भारद्वाज अर्चिता <architaved@gmail.com>

प्रभात पाण्डेय की स्टोरी 

 

                     किताब का नाम : 

        नारी शक्ति की प्रणेता प्रियंवदा पाण्डेय 

       “संघर्ष से सफलता तक की आत्मकथा”

                            लेखक : 

        विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता 

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इस आत्मकथा को लिखने की पृष्ठभूमि कैसे बनी ?

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प्रयागराज की 94 वर्षीय वयोवृद्ध श्रीमती प्रियंवदा पांडेय पूर्व नारी निकेतन सुपरिन्टेन्डेन्ट वर्ष 1983/ 84 सतना, मध्य प्रदेश की आत्मकथा लिखने हेतु पृष्ठभूमि कैसे बनी ? किताब पढ़ने से पहले हमारे पाठकों के लिए इसे जान लेना जरूरी है ! 

Smiley Live Creations परिवार लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता द्वारा सतना, मध्यप्रदेश  की पूर्व नारी निकेतन सुपरिन्टेन्डेन्ट वर्ष “1983/84” रह चुकी 94 वर्षीय वयोवृद्ध श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की इस आत्मकथा का लेखन महज एक इत्तेफाक नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक स्वस्थ-सुंदर घटना का संयोग - सहयोग जुडा हुआ है ! 

हुआ कुछ यूं की इस वर्ष विश्व मातृ दिवस 12 मई 2019 से स्माइली लाइव क्रिएशन्स परिवार के सदस्य लेखक विभांशु जोशी एवम लेखक भारद्वाज अर्चिता ने संयुक्त रूप से कलमबद्ध करके धरती की शक्तिशाली मातृ शक्ति को समर्पित एक कहानी श्रंखला शुरू किया जिसे नाम दिया “ माँ तेरा आँचल जो हमेशा साथ रहता है ” इस कहानी श्रंखला के अंतर्गत विपरित परिस्थिति मे भी अपने सतत-साकारात्मक प्रयास से परिवार, परिवेश, परिस्थिति एवम प्रकृति के भी विरूद्ध जाकर अपनी संतान, अपने बच्चों की सफलता तय करने वाली दुनिया भर की उन महान माँ द्वारा किए गए सहयोग, त्याग, समर्पण, एवम विश्वास की सच्ची कहानी का सुनियोजित लेखन किया गया है जिन्होने दुनिया को अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए, अपने निज सहयोग, निज प्रयास से अपनी संतान की प्रतिभा को पहचानकर उसे समाज के लिए सहयोगी बनाने मे, एक ख्यातिलब्ध चरित्र के रूप मे मूर्त करते हुए स्थापित करने मे, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, और आज जिन्हे विश्व मानचित्र पर किसी न किसी महान विभूति, महान संतान, की माँ होने का गौरव प्राप्त है ! 

अपनी इस सच्ची कहानी श्रंखला को हमने पूरे एक वर्ष मे पडने वाले प्रत्येक रविवार को सोशल मीडिया के जरिए अपने पाठकों तक पहुँचाने का निर्णय लिया ! जैसा की एक वर्ष मे 48 रविवार होते है अत: हमने वक्त के पन्नो मे दबी विश्व की ऐसी विशेष 48 महान  मातृ-शक्ति का चरित्र चुना जिन्होने बिना किसी अन्य के सहयोग के, स्वयम निरा शून्य पर खडा होने के बावजूद भी परिस्थिति की सारी दुश्वारियों को दरकिनार करते हुए अपने बच्चों को अपने दम पर दुनियाँ मे कामयाब बनाया और वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाया ! 

चूंकि हमारी इस श्रंखला मे कुल कहानी 48 है, इसलिए हमने बीते विश्व मातृ दिवस 12 मई 2019 दिन रविवार (Sunday) से बच्चो एवम माँ के लिए प्रेरणास्रोत के रूप मे सप्ताह के प्रत्येक रविवार को अपनी सोशल मीडिया की साइट पर दुनिया की किसी एक ऐसी कामयाब संतान की कामयाबी की कहानी पब्लिश करने का निर्णय लिया जिसकी कामयाबी विपरित परिस्थिति मे केवल और केवल उसकी माँ के त्याग से तय हुई हो ! साथ ही यह भी निश्चय किया कि आने वाले विश्व मातृ दिवस ( मदर्स डे ) 2020 के अवसर पर इस कहानी श्रंखला को एक किताब का रूप देते हुए स्वस्थ समाज - निर्माण के सरोकार से जोडकर हमारे राष्ट्रनिधि बच्चों के चरित्र निर्माण हेतु अपने देश - समाज को नि:शुल्क सौंप देंगे ! 

अपने उपरोक्त उद्देश्य के साथ हमने इस वर्ष के प्रथम रविवार 12 मई 2019 को पडने वाले विश्व मदर्स डे के अवसर पर लम्बे समय से किए गए स्वयम के  सतत प्रयास, छान - बीन, खोज, एवम तर्क - मन्थन, के आधार पर इसकी पहल किया और विशेष रूप से  लेखन कार्य के लिए बनाए गए अपने निजी मजबूत प्लेटफार्म Smiley Live Creations के तहत अपनी प्रथम कहानी अपने पाठकों के लिए सोशल मीडिया साइट पर परोसा ! 

नित पाठकों की घटती संख्या के समय में हमारे लिए यह एक बडी उपलब्धि रही कि पाठकों द्वारा विशेष कर युवा पाठक, महिलाओँ एवम टीनएजर्स द्वारा हमारी इस कहानी को सोशल मीडिया पर खूब पढ़ा और सराहा गया, कुछ पत्र - पत्रिकाओँ ने हमे अपने यहाँ हमारी इस कहानी श्रंखला को पब्लिश करने का न्योता भी दिया जो की हमने स्वीकार नही किया, क्योकि इस कहानी श्रंखला को लेकर हमारा उद्देश्य बिल्कुल अलग तरह का है ! पाठकों ( विशेष रूप से महिलाओँ  ) द्वारा मिले प्रोत्साहन से हमे इतना स्वस्थ आत्मबल मिला है की हम इसमे बेहतर से बेहतर चरित्र का उल्लेख करते जा रहे है ! कभी नार्वे मे रह रहे किसी भारतीय डाक्टर दम्पति ने मेसेन्जर मे मैसेज भेजकर बधाई देते हुए अपनी शुभकामना भेजी, साथ ही नार्वे मे रह रहे अप्रवासी भारतीय परिवार एवम उनके बच्चों के बीच हमारी इस कहानी श्रंखला के अन्ततर्गत लिखी गयी कहानी का पाठ करने के लिए नार्वे आने का बुलावा भेजा ! तो कभी डेनमार्क “Denmark” मे रह रहे भारतीय मूल के इंजीनियर दम्पति नूपुर सिंह एवम परिवार का मैसेज आया की  “ आपके Smiley Live Creations का डेनमार्क मे हमारे तरफ से आमन्त्रण है ! हम सब चाहते है आपका Smiley Live Creations परिवार डेनमार्क आए और हमारे भारतीय मूल के परिवार के बीच अपनी कहानी का पाठ करे,!”

देश - विदेश से आ रहे पाठकों के यह न्योते जब हमारी कलम को बेहतर करने मे लगे हुए थे और हमारी कहानी लेखन का सिलसिला स्वस्थ तरीके से आगे बढ़ने में लगा हुआ था कि इसी बीच इलाहाबाद ( वर्तमान प्रयागराज ) के अल्लापुर मुहल्ले से जून माह मे एक दिन हमारे एक रेगुलर पाठक इंजीनियर विनोद पाण्डेय जी का हमे फोन आता है और माँ को समर्पित हमारी कहानी श्रंखला की तारीफ करते हुए वह हमसे पूछते हैँ : आप लोग यह कहानी श्रंखला किस उद्देश्य से चला रहे है ? 

उनके लिए हमारा जवाब था “ बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए हम एक ऐसी नि:शुल्क किताब ले आना चाहते है जो हमारे वर्तमान समाज मे बच्चों के बीच हो रहे मूल्यों के क्षरण को रोकने का वाहक बनेगी, साथ ही हजारों - हजार माँ के लिए प्रेरणा का काम करेगी !  

हमारा जवाब सुनने के बाद इंजीनियर विनोद पाण्डेय ने कहा “ आप लोगो के Smiley Live Creations की इस सुंदर पहल को पढ़ते हुए मुझे एक दिन ऐसा लगा की मेरे साथ रह रही मेरी 94 वर्षीय माँ प्रियंवदा पांडेय जी का जीवन चरित्र भी आप लोगो की कलम से लिखी जा रही विश्व की 48 महान माँ के चरित्र मे से ही एक चरित्र है, अत: आप लोगोँ से मेरा आग्रह है कि आप मेरी माँ के जीवन की सच्ची कहानी एक बार जरूर मुझसे सुने और मेरी माँ के द्वारा संघर्ष से सफलता तक तय किए गए सफर की सच्ची कहानी पर भी अपने Smiley Live Creations की ओर से एक किताब लिखे साथ ही किताब लिखने हेतु अपनी फीस भी बताएँ ।” 

काम की व्यस्तता के चलते हमने इंजीनियर विनोद पाण्डेय से कहानी सुनने के लिए कुछ रोज का वक्त माँगा, दो सप्ताह बाद एक दिन पुन: उनका फोन आता है और हमे लगा की उनकी माँ की कहानी हमे सुननी चाहिए अत: हमने उनकी माँ की कहानी सुनना आरम्भ किया चूँकी उनकी 94 वर्षीय माँ का सतत संघर्ष बहुत लम्बा था इस लिए हमने एक दिन मे नही नही बल्कि पूरे एक सप्ताह भर मे उनकी कहानी बडे गौर से सुना !

कहानी सुनने के बाद हमे लगा की वर्ष 1925 के ब्रिटिश कालीन भारत मे पैदा हुई उनकी माँ के संघर्ष से सफलता तक की कहानी वाकई जज्बा और प्रेरणा की अथाह गहराई से भरी हुई नारी सशक्तिकरण की मिशाल है ! हमे उसपर गम्भीर होकर किताब लेखन के लिए सोचना चाहिए । बाद इसके हमने ( लेखक विभांशु जोशी एवम लेखक भारद्वाज अर्चिता ने ) इसके बाबत आपस मे गहन विचार मंथन किया और इंजीनियर विनोद पाण्डेय जी से कहानी के मैटर सहित लिखित प्रपोजल लेटर माँगा ! साथ ही उनके सामने अपनी यह शर्त भी रखा कि: हमारा Smiley Live Creations परिवार बच्चों के चरित्र निर्माण से लगायत परिवार, समाज, किशोरवय युवाओँ एवम बच्चों के लिए अपने सामाजिक सरोकार के तहत अनेक स्वस्थ विषय पर नि:शुल्क लिखता है अत: आपके लिए भी हमारे Smiley Live Creations परिवार की एक शर्त है वह शर्त यह है की आपकी माता जी की आत्मकथा हम नि:शुल्क लिखेंगे, जिसका जिक्र आपके प्रपोजल लेटर मे रहेगा ! इस किताब को पब्लिश करवाने की पूरी जिम्मेदारी आपकी होगी हम केवल आपके दिए गए मैटर और स्रोतो से हासिल जानकारी के आधार पर यह किताब लिखेँगे ! इस किताब को लिखने का हमारा उद्देश्य केवल समाज को प्रेरणा देने वाली, विपरित परिस्थिति मे खुद को साबित करने वाली एक अदम्य सफल चरित्र महिला के चरित्र को उसकी आत्मकथा के रूप मे स्वस्थ्य तरीके से समाज के सामने प्रेरणा स्वरूप मे रखना है। इस किताब से अर्जित किए गए धन से हमारे Smiley Live Creations परिवार का कोई लेना - देना नही होगा, ना ही हमे इससे धन अर्जित करने की कोई जरूरत है ! अगर आपको हमारी यह शर्त मंजूर हो तो आप हमे यथासिघ्र प्रपोजल लेटर भेजे ! 

