछात्रों के सानिध्य मे आज मेरे अखबार कार्यालय “जिस अखबार मे मै नौकरी करती हूँ ” वहाँ १४ सितम्बर हिंदी दिवस के उपलक्ष में :
“वर्तमान समय मे हिंदी भाषा की दशा - दिशा”
विषय पर एक परिचर्चा रखी गयी थी ! परिचर्चा प्रात : 11बजे से 2 बचे दिन तक चली ! देर तक चलने वाली इस परिचर्चा से जब मै मुक्त हुई तो मेरे मन मे एक ही भाव शेष था, और इसमे कोई दो राय नही कि वह शेष भाव ही मेरे भीतरी भावना का परम सत्य है यथा :
जिस प्रकार किसी बडे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दुनिया को बदलने से पहले हमारा खुद का बदलना जरूरी है उसी तरह हिंदी की स्वस्थ दशा - दिशा तय करने से पूर्व हमे स्वयम के आचरण मे आत्मा के स्तर तक हिंदी भाषा को उतारना होगा !
मुझे आज इस बात को लेकर परम संतुष्टि की अनुभूति भी हुई की एक लेखक के रूप मे मैने अपने लेखन की भाषा का माध्यम अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा, हिंदी को चुना है !
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
१४ /०९ / २०१९
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