उपरोक्त बातचीत के बाद जुलाई माह के प्रथम सप्ताह मे हमे मैटर सहित लिखित प्रपोजल लेटर प्राप्त हुआ जिसके तहत हमने 94 वर्षीय श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की आत्मकथा पर किताब लिखना आरम्भ किया! किताब की केन्द्र चरित्र श्रीमती प्रियंवदा पांडेय सहित उनके परिवार के सभी सदस्योँ की पूर्ण सहमती के साथ हमने किताब को नाम दिया : 

           नारी शक्ति की प्रणेता प्रियंवदा पांडेय

         “संघर्ष से सफलता तक की आत्मकथा,” 

और किताब को नाम देने सहित पूरी किताब लिखकर छपायी कार्य सम्पन्न करवाने हेतु दिनाक 30 अगस्त 2019 को इसे अपनी मेल आई० डी० के माध्यम से इंजीनियर विनोद पांडेय जी को सौप दिया !  

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                    लेखक की कलम से :  

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साथियों एक निश्चित तय समय में 94 वर्ष की उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में जन्मी सशक्त नारी श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी के विशाल जीवन को कागज के पृष्टों में कलम से लिखना हमारे Smiley Live Creations के लिये एक बड़ी चुनौती थी।

क्योकि हमे एक ऐसी महिला की आत्माकथा लिखनी थी जिनके लंबे जीवन काल मे अनेक चुनौतियां आयी, जिसपर उन्होंने अपने बुद्धि , विवेक और साहस से सफलता प्राप्त की। हमे पता है उनके संघर्ष की यह कहानी भारत की समस्त नारी शक्ति को प्रेरणा देने का महत्वपूर्ण कार्य करेगी।

हम जब इस आत्मकथा को लिपिबद्ध कर रहे थे तो हमारे सामने विपरित परिस्थिति मे घोर अभाव के शून्य पर स्वत: खडी होकर मात्र निज आत्मबल के सहयोग से नारी सशक्तिकरण का ज्वलन्त उद्दाहरण चुपचाप समाज के सामने रख देने वाले उनके व्यक्तित्व मे सशक्त नारी और मातृशक्ति के सँयुक्त दृश्य स्पष्ट बन रहे थे।

एक ऐसा नारी चरित्र जिसने जीवन के हर पक्ष में अपनी भूमिका का सफलता पूर्वक निर्वहन किया। उन्होंने शासकीय कार्य के उचित निष्पादन में कई बाधाओं का सामना किया लेकिन अपने कर्तव्यनिष्ठ मार्ग से कभी विचलित नही हुई।

उन्होंने अपनी इच्छा शक्ति से सफलता ऐसे समय मे प्राप्त की जिस समय महिलाओं को सीमित अधिकार और सुविधाए थी। तथा कार्यस्थल में महिलाओं की सुरक्षा के लिये कोई कानून भी नही था।

हम श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की शक्ति को प्रणाम करते हुए यह आत्म कथा लिख रहे है। हमे पूरा विश्वास है कि यह पाठकों के आत्मबल को बढ़ाएगी और प्रेरित भी करेगी।

यह हमारा एक छोटा सा सार्थक प्रयास है। आशा है हमारा प्रयास सभी को पसंद आएगा। इसी कड़ी में हमारी अगली पुस्तक दुनिया की 48 यशस्वी माताओं की कथा होगी जिन्होने संघर्ष के बावजूद अपने बच्चों को प्रतिष्ठित बनाया।

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शुभकामनाओं सहित : 

लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता॥

         

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प्रियंवदा के बचपन से बाल विवाह तक की कहानी : 

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भारत की आजादी के 22 साल पूर्व उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में 5 जुलाई 1925 को अभाव की खुरदरी जमीन पर, घोर असमानता एवम चरम भेद - भाव के वातावरण में उम्मीद की लहलहाती फसल के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी पंडित टीकाराम त्रिपाठी के सुपुत्र पंडित श्री भानु प्रताप त्रिपाठी एवम बहु श्रीमती चन्द्रकली देवी के घर दो बड़े बेटों पंडित जयराम त्रिपाठी, पंडित हरिराम त्रिपाठी के जन्म के लम्बे अन्तराल बाद एक प्रतिभावान बेटी का जन्म हुआ, दो भाइयों के बाद जन्मी यह बेटी घर -  परिवार मे सबकी लाडली थी, विशेष रूप से अपने दोनों बडे भाइयों की,!

माँ - बाप ने बडे स्नेह के साथ बेटी का नाम रखा प्रियंवदा ! बेटी का नाम प्रियंवदा जरूर रखा गया, बेटी पूरे परिवार की लाडली भी जरूर थी, पर अपने उस तत्कालीन भारतीय सनातन परिवार एवम समाज की कुत्सित कुप्रथा वाली परम्परा से अछूती नहीं थी, जो कि हजार - हजार साल के बाह्यय आताताई आक्रमण के बाद उदार भारतीय सनातनी हिन्दू परिवारों

मे भयवस पनपी थी ! परिणाम स्वरूप प्रियंवदा भी जन्म से ही बेटियों वाले उस भेदभाव की शिकार हुई जो अन्य सनातनी, हिन्दू परिवारों की बेटियों के साथ घट रहा था, हो रहा था, यथा उस वक्त के अन्य हिन्दू परिवारों की तरह ही इस बच्ची के जन्म पर भी घर मे न बधावा बजा, न सोहर की स्वर लहरी गूँजी, ना ही मंगल गीत गाए गए। बेटी के जन्म की अपार खुशी होते हुए भी उस खुशी को जाहिर कर सकने की  यह परिवार हिम्मत न दिखा सका ! 

कहते है अतीत का इतिहास वर्तमान को लम्बे वक्त तक अपने चपेटे मे लिए रहता है यहाँ भी हमारे तत्कालीन सनातनी परिवार, समाज, मे स्थिति कुछ ऐसी ही थी ! अतीत मे हमारी बहू, बहन, बेटियों के साथ विधर्मी संस्कृति के संरक्षकों ने बालात जो किया था उस जघन्यता की परछाई के रूप मे 1925 के ब्रिटिश कालीन गुलाम भारत मे भी प्रदा प्रथा, बाल विवाह, जन्म के समय बेटी की निर्मम हत्या कर देने का रिवाज पूरी सख्ती से एक चलन के रूप में विद्यमान था !

मध्ययुगीन कुप्रथा का यह मलवा गुलामी से मुक्ति हेतु आजादी की अँगडाई लेते हमारे भारत देश मे एक जख्म की तरह हमारी बहन - बेटियोँ को प्रभावित कर रहा था जिसकी वजह से सनातनी हिन्दू परिवारों के साथ - साथ 1925 के अन्य भारतीय परिवारों मे भी बेटी का जन्म लेना अपार सोग, कष्ट, दुख का गम्भीर विषय माना जाता था ! 

खैर अपने लिए तैयार इस विपरित वातावरण में अति विलक्षण बच्ची प्रियंवदा माँ - बाप, बडे भाईयोँ के अनुराग की छाँव तले एक - एक दिन बडी हो रही थी कि : इसी बीच उसके बाल जीवन मे एक दर्दनाक अनहोनी हुई और 5 वर्ष की नन्ही उम्र मे ही उसके सिर से माता - पिता की छत्रछाया उठ गई और नन्ही बच्ची  प्रियंवदा अनाथ हो गयी ! 

माता - पिता की अचानक हुई मृत्यु ने उस अबोध बच्ची को सदमे की चपेट मे ले लिया जिसके चलते वह बहुत शान्त रहने लगी ! बहन को लगे इस सदमे की वजह से बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी एवम पंडित हरिराम त्रिपाठी बहुत दुखी हो गए । उन्हे यह बात गँवारा नही थी कि उनकी लाडली बहन माता-पिता की असमय हुई मौत से मिले सदमे की जीवन भर के लिए शिकार होकर रह जाए,! अत: दोनो भाईयों ने माता - पिता का स्थान लेते हुए अपनी बहन की परवरिस पर अपने आप को पूरी तरह केन्द्रित कर दिया ! चूंकि बड़े भाई पंडित जय राम त्रिपाठी युवा अवस्था मे ही आजादी की लडाई के पैरोकार बन गए थे और अपने आपको स्वतंत्रता सेनानी के रूप मे देश सेवा मे लगा दिए थे जिसकी वजह से उनके पास समय का अभाव था ! पर जितना भी समय देश सेवा से बचता वह सारा समय बहन की परवरिस के नाम होता था ! 

माता - पिता की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों, पटिदारों, पडोसियों के बीच प्रियंवदा एक अनाथ के रूप मे सहानुभूति की पात्र तो जरूर बनी पर केवल मुँह से, केवल वाह्य दिखावे से ! क्योंकि बच्ची के लिए उनके भीतर दिली सहानुभूति तो लगभग न के बराबर ही थी ! 

नन्ही प्रियंवदा अपनी अबोध उम्र के स्वभाव अनुसार दिन भर इधर-उधर घूँमती, खाती-पीती, आस-पडोस के बच्चों संग खेलती-कूदती, रहती इससे ज् ! अभी तक शिक्षा जैसे विषय से इस बच्ची का दूर - दूर तक का कोई नाता नही जुडा था ! 

उस वक्त की तत्कालीन भारतीय सामाजिक एवम पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार शायद शिक्षा का प्रियंवदा के जीवन से भविष्य मे भी कोई वास्ता होना भी असम्भव ही था, क्योकि उस वक्त तक हमारे भारतीय समाज मे बेटी का मतलब शिक्षा अर्जन करना नही था, बल्कि चूल्हे - चौके, घर - परिवार की देखभाल तक ही बेटी का दायरा सिमित किया गया था ! बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी भी बहन को लेकर शिक्षा की इसी परिपाटी के पैरोकार थे वह भी कही से इस बात के हिमायती नही थे कि प्रियंवदा के जीवन मे स्कूली शिक्षा की अलख जगे! बडे भाई की यह सोच अपनी एकलौती लाडली बहन प्रियंवदा के लिए बडे भाई द्वारा की गयी कोई साजिश नही थी बल्कि उस समय के तात्कालिक भारतीय परिवेश का ही परिणाम थी, क्योकि उस वक्त हमारे भारतीय घरो मे स्त्री शिक्षा एक तरह से वर्जित थी ! जबकि काफी समय पहले ब्रह्म समाज द्वारा राजा राम मोहन राय की अगुआई मे भारत मे स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सारी क्रान्तिकारी पहल की जा चुकी थी, एवम सामाजिक नवचेतना के द्वारा स्त्री शिक्षा को उन्नत अवस्था मे लाने के लिए ब्रह्म समाज द्वारा अनेक आन्दोलनकारी नीतियाँ भी बनायी गयी थी,  पर वह जमीनी स्तर पर सफल न हो सकी थी जिसके चलते स्त्री शिक्षा के प्रति हमारे भारतीय समाज का उदार होना अभी शेष रह गया था ! 

कहते हैं ना कि : नियति के आगे समाज एवम समय दोनो का खडयन्त्र सदैव बौना साबित होता है कुछ ऐसा ही सँयोग 5 वर्षीय अबोध-अनाथ बच्ची प्रियंवदा के जीवन मे भी घटा, एक दिन जब वह पडोस के बच्चो के साथ घर के दरवाजे पर खेल रही थी ठीक उसी वक्त एक बाह्यय अजनबी, उच्च शिक्षित, व्यक्ति का उसके घर पर आगमन हुआ, वह अजनबी व्यक्ति दरवाजे पर बच्चो के साथ खेल रही बच्ची प्रियंवदा के खेल कौशल एवम खेल के दौरान बच्ची द्वारा प्रयोग किए जा रहे विलक्षण नियंत्रण कौशल को बडे गौर से देख रहे थे काफी देर तक उस नन्ही बच्चा की विलक्षणता को देखते रहने के बाद वह अजनबी व्यक्ति पास मे ही खडे पंडित जयराम त्रिपाठी के पास आकर उनसे एक दो टूक सीधा सा प्रश्न किया यथा : सर यह नन्ही बच्ची क्या आपकी बेटी है ? 

पंडित जयराम ने जवाब दिया : जी नही यह मेरी छोटी बहन है पर मेरे लिए मेरी बेटी जैसी ही है ! 

अजनबी ने फिर सवाल किया यथा : 

क्या आप इसे स्कूल भेजते है ? 

भाई पंडित जयराम त्रिपाठी अजनबी का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले : बेटियोँ को स्कूल भेजने का रिवाज जब हमारे परिवारो मे नही है तो फिर मै भला इसे स्कूल कैसे भेज सकता हूँ ? 

अजनबी ने फिर पूछा : अगर स्कूल भेजना हो तो ? 

जयराम तिवारी फिर मुस्कुराए और बोले इसे स्कूल भेजने की आखिर जरूरत ही क्या है ? 

यही कोई 5 से 7 साल बाद व्याह करके अपने ससुराल चली जाएगी जब तक शादी नही हुई है तब तक के लिए हमारे पास एक अमानत के रूप मे है ! आखिर पढ़ - लिख कर कौन सा इसे कलेक्टर बनना है या नौकरी करनी है, ? शादी करके ससुराल जाएगी, अपना घर - परिवार देखेगी, सुनेगी, आखिर हमारे समाज मे लड़कियों के लिए यही तो दायरा तय किया गया है ना !? 

मेरी वर्तमान परिस्थिति भी ऐसी नही है कि “अगर मै अपनी वैचारिक उदारता दिखाकर इसे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजना चाहूँ तो भेज सकूँ । दूसरी बात यह की हमारे गाँव मे कोई स्कूल भी नही है ? यह सब बाते अजनबी से कहते - कहते पंडित जयराम त्रिपाठी घर के तात्कालिक हालात का मुआयना करते हुए थोडे भावुक हो गए ! पंडित जी की बाते सुनकर वह व्यक्ति बोला सर जो प्रतिभा मै इस बच्ची मे देख पा रहा हूँ आप सब शायद उसे नही देख पा रहे है ! इस बच्ची मे विलक्षण प्रतिभा भरी है, इसके जीवन मे अगर शिक्षा की अलख जगायी गयी तो निश्चित रूप से यह बच्ची समाज मे कुछ विशेष करेगी ! अजनबी से फिर पंडित जयराम त्रिपाठी ने दुहराते हुए कहा मुझे क्षमा करे श्रीमान मेरी हैसियत नही है ! पंडित जी की यह बात सुनकर वह अजनबी व्यक्ति पंडित जी के सामने एक प्रस्ताव रखता है यथा : पंडित जी अगर आप बच्ची को स्कूल भेजने के लिए तैयार हो तो मेरी जानकारी मे एक ऐसा स्कूल है जहाँ बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है, साथ ही कॉपी, किताब, कपडा, रहना, खाना, दवा भी निःशुल्क  है ! बच्चे को दी जाने वाली शिक्षा का कोई दबाव बच्चे के परिवार पर नही होता है ! 

अजनबी की यह बात बडे भाई को भा गयी तुरन्त उन्होने अजनबी से उस स्कूल का पता पूछा और विस्तार से जानना चाहा कि कहां बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाती है ? अजनबी को अपनी पहल मे कामयाबी नजर आई तो उसने उत्साह पूर्वक स्कूल का पता कुछ इस तरह पंडित जी को नोट करवाया : “ प्राथमिक विद्यालय ककरा ” जो की जमनीपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था !

अजनबी और भाई के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था की इसी बीच वह 5 वर्षीय बच्ची प्रियंवदा भाई के बगल में आकर खड़ी हो गई थी ! भाई एवम अजनबी के बीच चल रही अबुझ सी उस चर्चा में खुद का भी शामिल होना कुछ - कुछ समझ रही थी ! वह बहुत कौतुहल बस उस अजनबी शुभचिन्तक की बाते सुन रही थी और एक प्यारी सी मुस्कान के साथ एकटक उसकी तरफ देखे जा रही थी ! शायद उसके बालमन पर कुछ शुभ होने का अमिट चित्र उभर रहा था और आँखो मे अपार निश्छल किन्तु परिवर्तनकारी चमक तैर रही थी ! 

बडे भाई को जब अजनबी की बातें पूरी तरह समझ में आ गयी तो उन्होने अगले दिन उस स्कूल मे तहकीकात के लिए जाने का आश्वासन देते हुए अजनबी को विदा किए और सारी बात अपने से छोटे भाई पंडित हरी राम से रात मे साझा करते हुए अगली सुबह ककरा नामक स्थान पर जाकर स्कूल के प्रचार्य से मिलने का प्लान बनाए । 

अगली सुबह दोनों भाई निश्चित समय पर ककरा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे और प्रचार्य से मिलकर जानकारी प्राप्त किए ! जब पूरी जानकारी अजनबी के बताए अनुसार ही सत्य साबित हुई तब घर आए और ककरा प्राथमिक विद्यालय मे बहन को एडमिशन “दाखिला” दिलाने का निर्णय लेते हुए दो दिन बाद बहन को लेकर स्कूल पहुँच गए ! 

इस प्रकार स्कूल से बच्ची प्रियंवदा का प्रथम साक्षात्कार हुआ। बडे भाईयों से बिछडने का दर्द 5 वर्षीय नन्ही प्रियंवदा को जितना हो रहा था उससे कही ज्यादे दर्द दोनों बडे भाईयों को भी बहन से बिछडने का हो रहा था पर निश्चिन्तता इस बात की थी की बहन के जीवन मे शिक्षा की अलख जग रही थी अत: दोनों भाईयों ने खुशी - खुशी यह बडा त्याग करना स्वीकार कर लिया ! 

कहते है बेटियां पैदाइशी ही जूही, चंपा, हरसिंगार, के फूलों की तरह अप्रतिम सुगंध की स्वामिनी होती हैं, इन्हे स्नेह, सहयोग,तरक्की और विश्वास की हवा का जरा सा स्पर्श मिल जाए तो यह पूरे समाज को अपनी सुगंध से महका देने की कूबत रखती हैं ! वर्ष 1930 मे 5 वर्षीय अबोध बच्ची प्रियंवदा के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

माँ - बाप छत्रछाया से मरहूम बच्ची को जब शिक्षा का लैम्प मिला तो उसने अपने जीवन मे स्वयम उजियारा फैलाना शुरू कर दिया ! पांचवी कक्षा तक वह विद्यालय एवं जिला स्तर पर अव्वल नम्बर से अपनी कक्षा मे टाप करती रही ! गणित,अंग्रेजी,संस्कृत,हिन्दी सभी विषय पर मजबूत पकड रखने वाली प्रियंवदा को पांचवी कक्षा मे जिले मे टाप करने के लिए उस जमाने में स्कॉलरशिप मिली थी । उस दौर मे किसी लडकी का पढाई मे इतना मेधावी होना निश्चित रूप से आश्चर्यजनक बात थी, किन्तु प्रियंवदा थी ही इतनी होनहार की उससे कुछ भी विलक्षण करने की उम्मीद की जा सकती थी ! प्रियंवदा की इसी विलक्षण मेधा को देखते हुए शिक्षा विभाग द्वारा आगे आठवीं क्लास तक की भी उसकी पूरी पढाई नि:शुल्क कर दी गयी थी, जिसके तहत छठी क्लास में प्रियंवदा का दाखिला राजकीय जूनियर हाई स्कूल जो उस वक्त ( महिला सेवा सदन ) के नाम से चलाया जाता था में हुआ, यहाँ भी प्रियंवदा ने सफलता की इबारत लिखे और छठी क्लास से लेकर आठवी क्लास तक की अपनी पढ़ाई मे भी एक मेधावी छात्रा के तौर पर ही पूरी की ! हर क्लास मे अव्वल आने पर जिला स्तर पर प्रति वर्ष उसे सम्मानित किया जाता था एवम स्कालरशिप भी दी जाती थी ! प्रचार्य ने प्रियंवदा के अविभावक “बडे भाई” से स्पष्ट कह दिया था इस बच्ची की आगे की पढ़ाई जारी रखवाइए क्योंकि इसकी मेधा असाधारण है, यह बहुत आगे जाएगी ! 

किन्तु आठवी कलास की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही प्रियंवदा के जीवन मे एक अनोखी घटना घटी, हुआ यों की बडे भाईयों द्वारा आगे की पढ़ाई रोक कर बहन का विवाह तय कर दिया गया ! पढ़ाई रूकने से प्रियंवदा एवम उनके स्कूल के प्रचार्य सहित शिक्षक भी काफी  दुखी थे ! प्रियंवदा और शिक्षक की प्रबल इच्छा होने के बावजूद उनकी आगे की पढ़ाई जारी न रखी जा सकी और वर्ष 1940 के तात्कालीन भारतीय सामाजिक, पारिवारिक, व्यवस्था के अनुरूप 13 वर्ष की छोटी उम्र मे प्रियंवदा का बाल विवाह कर दिया गया ! 

उस वक्त राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज के नियम के लिहाज से 13 वर्ष की उम्र मे किया गया किसी बच्ची का विवाह बाल विवाह के अन्तर्गत ही आता था ! किन्तु उस समय के भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप जब 9 या 10 वर्ष की अवस्था मे बेटी का विवाह करने का रिवाज था, ऐसे मे लोगो की नजर मे प्रियंवदा की 13 वर्ष की उम्र भी ज्यादा उम्र करार दी जा रही थी ! 

13 वर्षीय प्रियंवदा स्वयम राजा राम मोहन राय के ब्रह्म समाज की नीतियो से भलिभाँति परिचित थी पर वह स्वयम के इस बाल विवाह का विरोध न कर सकी यह सोचते हुए कि माता-पिता के न होने पर भी दोनो भाई मिलकर उनकी बेहतर परवरिस किए, विरोधी परिवेश मे भी दोनो भाईयो ने उन्हे शिक्षा का प्रकाश दिया, माता-पिता की मौत के बाद उनपर मेरे विवाह की बडी जिम्मेदारी थी और उन्होने मेरा विवाह करके अपनी अहम जिम्मेदारी निभाया है ! 

इस प्रकार प्रियंवदा का विवाह वर्ष 1940 मे प्रियंवदा की पढ़ाई रोककर 13 वर्ष की छोटी सी उम्र मे इलाहाबाद जनपद के ग्राम बरबोली, तहसील सोरांव, के एक इज्जतदार, संभ्रांत, गँवई पृष्ठभूमि वाले ब्राह्मण परिवार में प्राथमिक विद्यालय मे प्राचार्य श्री कृष्णानंद पांडेय के बड़े बेटे श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ समपन्न हुआ !   

                 

                             { 4 } 

विवाह के बाद ससुराल का वातावरण, वर्ष 1940 से वर्ष 1942 दो वर्ष तक ससुराल मे रहने का अनुभव, एवम 1942 मे पति के सहयोग से प्रथम नौकरी मिलने के साथ ही ससुर पंडित कृष्णानंद पाण्डेय द्वारा घर से बेदखल किए जाने की घटना एवम प्रियंवदा :

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वर्ष 1940 मे जब प्रियंवदा पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ विवाह वन्धन मे बधकर प्रियंवदा त्रिपाठी से प्रियंवदा पाण्डेय के रूप मे परिवर्तित होकर ससुराल बरबोली आयीँ तो उम्र बडी न होने के कारण आँखो मे कोई ऐसे सपने भी नही थे जो ससुराल मे पूरे न हो सके ? अपनी पीढ़ी की घर की पहली बडी बहू होने के नाते ससुराल मे प्रियंवदा सास, ससुर, देवर, ननद, नात - रिश्तेदार, सबकी लाडली थी ! 

चूँकि प्रियंवदा का विवाह प्रयागराज के एक गँवई पृष्ठभूमि मे रचे - बसे संयुक्त, संभ्रांत ब्राहम्ण परिवार में हुआ था अत: उस दौर की परम्परा के अनुसार परिवार की इज्जत के लिहाज से घर की बहू का ज्यादे पढ़ना - लिखना कोई बहुत मायने नही रखता था ! उस दौर मे घर मे पुरूष प्रधानता होने के कारण आगे की पढ़ाई जारी रख पाना भी सम्भव नही था इसलिए 13 वर्षीय प्रियंवदा भी उसी माहौल मे रचने बसने लगी जो उस घर की अन्य महिलाओ के लिए पूर्व से ही तैयार था यथा रसोई घर से लगायत बच्चो बडों की देखभाल करना खाना बनाना खिलाना बाकी समय बचा तो आपस मे घर की महिलाओ के साथ बात चीत करना ! 

गम्भीर मुद्दों पर घर की औरतों का विचार कोई मायने नही रखता था फैसले लेने के अधिकार केवल पुरूषों को ही थे ! औरतों का दायरा घर की दहलीज तक सिमित था ! 

प्रियंवदा पढ़ाई में मेधावी छात्रा रही हैँ यह बात पति श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को पता थी । 

दो साल 1940 से 1942 पत्नी के साथ गुजारने के बाद वह इस बात से भी परिचित हो चुके थे की उनकी पत्नी मे धैर्य, सहनशक्ति, और उदारता कूट-कूट कर भरी है ! 

वह जान चुके थे कि उनके पूरे परिवार को साथ लेकर चलना, सबकी तरक्की की बात सोचना उनकी पत्नी का विशेष गुण है जो उन्हे औरों से अलग साबित करता है ! चूँकि वह स्वयम अभी अपनी पढ़ाई पूरी करने मे व्यस्त थे इस लिए बाकी कोई और बात उनके दिमाग मे नही थी सिवा प्रियंवदा का सम्मान करने के ! 

शादी के बाद जब कुछ समय बीता तो एक बेरोजगार पति के जीवन मे जो प्राथमिक समस्याएँ आती है त्रिलोकी नाथ जी भी उससे अछूते न रहे ! सामाजिक रूप से तो उनके परिवार की आर्थिक हालत बहुत उन्नत थी, परिवार का सामाजिक सम्मान भी बहुत था, पर शादी के बाद जैसे - जैसे समय बीतने लगा एक पति के तौर पर  त्रिलोकी नाथ जी के जीवन मे अर्थ की समस्या आने लगी थी ! चूकि अपनी स्वयम की पढ़ाई को भी उन्हे देखना था और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी भी निभानी थी साथ ही उम्र भी इतनी नही थी कि कोई बडा फैसला लिया जाए, कही बाहर जाकर नौकरी करने का सोचा जाए, क्योकि परिवार “ माता - पिता” इसके लिए तैयार नही होते ! घर के बडे बेटे होने के नाते पण्डित जी कुछ समझ नही पा रहे थे की वह इस समस्या का हल कैसे निकाले ? इसी बीच आस - पड़ोस के कुछ एक बड़े - बुजुर्गों ने उन्हे अपना सुझाव देते हुए उनको बताया की त्रिलोकी बेटा तुम्हारी पत्नी तो आठवीं कक्षा तक पढ़ी है ना, और हमने तो सुना है पढ़ने में बहुत मेधावी भी रही है, फिर तुम ऐसा क्योँ नही कर रहे हो की किसी प्राथमिक विद्यालय मे उसकी नौकरी लगवा दे रहे हो ? इस वक्त तो अंग्रेजी हुकूमत भारतीय वैसे भी महिलाओं को शिक्षण कार्य मे नियुक्ति देने हेतु काफी सहयोग कर रही है ! 

पंडित त्रिलोकी नाथ जी को आस पडोस के अपने बड़े - बुजुर्गों की यह बात भा गई उन्होने बिना पत्नी से इस बाबत कोई जिक्र किए स्वयम ही जाकर सारी जानकारी प्राप्त किया और जब पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए तो नौकरी करने का प्रस्ताव पत्नी के सामने रखा पत्नी सरल स्वभाव की थी अत: उन्हे एक बार के लिए तो पति की कोई बात सही से समझ ही नही आई फिर वह दूबारा पूछी दूबारा पूछने पर जब पति की बात उनकी समझ मे आ गई तब वह बडी शालीनता के साथ पति से बोली इसके लिए पहले आप पिता जी, माता जी, ( सास - ससुर ) से बात करिए अगर नौकरी के लिए उनकी सहमति मिल जाएगी तो मुझे नौकरी करने से कोई इनकार नही है ! लेकिन पहले जाकर आप उनकी सहमति ले लीजिए, क्योँकि अपने बडो की मर्जी के बिना नौकरी करने के बारे मे मै शायद कभी भी तैयार नही हो सकती ! इसपर जब पति ने पूछा अगर हमारे बडे तैयार हो गए तब तो तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होगी ना ? 

पत्नी प्रियंवदा ने जवाब मे कहा अगर वह तैयार हो गए तो मै नौकरी करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ  ! 

पत्नी की इच्छा जानने के बाद पंडित त्रिलोकी नाथ जी ने अपने पिता जी से इस विषय पर चर्चा करने का मन बनाया और अगले दिन पिता के विद्यालय से घर वापस आने के कुछ देर बाद पिता के सामने अपनी बात लेकर हाजिर हुए ! एक ऐसे परिवेश मे पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी पत्नी की नौकरी की बात करने के लिए पिता के सामने खडे थे जब पत्नी की नौकरी को हमारे गुलाम भारतीय समाज मे शर्म और अपमान का विषय ही घोषित कर दिया गया था ! 

खैर हिम्मत जुटाकर पत्नी की नौकरी के लिए पिता से बात करना अभी शुरू ही किए थे कि पिता आग बबूला हो गए बेटे पर बरसते हुए बोले यह विषय लेकर मेरे पास आने से पहले एक बार मेरी इज्जत, मेरे सामाजिक रूतबे का तो खयाल तर लिया होता तुमने, बहू से नौकरी करवा कर परिवार के सम्मान को दाँव पर लगाने और मेरी नाक कटवाने के अलवाँ क्या तुम्हारे पास अब कोई और काम नही बचा है ? 

बहू कमाएगी और तुम बैठ कर खाओगे, इससे तो बेहतर होगा की कही जाकर चुल्लू भर पानी मे डूब मरो तुम ! 

हमारी समझ से तो 1940 के पराधीन भारत मे पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी शायद पहले युवा पुरूष थे जो स्त्री उन्नति के लिए पिता के कोप का भाजन बन रहे थे ! और पिता के गुस्से की परवाह किए बिना ही उनके द्वारा सुनाए जा रहे असँख्य अपशब्द की लताड सहते हुए अपनी बात बिना रके आगे कहते - दुहराते जा रहे थे यथा : 

पिता जी इसमे नाक कटने जैसी क्या बात है ? 

सरकार विशेष  सुविधा सहित महिलाओँ को यह अवसर जब प्रदान कर रही है तो उसका लाभ लेने मे अनुचित क्या है ? 

मुझे तो कोई शर्म नही आएगी अगर मेरी पत्नी की नौकरी करती है तो ? ! 

मै तो केवल पत्नी की नौकरी ही नही चाहता बल्कि यह भी चाहता हूँ की मेरी पत्नी अपनी आगे की पढ़ाई भी पूरी करे और किसी ऊँचे ओहदे की बडी नौकरी मे लगे ! 

बेटे के मुँह से इतनी बात सुनने के बाद पिता की त्योरी चढ़ गयी, लगभग चीखते हुए बोले मेरी बात गौर से सुन लो अगर पत्नी से नौकरी नही करवानी है तब तो हमारे परिवार के साथ इस घर मे एक छत के नीचे रहो तुम ! किन्तु पत्नी से नौकरी करवानी है अगर तो इसी वक्त पत्नी सहित तुम्हे मेरा घर छोडना होगा ! इतना ही नही बल्कि मै तो तुम्हे अपने इवम अपने परिवार के साथ के हर तरह के सम्बन्ध से बेदखल करता हूँ । 

पहले तो जमकर अपशब्द का प्रयोग और जब बात इससे भी न बनी तो बेटे के सामने उपरोक्त दो रास्ते रख दिए !

पिता की पहली शर्त मानने के बजाय दूसरी शर्त मानना  त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी को सही लगा, उन्होने बिना किसी प्रकार का समझौता करते हुए दूसरी शर्त मानने का अपना फैसला पिता जी को बता दिया ! 

पिता ने दूसरी शर्त मँजूर करने की बात सुनकर पहले तो बेटे के शरीर से पैन्ट शर्ट उतरवा लिए और केवल निक्कड - बनियान मे बेटे को छडी से खूब पीटे, पीटने के बाद बोले मै तुम्हे तुम्हारी पत्नी सहित अपने घर से इसी वक्त बेदखल कर रहा हूँ । तुम्हारे बदन पर जो यह निक्कड बनियान छोडा है मैने उसके अलावा मेरे घर से एक भी तिनका सहयोग लिए बिना इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ । 

पिता पंडित कृष्णानंद पाण्डेय का फरमान सुनकर त्रिलोकी नाथ पाण्डेय बिल्कुल घबराए नही वजह पिता द्वारा किए गए इस फैसले के लिए वह कहीँ न कहीँ पहले से ही तैयार थे ! अत: अपनी आत्मा की आवाज सुनते हुए वही करने को तैयार हुए जो उचित था ! 

वह पत्नी की शैक्षणिक योग्यता पर पुरूषत्व का बेजा अँहवाद हावी नही होने देना चाहते थे क्योकि वह समझते थे यह अँह पूरी तरह गलत है ! चूँकि अगली सुबह ही प्रियंवदा को लेकर कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचना था नौकरी का चार्ज दिलवाने, इसलिए वह पिता के पास से सीधे पत्नी के पास पहुँचे पूरी घटना पत्नी को बताए और अपने साथ चलने को बोले ! सरल सहज कम उम्र पत्नी को ससुर की बात की अवहेलना करके घर छोडना गँवारा नही लग रहा था इसलिए उन्होने पति को हर तरह से समझाने का प्रयास किया किन्तु बात जब पति और ससुर मे से किसी एक के राश्ते के चुनाव की आ गयी तो प्रियंवदा ने पति का राश्ता चुनना ही उचित समझा ! और पति के साथ ससुराल की दहलीज पार कर एक नयी राह पर कदम रखने की पहल कर दिया ! 

केवल निक्कड बनियान मे ससुर द्वारा घर से बेदखल किए गए अपने पति के साथ मीलोँ पैदल चलकर देर रात प्रियंवदा अपने मायके जमनीपुर पहुँची ! रात भर ससुराल मे गुजारने के बाद सुबह पण्डित त्रिलोकी नाथ पत्नी को लेकर कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे,  प्रचार्य से मिलकर पत्नी प्रियंवदा को नौकरी का चार्ज दिलवाए और पत्नी को एक नई किन्तु स्वस्थ जिम्मेदारी के साथ जुडने का अवसर उपलब्ध करवाकर खुद को सही साबित किए ! 

प्रियंवदा की यह नौकरी उस वक्त महिला सशक्तिकरण का प्रथम उदाहरण था ! क्योकि इस एक नौकरी के साथ ही हमारे समाज मे सम्भ्रान्त परिवार की कई सारी जटिल वर्जनाए टूट गयी थीँ ! 1942 से 1956 तक कोटवा प्राथमिक विद्यालय मे बतौर शिक्षिका नौकरी करने के साथ ही प्रियंवदा ने कुशलता पूर्वक अपने पति की एवम स्वयम अपनी भी आगे की पढ़ाई का खर्च सम्हाला ! अपनी 13 रूपए की वेतन वाली नौकरी के साथ पति की पाकेट मनी, फीस, अपनी पढ़ाई की फीस एवम बच्चो के पालन - पोषण की जिम्मेदारी बहुत कुशलता पूर्वक निभाया ! 

                   
आदर्श माँ का अँस
वह मेरी का आदर्श रूप ही था हमारे लिए की बचपन मे हमे हमारे गुलक के पैसो तक से दूसरो की मदद करना, किसी जरूरतमंद की सहायता करना हमारी माँ द्वारा सिखाया गया था ! शायद यही सबसे बडी वजह थी कि हमारे मुहल्ले मे हम बहन -भाईयोँ को आदर्श बच्चों के उद्दाहरण के रूप मे रखा गया था ! ” 

पेशे से इंजीनियर बेटे विनोद पाण्डेय थोड़े भावुक होते हुए माँ का चरित्र कुछ इस तरह अपने बचपन की यादें के साथ बयान किए “ मेरी माँ के चरित्र मे एक स्वस्थ जिद सदैव कायम रही है ! उन्होने अपने परिवार और अपनी नौकरी दोनो के साथ जिस तरह एक विपरित दौर मे न्याय किया, अपने सभी बच्चों की कुशल परवरिश एवम शिक्षा पर जिस तरह समर्पित हुई वह आज के दौर मे दो बच्चो वाले छोटे परिवार की कामकाजी महिला के लिए भी असम्भव लगता है ! 

माँ ने जटिल से जटिल परिस्थिति को भी अपनी दूरगामी सोच से इतना सहज बना दिया था की हर काम हमारे लिए एक सुंदर खेल जैसा ही होता था ! चूँकि पिता जी उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के बैंक में पोस्टेड थे

माह मे चार बार से भी कम हमारे साथ आकर रह पाते थे, अत: अपनी माँ के भीतर हमने अपने लिए पिता का किरदार भी जिवन्त होते हुए देखा था, माँ ने हम बच्चों के हिस्से कई तरह के काम बाँट दिए थे और उसे हमारी दैनिक दिनचर्या से जोड दिया था ! मुझे याद है की घर मे चौथी क्लास तक पहुँचते पहुँचते मैने अपने स्कूल के कपडे जूते बैग सब सही तरह रखने पहनने सीख लिए थे ! कुछ और बडा हुआ तो किचेन के काम मे भी सहयोग देने लगा ! मेरा काम था स्कूल से वापस आकर स्कूल ड्रेस उतार कर खाना खाने के बाद अँगीठी की साफ सफाई करके उसमे बुरादा, कोयला, भर कर रात की रसोई बनाने के लिए तैयार करता था, मेरे अन्य भाई आटा गूथते, सब्जी काटते, चावल, दाल धुल कर रख देते, किचेन की बाल्टी मे पानी भरते, झाडू मारते, हाथ पैर धोकर तैयार होते उसके बाद घर मे हमारी सेवा करने के लिए माँ को मिले सरकारी अटेंडेंट को सूचित करते हुए हम सब बहन भाई मिलकर कुछ वक्त के लिए मुहल्ले मे बच्चो के साथ खेलने जाते ! उस वक्त माँ के द्वारा दिए गए हमारे दैनिक दिनचर्या के कार्य मे प्रत्येक दिन घर के बाहर जाकर कम से कम दो घन्टे तक हमारा खेलना भी अनिवार्य रूप से शामिल था ! 

रोज शाम मे घर के बाहर जाकर हमारे खेलने की अनिवार्यता तय करने के पीछे निश्चित रूप से मेरी माँ का यही उदेश्य रहा होगा की उसके बच्चे शारीरिक रूप से फिट एवं स्वस्थ रहें ! कमाल की बात तो यह है कि माँ जब अपनी महिने - महिने भर के आधिकारिक प्रशिक्षण के लिए घर से बाहर जाती तब भी उनके द्वार हमारे लिए बनायी गयी दैनिक दिनचर्या यथावत चलती रहती, क्या मजाल उनकी अनुपस्थिति मे भी किसी दिन हमारी दिनचर्या मे हम कोई लापरवाही करने की सोचे भी ! मेरी माँ की उम्दा परवरिश की ही देन है कि हम सारे भाई बहन को अपने office एवं सामाजिक कार्यों को करने के साथ - साथ किचेन का भी सारा काम करने आता है ! हम सब लजीज से लजीज खाना बनाना जानते है !” 

श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी के बच्चों के मुँह से उनके उपरोक्त आदर्श मातृत्व वाले सफल चरित्र को सुनकर ऐसा लगता है जैसे सच मे एक माँ स्वयम मे अपने बच्चों के सतत एवं सर्वांगीण विकास को तय करने वाली यूनिवर्सिटी होती है, एक ऐसी यूनिवर्सिटी जिसकी वाइस चांसलर भी वह खुद ही होती है, विभागा अध्यक्ष भी वह खुद ही होती है, डीन०भी वह खुद ही होती है, और सारे नियम - कानून लागू करने वाली प्रसाशन की किताब भी वह खुद ही होती है ! यहाँ कहना सर्वथा उचित होगा की प्रियंवदा पांडेय जैसी माताओँ का चरित्र ही हमारे स्वस्थ्य समाज की स्वस्थ आधारशिला है॥ 

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वर्तमान मे ( वर्ष 2019 अगस्त माह तक ) 94 वर्षीय प्रियंवदा पाण्डेय अपनी दिनचर्या को लेकर हमेशा संतुलित, संयमित एवं सख्त रही है ! 

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जिस समय हमारे समाज मे योग शिक्षा विलुप्त होने के कगार पर जा पहुँची थी, उस दौर मे भी प्रियंवदा पाण्डेय रोज सुबह 4 बजे बिस्तर छोडने के बाद नियमित एक घन्टा योगा किया करती थी, जिनमे से कुछ एक आसन वह आज अपनी 94 वर्ष की उम्र मे भी करना जारी रखी है जैसे : अनुलोम, विलोम, प्राणायाम, वज्रसान, ऊँ की ध्वनी, आदि ! 

किशोरा अवस्था से ही रामचरित मानस के सुंदर काण्ड 

का पाठ पूरा कंठस्थ है जिसे आज 94 वर्ष की उम्र मे भी उनसे सुना जा सकता है ! 

प्रात: काल एवम संध्या वंदन में पूरे लय गति के साथ शिव तांडव करने का भी उनका नियम रहा है जो आज भी जारी है ! हम कह सकते है एक अद्भूत मिसाल है वह हमारी आज की पीढ़ी के युवाओं के लिए। यह किताब लिखते समय जानकारी लेने हेतु हमारी यथा कदा उनसे टेलीफोन पर वार्ता होती रहती थी इसी वार्ता के दौरान एक दिन पूरे लय के साथ उन्होने हमे अपने स्वर मे शिव तांडव सुनाया जिसे सुनने के बाद हम स्तब्ध थे और यह समझने का प्रयास कर रहे थे कि शायद योगा के प्रति आजीवन झुकाव एवम खुद को फिट रखने के लिए अपने विल पावर को मजबूत बनाए रखना ही उनके 94 वर्ष की उम्र मे भी उन्हे सक्रिय बनाए हुए है ! उनकी यादास्त को दुरूस्त रखे हुए है तभी तो इस उम्र मे भी उन्हे न ब्लडप्रेसर की समस्या है ना ही सुगर की ! 

हमने अपने स्वर मे शिव तांडव की कुछ एक पंक्तियाँ यथा : 

डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं

चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।

विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके

किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

दुहराने की कोशिश किया तो हमारी सांसे उखड़ने लगी तब हमने यह महसूस किया कि युवा अवस्था मे हम जिस शिव तांडव की चार से छह पक्ति तक को भी  सस्वर नहीं पढ़ सकते है वह शिव ताण्डव 94 वर्ष की उम्र मे भी नियमित रूप से दोनो जून प्रियंवदा पाण्डेय जी द्वारा सस्वर पढ़ा जाना निश्चित रूप से उनके जीवन भर की साधना का प्रतिफल है ! एक ऐसा प्रतिफल जो किसी के जीवन मे त्याग, स्वस्थ जिद, पूर्ण समर्पण, एवम अपने कर्तव्य के प्रति अपार निष्ठा से संभव हो पाता है, अनवरत संतुलित जीवन के आचार - व्यवहार से संभव होता है !

स्वास्थय के प्रति जीवन पर्यन्त वह सतर्क रही है यही वजह है कि वह आज भी अपनी देखभाल खुद करती है और अपनी दवाओं के प्रति भी स्वयं ही सजग रहती है। दवाई के प्रति लापरवाही न हो इसलिए अपनी सारी दवाइयों को अपने सिरहाने रखती है। और नियम से दवा लेती है। दोनो वक्त के भोजन के बाद कुछ देर टहलना आज भी उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा है !

होम्योपैथ की दवा का अच्छा ज्ञान रखती है और अपने प्रयोग मे भी जाती है ! स्वादिष्ट भोजन उनकी सदैव कमजोरी रहा है यहाँ तक की आज 94 वर्ष की उम्र मे भी इलाहाबाद स्थित नेतराम की प्रसिद्ध कचौरी दुकान की कचौरी और आलू दम की दीवानी है पर संतुलित मात्रा में एवम हफ्ते मे केवल एक बार ! इनका लजीज भोजन से गहरा लगाव सदैव रहा है, पर स्वाद पर संयम रखती थी पर स्वास्थ्य पर स्वाद को कभी हावी नही होने दिया क्योकि घर मे सख्त नियम बना रखी थी ! हफ्ते मे केवल एक दिन चटपटा भोजन करती थी जिसका नियम घर मे अपने बच्चो पर भी लागू कर रखा था इन्होने !

इनकी एक आदत जो इनकी साकारात्मक सोच को आज भी दर्शाती है वह है लोगो के दुख दर्द सुनकर उनके लिए आर्थिक एवं शारीरिक स्तर पर नि:स्वार्थ सहयोग करना, उनके बूरे वक्त मे सम्बल बन कर खडा होना ! “साकारात्मक रहो, साकारात्मक करो, साकारात्मक सोचो,” युवा अवस्था से आज तक इसी फॉर्मूला पर अमल करती आ रही है और अपना मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रखती है ! 

           

                              { 13  }

वर्ष 1940 -1942 के दौर मे स्त्री शिक्षा, स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के हिमायती प्रियंवदा पाण्डेय के बैंक कर्मी पति पंडित त्रिलोकीनाथ पाण्डेय का प्रियंवदा की सफलता मे विशेष योगदान रहा है : 

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वर्ष 1942 की भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत पारम्परिक परिवार मे पले - बढे एक 19 वर्षीय युवा का स्त्री शिक्षा एवम स्त्री के आर्थिक आत्मनिर्भता के प्रति क्रांतिकारी सोच रखना निश्चित रूप से एक बगावत थी अपने परिवेश,परिवार,एवम तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध ! प्रियंवदा पाण्डेय की आत्मकथा लिखने हेतु विभिन्न स्रोतों से जब हम जानकारी एकत्र कर रहे थे उस दौरान प्रियंवदा के ससुराल, मायका, खुद के बेटे - बहू, एवम स्वयम प्रियंवदा से भी इस आत्मकथा के लिए हमें जो साक्ष्य प्राप्त हुआ, हमें जो विषय वस्तु मिली उसमे प्रियंवदा के साथ - साथ एक और चरित्र बेहद सशक्त होकर उभर रहा था, जिसकी स्वस्थ बागी विचारधारा एवम त्याग के चलते ही प्रियंवदा विपरित परिस्थिति मे भी नारी सशक्तिकरण का स्वस्थ उदाहरण बन पायी ! हम यहाँ बात कर रहे है स्त्री शिक्षा एवम स्त्री के आर्थिक आत्मनिर्भरता के हिमायती प्रियंवदा के बैंक कर्मी पति स्व० पंडित त्रिलोकीनाथ पाण्डेय जी की, जिनके त्याग को इस आत्मकथा मे स्थान दिए बिना शायद यह आत्मकथा हर तरह से पूरी होकर भी एक अहम विन्दु पर आकर अधूरी रह जाएगी ! बात जब उस परिवेश की हो रही हो जिस परिवेश मे स्त्री मतलब ही यह मान लिया गया हो कि “ घर तक सिमित एक ऐसी मूक जीव जिसका समाज की व्यवस्था मे सीधे तौर पर कोई दखल न हो, साथ ही दूर - दूर तक शिक्षा से कोई सरोकार तय न किया गया हो,” तब हमे पति नाम के किसी चरित्र को लिखते हुए बहुत सतर्क एवं सावधान होकर कलम चलानी होगी क्योकि उस समय काल मे स्त्री का अस्तित्व उसके सेवाभाव, पति, घर - परिवार के प्रति त्याग, बच्चों की परवरिश, रिश्तेदारों की आवभगत

से तय होता था !” किन्तु इस मामले मे प्रियंवदा बहुत खुशकिस्मत रही की उनकी आँख मे सफलता का सपना स्वयम उनके पति ने सजाया फिर चाहे वह उच्च शिक्षा का मामला हो या कि जटिल सामाजिक पारिवारिक वर्जनाओं को तोडकर उन्हे नौकरी के लिए आगे लाने का मामला हो दोनो स्तर पर उन्हे पति का भरपूर shelter “ आश्रय ” मिला ! इस आत्मकथा के शुरूआती पन्नो मे हम इस सत्य से अवगत हो चुके है कि शादी के बाद प्रियंवदा का एक शिक्षा से दूरी बन गयी थी, नौकरी का कोई सपना उनकी आँख मे था ही नही नही वह पूरी तनमयता से ससुराल के प्रति अपना कर्तब्य निभाने मे रम गयी थी ! ऐसे मे उन्हे उच्च शिक्षा एवम नौकरी करने के लिए प्रेरित उनके पति ने ही किया ! यही नही 3 विषय मे सागर विशिवविद्यालय से एम०ए० करवाने मे विशेष योगदान भी उनके पति का ही रहा तभी तो पत्नी की प्रथम नौकरी लगवाने पर पिता द्वारा कपडे उतरवा कर छडी से पीटे जाने एवम कच्छे बनियान मे घर से पत्नी सहित बेदखल किए जाने पर भी स्त्री उन्नति के लिए उनका योगदान कम न हो सका ! 

जिस जमाने मे पत्नी की जरा सी तारीफ कर देने मात्र से पति को जोरू का गुलाम की उपाधि से नवाज दिया जाता था उस जमाने मे पंडित त्रिलोकीनाथ पाण्डेय अपनी पत्नी को ऊँचे दर्जे की शिक्षा दिलवा रहे थे ! नौकरी के द्वारा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रहे थे! समाज परिवार के उलाहने ताने की परवाह किए बिना उसे दूसरे स्टेट मे ऊँचे ओहदे की नौकरी के लिए भेज रहे थे ! उन्होने यह भी कभी परवाह न की थी कि: पत्नी शिक्षा के मानक पर उनसे ज्यादे बडी उपाधि प्राप्त कर चुकी है और वह स्वयम मात्र इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई कर सके है ! मेरी समझ से उस जटिल समाज मे पत्नी के शानदार प्रमोशन के साथ क्लास वन अधिकारी बनने पर पत्नी को साबासी देने वाले उन्नत विचार धारा के शायद वह पहले पुरूष रहे हो ? 

पति - पत्नी आजीवन दो अलग अलग राज्य ( उत्तर प्रदेश एवम मध्य प्रदेश ) मे नौकरी करते रहे, रिटायरमेंट से पूर्व एक साथ एक सप्ताह कभी नही रह पाए , पर दोनो लोगो के बीच आपसी समझ, आपसी भरोसा इतना मजबूत की : रिस्ते मे कभी सक, सुबहा,  शिकायत का, कोई व्यवधान खडा ही नही हुआ। पत्नी जब भी अपनी नौकरी मे उतपन्न किसी समस्या से परेशां हुई तो पति से ही सुझाव मांगा, पति से ही समस्या साझा किया, पत्नी को जब भी तात्कालिक जटिल सामाजिक कुरीतियों का सामना करना पड़ा उस वक्त पति के कहे शब्दो पर ही वह कायम रही यथा : 

“ हमारी जिंदगी में तकलीफ जितनी ही ज्यादा आती है , हमे उतना ही ज्यादे बेहतर इंसान भी बनाती है, फिर गैर जरूरी सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने से भय कैसा? अगर हम इन्हे आज नही तोड़ेंगे तो यह हमारी आने वाली पीढ़ियों का सदियों - सदियों तक पीछा करती रहेंगी इसलिए बेहतर होगा सामाजिक संकट के रूप मे उपस्थित वैचारिक एवम सामाजिक संकीर्णता जैसी गंदगी को साफ करने की पहल हमसे ही शुरू की जाए । समाज से भेदभाव की गंदगी दूर होगी तो साफ होती गंदगी देर सबेर समाज को जरूर नजर आएगी ! अगर नजर नही भी आयी तो भी कोई परवाह नही होनी चाहिए बस हमे अपना काम समर्पण भाव से करते रहना चाहिए ! व्यक्ति जब कोई ऐसा काम करता है जिसको करने की प्रेरणा उसके भीतर से आती है तो निश्चित रूप से उसे ऐसा काम करना ही चाहिए, क्योकि ऐसे काम करने से उसकी आत्मा पर किसी भी प्रकार का बोझ नही रहता !” 

प्रियंवदा बताती है “ ऐसा भी नहीं था कि मेरे पति शारीरिक रूप से अस्वस्थ थे, या फिर उनमे कोई कमी थी और अपनी किसी कमी / कमजोरी को छुपाने के लिए वह मुझे आत्मनिर्भर बनाने मे लगे थे, नही ऐसा नही था ? मेरे पति हर प्रकार से स्वस्थ और एक शानदार पर्सनालिटी के मालिक थे ! जितनी सुन्दर उनकी सोच, उनका व्यक्तित्व, उनका चरित्र, उतनी ही आकर्षक उनकी पर्सनालिटी थी ! उनकी आकर्षक पर्सनालिटी की विशेषताओं का अन्दाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि : 6 फुट 2 इंच लंबाई, ऊँचा माथा, गठा हुआ रौबदार शरीर, अपने समय मे एक बैंक कर्मी के साथ - साथ एक पहलवान के रूप में भी वह ख़ासे प्रसिद्ध थे अपने गाँव, जवार, क्षेत्र में,! ” 

बच्चों सहित प्रियंवदा पाण्डेय एवम उनके अन्य जानने वालो से प्रियंवदा के पति पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के व्यक्तित्व एवम सोच के विषय मे जानकर हम सब काफी देर तक स्वयम को यह यकीन दिलाने का प्रयास कर रहे थे कि जब आज के आधुनिक समय मे भी ऐसे पुरुषों की संख्या उंगलियों पर गिन लेने जितनी है हमारे इस देश में, हमारे वर्तमान समाज मे जो लैंगिक भेदभाव एवम अँह को त्यागकर कर सम्मान सहित अपनी पत्नी को अथवा बहू, बहन, बेटियों को उच्च शिक्षा देने, आर्थिक रूप से सक्षम, आत्मनिर्भर, बनाने मे सहयोग करने हेतु आगे आएँ तो फिर उस सामाजिक व्यवस्था मे, उस परिवेश मे, एक पुरूष की इतनी उन्नत सोच होना निश्चित ही बहुत बडे साहस का प्रतीक है। क्योकि उस दौर मे पत्नी की तरक्की के लिए सोचना, पत्नी के विकास के लिए किसी भी तरह की तरफदारी करना किसी भी पुरूष के लिए आसान काम नही था, क्योकि उस समय परिवार, समाज, दोनो की तरफ से ऐसे पुरूष को जोरू के गुलाम की संज्ञा दिए जाने का चलन व्याप्त था ! 

पुरुषों वाला कोई बेजा अँह न पालने की वजह से और 

महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के सशक्त पैरोकार होने की वजह से पति त्रिलोकी नाथ अपनी पत्नी की हर एक तरक्की का खुलेमन से आजीवन सम्मान करते रहे ! 

प्रियंवदा बताती है “ वर्ष 1940 मे जब मै ब्याह कर पति के साथ अपनी ससुराल तहसील सोंराव के अन्तर्गत आने वाले ग्राम बरबोली, प्रयागराज जिले मे आई तो कम उम्र के लिहाज से मेरी समझ भी कम थी !  ससुराल की परम्परा के अनुकूल ढलते हुए मै परिवार के  दैनिक दिनचर्या मे व्यस्त रहने लगी ! पर पति मेरी इस दिनचर्या से खुश नही थे क्योकि वह मुझसे कुछ और भी करने की उम्मीद पाल रहे थे, उनकी बाते उस समय के पुरुषों के अँहवादी बातों से हटकर होती थी, वह मुझे सदैव याद दिलाते की मेरी गणित, मेरी इंग्लिश, संस्कृत, हिन्दी भाषा पर पकड बहुत उम्दा है, जिसके चलते घर परिवार के लिए बेहतर करने के साथ - साथ मै समाज मे भी कुछ बेहतर कर सकती हूँ ! वह मुझसे मेरी आगे की पढाई जारी करने की बात करते और स्त्री के लिए उच्च शिक्षा की विशेषता पर चर्चा करते थे ! हमेशा कहते थे पुरूष के अशिक्षित रह जाने से केवल एक परिवार प्रभावित हो सकता है लेकिन एक स्त्री के अशिक्षित रह जाने से पूरा समाज प्रभावित होता है ! क्योंकि एक स्त्री केवल पारिवारिक मूल्यों की ही रक्षक नहीं होती है, बल्की सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने की भी सशक्त माध्यम होती है ! अत: समाज, परिवेश, परिस्थिति कोई भी, कैसे भी, क्यो न हों, स्त्री का शिक्षित होना, स्त्री का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना हर देश - काल के लिए अति आवश्यक है ! मेरी नजर मे उनकी वह सारी बाते उस समय के देश, काल, समाज से परे जाकर सदियों - सदियों आगे की सोच थी, प्रतिबिम्ब थी, तभी तो गुलामी के उस दौर मे उपजी उनकी उस उन्नत सोच को देश की आजादी के 72 वर्ष बाद आज अपनी 94 वर्ष की इस वयोवृद्ध उम्र के पडाव पर आकर भी मै अपने वर्तमान देश - समाज मे भी पूर्णतया स्थापित होते हुए नही देख पा रही हूँ ! मै कह सकती हूँ कि : स्त्री की तरक्की के प्रति मेरे पति का व्यक्तित्व, चरित्र, एवम उन्नत विकसित सोच आज के वर्तमान दौर मे भी पुरुषों के लिए अनुकरणीय जान पडती है मुझे !!”

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नौकरी के साथ ही सामाजिक सरोकार से जुडकर जीवन के हर आयाम पर योगदान देती रही है प्रियंवदा

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गरीब बच्चोँ की शिक्षा मे विशेष योगदान देती रही है, प्रियंवदा इसके पीछे की वजह यह रही है कि : बचपन मे स्वयम प्रियंवदा का भी अभाव से बहुत करीब का नाता रहा है ! इसलिए आर्थिक रूप से सक्षम होने के बाद गरीब बच्चो के लिए सदैव आर्थिक सहयोग देती रही है एवम उनके शिक्षा अर्जन मे आने वाली परेशानी को दूर करने हेतु सदैव सक्रिय रही है ! जब भी कोई गरीब अभावग्रस्त बच्चा स्कूल नही जा पाता वह उसे स्कूल भेजने से लगायत उसकी अन्य जरूरतो का ध्यान रखते हुए उसे सदैव सहयोग करती रही है!

गरीब बोटियोँ एवम अभावग्रस्त लडकियोँ को भी हर तरह से सहयोग करती रही है, इनका यह कार्य शुरू तो सतना नारी निकेतन मे नौकरी के दौरान आने वाली सैकडो दुखी बेटियो का घर बसाने के साथ ही हो गया था, पर विशेष रूप से नौकरी से रिटायर होने के बाद इसे ज्यादे गम्भीरता से करना आरम्भ कर दी थीँ, इसके लिए इन्होने बाकायदे “प्रियंवदा फाऊण्डेशन” भी बनाया था पर उम्र बढ़ने के साथ 

फाऊण्डेशन को बन्द कर दिया ! 

जरूरतमन्द की मदद करने के लिए अपने परिवारी जनो को भी सहयोग करने के लिए प्रेरित करती रहती है ! हर लडकी की पीडा इन्हे अपनी पीडा लगती है क्योकि लडकी होकर वह भी अभाव मे रहकर इस समाज मे जीना कितना दूरूह है यह शायद इनसे बेहतर कोई और नही जान सकता ! 

वर्षो से मानव सेवा सँस्थान राजस्थान को सालाना 20 हजार रूपए का गुप्त दान भी इनके द्वारा दिया जाता है !  कहने को तो यह गुप्त दान परिवार से छुपा कर दिया जाता है पर दान के रूपए बेटोँ द्वारा ही भेजवाती है इसलिए बेटो के हाथ दान के एमाउन्ट की जानकारी लग ही जाती है ! इनकी आत्कथा लिखते हुए इस रोचक घटना का जिक्र इनके परिवार के सदस्योँ ने ही हमसे  किया था। 

नौकरी से सेवामुक्त होने के बाद बेसहारा बच्चोँ के लिए भी बहुत काम करती रही हैँ इसी काम के अन्तर्गत दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा के साथ इनका जुडाव हुआ दीदी माँ ऋतंभरा जो कि महान साध्वी होने के साथ - साथ दुनियाँ मे एक ऐसी अनोखी माँ है जो उन बच्चो को अपनी गोद मे सँरक्षण देती है जिन्हे उनकी अपनी माँ की गोद भी स्वीकार करने से इनकार कर देती है ! 

हर बच्चे मे राम, श्याम, नारायण, सीता, का चरित्र विकसित करने वाली माँ ऋतंभरा के बेहद करीब रहते हुए प्रियंवदा उन बच्चोँ के लिए हर वर्ष भूमि हेतु अर्थ दान देती है जिनका पालन पोषण दीदी माँ के आँगन मे होता है । यह दान वह कितना देती है परिवारी जनो से नही शेयर करती पर यहाँ भी बैँक जाकर बेटे ही एकाउन्ट मे पैसा जमा करवाते है इसलिए दिए जाने वाले दान का एमाउन्ट घर मे सबको पता चल जाता है ! बेटो ने बताया यह राशि एक लाख रूपए होती है ! 

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                प्रियंवदा पांडेय की शिक्षा : 

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प्रियंवदा पांडेय के जीवन मे ऐसे दो ही मजबूत स्तम्भ रहे जिन्होने अपने योगदान से उन्हे 1940 / 42 के दशक वाले परिवेश मे भी परिवार समाज की संकीर्ण वर्जनाएं तोड़ते हुए उस मुकाम पर पहुंचाया जहां पहुंचना उस जमाने में हमारे भारतीय परिवार की किसी बहन, बेटी, स्त्री, के लिए एक ऐसे सपने जैसी बात थी जिसे देखने का साहस करना भी एक तरह से वर्जित था तात्कालिक समाज मे ! श्रीमती प्रियंवदा पांडेय बताती है  “अपनी प्रथम नौकरी वर्ष 1942 के दौरान जो की मुझे मेरी आठवीं कक्षा की मार्कशीट के आधार पर मिली थी से मैने यह सच समझा की स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता केवल शिक्षा के माध्यम से ही तय की जा सकती है साथ ही उच्च शिक्षा आपके सोचने समझने के दायरे का विस्तार तय करती है और उस शून्य की भरपाई करती है जो शिक्षा के अभाव मे हमारे उस दौर की स्त्री वर्ग मे अपने चरम पर था ! 1930 से 1940 तक आठवीं की फर्स्ट क्लास की पढ़ाई उसके बाद शादी और शादी के बाद दो वर्ष ससुराल मे रहने के कारण पढ़ाई का छूटना फिर पति के सहयोग से 1942 मे कोटवा प्राथमिक स्कूल मे शिक्षिका के तौर पर मेरा नौकरी मे आना, नौकरी मे रहते हुए ही पति की पढ़ाई, बच्चो का जन्म, लालन - पालन, करते हुए दिनभर स्कूल मे पढ़ाने के बाद शाम को घर आने पर घर का सारा काम निपटा कर ट्यूटर द्वारा खुद भी नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, कक्षा के लिए पढ़ाई करना, एवम तात्कालिक उत्तर प्रदेश बोर्ड शिक्षा व्यवस्था द्वारा आयोजित की जाने वाली हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट वार्षिक परीक्षा में बैठना, अच्छे नम्बर से बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करना बहुत कठिन काम था, पर पति सदैव उच्च शिक्षा के लिए मुझे प्रेरित करते रहते तो ज्यादे श्रम के बाद भी कभी मानसिक स्तर पर मुझे थकान नही हुई, सैकडो कठिनाई के बावजूद भी मै कभी मानसिक तौर पर थकती नही थी नयी उर्जा के साथ पढ़ाई मे आगे बढ़ती गयी ! 

वर्ष 1952 मे जब मध्य प्रदेश के सतना जिले मे मै दूसरी नौकरी के लिए आयी तो यहाँ भी पति ने आगे की पढ़ाई के लिए कुछ एक वर्ष बाद सागर यूनिवर्सिटी मध्य प्रदेश मे स्नातक (BA) करने के लिए मेरा एडमिशन करवा दिया ! नौकरी की व्यस्तता, घर की जिम्मेदारी, बच्चो का पालन - पोषण, मेरी अपनी नौकरी, एवम मेरे पति की दूसरे प्रदेश मे “उत्तर प्रदेश मे” नौकरी के चलते बच्चो के साथ सरकारी बंगलो में अकेले रहने की मजबूरी के बावजूद मैने सागर यूनिवर्सिटी से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण किया ! स्नातक करने के बाद पढ़ाई मे मन ऐसा रमा की लाख बाधाओ को पार करते हुए सैकडो जिम्मेदारियोँ को एक साथ निभाते हुए भी मैने  एक - एक करके तीन विषय “इकोनॉमिक्स, पोलीटिकल साइंस, सोशियोलॉजी” मे परास्नातक ( MA ) कर लिया । बिना पति के सहयोग के मेरा यह भगीरथ प्रयास कभी सम्भव नही हो पाता लेकिन पति का सहयोग केवल मेरा एडमिशन करवाने तक होता बाकी सब कुछ तो मुझे खुद ही करना था सच कहूँ तो परिवार, नौकरी , बच्चे के साथ तीन विषय मे परास्नातक “MA” करना मेरे खुद के लिए भी एक भगीरथ प्रयास ही रहा पर चहाँ चाह चाह थी वहाँ राह अपने आप बनती चली गयी ! मेरे बच्चे आज इस उम्र मे भी मुझसे पूछते है अम्मा आप हर काम करने से पूर्व “ईश्वर तुम्हारी मर्जी सामिल होगी तो काम जरूर होगा मै तो बस मेहनत कर सकती हूँ ” जैसी लाइन क्यो बोलती है ? आजीवन जी-तोड मेहनत आप करती रही है और सफलता का सारा क्रेडिट केवल ईश्वर को ? उनकी बाते सुनकर यही जवाब देती हूँ बेटा मेरा काम ईश्वर के सहयोग से ही होता है तो ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ आप लोगो को लगता है आप लोगो के काम बिना ईश्वर की मर्जी से आप कर लेते हो तो यह अच्छी बात है, मेरी तरफ से आपकी आस्था आजाद है !” 

प्रियंवदा पांडेय जी की आत्मकथा लिखते हुए उनकी शैक्षणिक योग्यता के बारे में जानने के बाद, उनकी मेहनत और लगन को नमन करने का मन कर रहा है, वजह यह कि सन 1942 मे जब भारत आजाद भी नही हुआ था और देश मे कुल साक्षरता दर केवल 16 प्रतिशत के आस - पास ही थी जिसमे स्त्री साक्षरता दर तो लगभग दो प्रतिशत भी नही थी आज से 78/79 वर्ष पूर्व के उस दौर मे एक स्त्री का, एक बेटी का, पढ़ाई करना, नौकरी करना, नौकरी के साथ - साथ तीन विषय मे एम०ए०करना निश्चित रूप से यह कोई बच्चो का खेल नही था क्योकि जिस देश मे आजादी के 68 वर्ष बाद 22 जनवरी सन 2015 को महिला एवम बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, परिवार कल्याण मंत्रालय, एवम मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संयुक्त पहल के रूप मे समन्वित और अभिसरित प्रयासों के अंतर्गत बालिकाओं को संरक्षण और सशक्त करने के लिए “ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ,” जैसी योजना की शुरूआत की जा रही हो उस देश मे आजादी के पूर्व स्त्री शिक्षा की दयनीय स्थिति का आँकलन सहज रूप से किया जा सकता है और आँकलन करने के बाद निश्चित रूप से हम यह कहने पर मजबूर हो जाएँगे कि “ शिक्षा के प्रति प्रियंवदा तुम्हारी दृढ़ निश्चयता को प्रणाम” !

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अपनी 7 बहुओँ के लिए सास नही बल्कि माँ एवम दोस्त बनी रहने वाली प्रियंवदा :

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 7 बेटोँ शशिकान्त पाण्डेय, अशोक कुमार पाण्डेय, प्रमोद कुमार पाण्डेय, प्रभात कुमार पाण्डेय, विनय कुमार पाण्डेय, आनन्द  कुमार पाण्डेय, विनोद कुमार पाण्डेय, एवम 7 बहुएँ यथा : मिथलेश पाण्डेय, विमला पाण्डेय, निर्मला पाण्डेय, कान्ति पाण्डेय, पूनम पाण्डेय, अन्जू पाण्डेय के प्रति इनका व्यवहार सदैव आदर्श रहा है हाँ कही अगर कोई अनबन हुई तो बहुओ से नही अपने बेटो से होती है कारण इन्हे यह बरदास्त नही बेटे इन्हे दान पुण्य करने से रोके और बेटे है कि जानबुझकर इन्हे छेडने के लिए पूछा करते है अम्मा इस बार कितना दान दी है बेटो के मुँह से इतना सुनकर झुँझला जाती है और इन्हे इस प्रकार छेडने का सबसे ज्यादे रिकार्ड इनके बेटे ई० विनोद पाण्डेय जी के नाम है ! बहुओ के साथ रिस्ता बहुत मधुर रहा है पर दिनचर्या को लेकर सख्ती की हिमायती रहते हुए क्योकि अपने जीवन काल मे प्रियंवदा एक उच्च शिक्षित, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, सुलझी हुई महिला रही है है जिसकी वजह से दकियानूसी छोटी सोच से उनका दूर दूर तक का कोई वास्ता नही था अपने बेटा बेटी के लिए जहाँ वह एक कुशल माँ थी तो वही बहुओँ के लिए एक मित्रवत सास थी हाँ बहुँओ से कभी कोई सिकायत रही तो वह लजीज खाने को लेकर जो बहु इनके लिए लजीज खाना नाश्ता बनाए वह बहुत अच्छी जिसने फीका खाना बनाया खिलाया वह बिल्कुल अच्छी बहु नही ! बहुओ के साथ का रिश्ता खाने के टेस्ट पर निर्भर करता था ! अगर यह एक मुद्दा अनदेखा कर दिया जाए तो शायद इस दुनिया मे प्रियंवदा से प्यारी सास कोई दूसरी नही होगी होगी क्योकि बेटो की शादी के लिए बहुओ का चुनाव इन्होने बहुओँ की शिक्षा के आधार पर किया शिक्षा के मानक पर पैसे रूपए को कभी नही रखा ! 

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    हर प्रकार से एक आदर्श चरित्र प्रियंवदा : 

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अपनी 44 वर्ष की नौकरी मे चाहे उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम कोटवा प्राथमिक विद्यालय मे 14 वर्ष की नौकरी रही हो, या फिर 29 वर्ष तक मध्य प्रदेश के सतना जिले मे तीन प्रमोशन के साथ क्लास वन अधिकारी की नौकरी, प्रियंवदा ने कभी अपने दायित्व से समझौता नही किया ना ही अपना पारिवारिक एवम सामाजिक फर्ज ही भूलीँ ससुर कृष्णा नन्द पाण्डेय ने बहु की नौकरी के चलते नाक नीची होने की बात कह कर जिस बहु की वजह से बेटे को भी बेदखल कर दिया था उसी बहु ने नौकरी क बाद धीरे धीरे ऐसा माहौल बनाया की ससुराल एवम ससुर से कुछ सालो बाद सम्बन्ध मधुर हो गए और ससुर पूरे जवार से बहु की कामयाबी की तारीफ करने से नही थकते ! घर की बेटियो को बहु प्रियंवदा का उद्दाहरण देकर जीवन में शिक्षा का महत्व समझाते और शिक्षा अर्जित करने की प्रेरणा देते ! वर्ष 1981 तक जब तक जीवित रहे बहु प्रियंवदा को उसके अच्छे व्यवहार एवम कार्य के लिए मान देते रहे ! सतना म० प्र० मे 34 वर्ष की नौकरी के दौरान मुहल्ला धवारी मे अपना घर जरूर बनवा ली थी फिर भी पूरे भावना के साथ ससुराल और मायके से जुडी रही । प्रियंवदा पाण्डेय की आत्मकथा लिखने के सिलसिले से इनके ससुराल ग्राम बरबोली, तहसील सोँराव, एवम मायका जमनीपुर मे इनके परिवारी जनो से सम्पर्क किया तो बहुत सारी ऐसी बाते निकलकर सामने आई जो इनके चरित्र को व्याख्यायित कर रही थी यथा ससुराल के लोगो से जब जानकारी ली गयी तब इनके चचेरे ससुर ज्ञानानंद पाण्डेय, चचेरे देवर विश्वनाथ पाण्डेय, एवम अजय कुमार पाण्डेय ने बतायाया प्रियंवदा भाभी सतना मे जरूर रही पर अपने बच्चो के साथ हम सभी से सदैव जुडी रही, आज भी जुडी है, उन्होने कभी रिश्तो का अनादर नही किया ! चचेरे देवर के बेटे राज पाण्डेय, और शास्वत पाण्डेय,

ने बताया ताई नौकरी भले सतना मे की पर हम सबको एक साथ लेकर चली हमारे घर परिवार मे आज भी बेटियो को ताई का उद्दाहरण दिया जाता है, ताई सदैव हमारे लिए एक प्रेरणा है क्योकि उन्होने जिस परिवेश मे खुद को स्थापित किया उस परिवेश मे किसी महिला के लिए ऐसा कर पाना सम्भव नही था ! सगे देवर विश्वम्भर नाथ के परिवार से मिलने पर पता चला की प्रियंवदा बेहद शान्तिप्रिय सदस्य रही है हमारे परिवार की उन्होने कभी रूपए पैसे समपत्ति के लोभ मे रिस्तो को अनदेखा नही किया हर कीमत पर रिस्ते उन्हे बहुत प्रिय रहे है यही वजह है कि आज भी अपने बच्चो एवम अपने साथ हमे गहरे तक जोड कर रखी है ! 

कछ एक तथ्य परक सत्य की जानकारी हेतु जब हमने इनके मायका जमनीपुर मे इनके भतीजो से सम्पर्क किया तो भतीजे राजेंद्र त्रिपाठी ने एवम पूर्व जिला पंचायत सदस्य स्व०महेन्द्र त्रिपाठी के परिवार के सदस्यो ने बताया कि हमारी बुआ की सफलता का उदाहरण आज हमारे गाँव के घर - घर मे बेटियो को दिया जाता है ! यहाँ तक की आज भी हमारे गाँव के हर एक माता पिता का यह सपना रहता है की उनकी बेटी भी हमारी प्रियंवदा बुआ जैसी बने । 

जानकारी की इसी कडी मे हम जब जमनीपुर मे थोडा और आगे पहुँचे तो पता चला जिस जमनीपुर गाँव मे एक भी प्राथमिक विद्यालय नही था आज वहाँ प्रियंवदा के घरके  पीछे ही विश्वविद्यालय खुल चुका है और विश्वविद्यालय के कुलपति है इन्दिरा गाँधी के समय मे फेमस IAS अधिकारी रहे श्री जगदीश नारायण मिश्र ! कोटवा के लोगो से पता चला प्रियंवदा ने अपने समय मे बहुत सी हम उम्र लडकियो का भला किया है जिनमे एक तो स्वयम कोटवा से इनकी दोस्त सीता सिह जी थी जो बाद मे इनके बुलावे पर अपनी पढ़ाई पूरी करके सतना आई और इनकी सहयोगी रही साथ ही नौकरी देकर आर्थिक रूप से प्रियंवदा ने दोस्त सीता सिह को आत्मनिर्भर बनाया जिससे उन्होने स्वयम अविवाहित रहते हुए अपनी चार बहनो की पढ़ाई लिखायी की जिम्मेदारी निभाया और सदैव इनके साथ सहयोगी के रूप मे रही ! रीवा मे रहने वाली इनकी प्रिय शिष्या कांति सिंह जिनके जीवन को बनाने मे इनका योगदान एक शिक्षिका, एक गुरु के जैसा रहा किन्तु यह गुरू शिष्या का सम्बन्ध कब बडी - बहन छोटी बहन मे बदल किसी को पता भी न लगा और इनके अच्छे व्यवहार का आलम यह रहा कि कांति सिंह केवल शिष्या ही नही इनके बच्चो की प्रिय मौसी भी बन गयी साथ ही साथ प्रियंवदा को सदैव गुरू जी कह कर बुलाने वाली छोटी बहन जैसी इस शिष्या ने ही अपनी गुरू जी {प्रियंवदा} के नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद पूरे भारत का भ्रमण एवम चार धाम की यात्रा कराया ! इनके ससुराल के लोगो से ही इनके अच्छे आदर्श व्यवहार की एक जानकारी हमे प्राप्त हुई जिसका उल्लेक ना करे तो यह आत्मकथा अधूरी रह जाएगी और शायद इस आत्मकथा की एकमात्र मुख्य पात्र प्रियंवदा पाण्डेय का चरित्र चित्रण भी अधूरा रह जाएका यथा : बड़की काकी एक ऐसा सरल, सहज, सीधा, ममतामयी, सहयोगी पात्र प्रियंवदा के जीवन का जिसने स्वयम शिक्षित की न होने पर भी उस विपरित परिस्थिति मे भी  शिक्षा के महत्व को समझते हुए प्रियंवदा के पति पण्डित त्रिलोकी नाथ त्रिपाठी एवम प्रियंवदा के पक्ष का समर्थन किया था जब ससुर ने शिक्षिका के तौर पर नौकरी करने की अनुमति तक देना सही नही समझा और बेटे बहु को घर से बेदखल कर दिया था ! ससुराल से चाहे जितने वर्ष तल्खी रही हो प्रियंवदा की पर बड़की काकी सदैव प्रियंवदा की माँ बनी रही और प्रियंवदा के 8 बच्चो के जन्म, लालन - पालन मे जितना हो सकता था एक माँ की तरह अपना सहयोग दिया वजह बस इतनी थी की शादी के बाद दो वर्ष तक ससुराल मे रहते हुए प्रियंवदा ने बड़की काकी को बहुत मान दिया था एवम उन्हे अपनी माँ कहती थी, इस रिश्ते को बड़की काकी ने आजीवन निभाया ! प्रियंवदा चाहे सतना रही चाहे अपनी ससुराल बरबोली मे, एक माँ के रूप मे बड़की काकी हर वक्त उनके साथ खडी रही!  प्रियंवदा अपने 8 बच्चो की माँ होने के साथ - साथ बहुत सारे ऐसे अनाथ बच्चो की माँ बनकर उन्हे सहयोग की जिनके माता पिता नही थे ! बहुत सारी ऐसी परित्यक्ता महिलाओ का जीवन सँवारी जिनको परिस्थिति ने सडक पर लाकर खडा कर दिया था । 

इस पुस्तक को लिखने के पूर्व लेखन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के तहत जब हम प्रयागराज शहर के कुछ ऐसे लोगोँ तक पहुँचे जिनका गहरा सम्बन्ध प्रियंवदा जी के घर परिवार से है तो किताब लिखने हेतु कुछ एक विन्दु पर हमारी बातचीत आदरणीय श्री शिव नंदन गुप्ता जी से हुई जिन्होंने "भारत विकास परिषद" संस्था के माध्यम से अपना सारा जीवन सामाजिक कार्यों में बिताया है ! श्री गुप्ता जी ने हमे किताब लिखने के लिए 

अपना योगदान देते हुए प्रियंवदा जी के जीवन के घर, परिवार, से जुडे कुछ विशेष पहलू से परिचित करवाया !

प्रयागराज शहर के माने जाने शल्य चिकित्सक डॉक्टर अशोक त्रिपाठी जी ने प्रियंवदा पाण्डेय से हाल ही मे हुई अपनी एक मुलाकात का जिक्र करते हुए उन्हे अदम्य साहसी महिला बताए । 94 वर्ष की उम्र मे भी उनके स्वास्थ्य एवम दिनचर्या की तारीफ करते हुए कहने लगे मै पेशे से इस शहर का एक सफल डाक्टर जरूर हूँ, पर जब सपत्निक मै प्रियंवदा जी से जाकर मिला तो मुझे महसूस हुआ एक 94 वर्षीय महिला अपने स्वास्थ्य को लेकर जितनी सजग है उतना सजग तो आज के दौर मे हमारा युवा वर्ग भी नही है एक डाक्टर होने बावजूद शायद मै भी नही हूँ । 

यही वजह है कि “ मै प्रियंवदा जी को 94 वर्षीय युवा महिला के रूप मे ही  सम्बोधित करना पसन्द करता हूँ।”                                           

                          { 18  }  

                 प्रभात मुम्बबई

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      एक बेटी की माँ के तौर पर प्रियंवदा 

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कहते है इस दुनियाँ मे कोई भी मा तबतक पूर्ण नहीं बन पाती, अथवा पूर्ण माँ मानी ही जाती है, जब तक उसने माँ के रूप में बेटी को जन्म न दिया हो, बेटी की परवरिश न की हो ! 

जिस प्रकार स्त्री की संरचना से, स्त्री की आवृत्ति एवम परिकल्पना से हमारी प्रकृति पूर्ण होती है उसी प्रकार एक बेटी के जन्म के बाद ही वास्तव में एक माँ के लिए माँ शब्द की परिभाषा व्यवहारिक रूप से पूर्ण होती है ! प्रियंवदा पाण्डेय की तीसरी संतान के रूप में एक बेटी का जन्म हुआ ! पति की इच्छा से प्रियंवदा ने अपनी बेटी का नाम उमा रखा ! जिस वक्त बेटी उमा का जन्म हुआ प्रियंवदा की प्रथम नौकरी वाले उतार चढ़ाव के दिन थे पर बेटी के जन्म पर उन्हे अपार खुशी हुई ! शायद यह पहला अवसर था किसी बेटी के लिए जब उसके जन्म पर पिता ने बधावा बजवाया था, घर आँगन मे कई दिनो तक साँझ सवेरे सोहर की स्वर लहरी गूँजी थी और माता - पिता अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार लोगो मे नेग-चार भी बाटे थे ! 

बेटी की परवरिश मे प्रियंवदा ने नाज़ और सख्ती दोनोँ का पलडा बराबर रखा ! अपनी बेटी को बेजा जाति - पाति, ऊँच-नीच, एवम दुनिया के हर उस दोयम दर्जे की सोच से उपर रखा जो बेटी से केवल इस लिए भेदभाव करती है क्योकि वह दुनिया मे बेटी बनकर पैदा हुई है ! 

चाहे शिक्षा हो, चाहे परवरिश हो, चाहे संस्कार हो, चाहे नौकरी हो, हर बिन्दु पर बेटे - बेटी के बीच बराबरी का मानक रखा ! घर मे उतनी ही बराबर की छूट बेटी उमा को भी माँ ने दिया जितनी अपने 7 बेटोँ को देती रही ! इकलौती बेटी होने का ना बेजा घमंड उमा के भीतर पनपने दिया, ना ही कभी बेटी होने की वेदना से ही गुजरने दिया ! शायद बेटी उमा मे प्रियंवदा खुद के बचपन को भी दूबारा जीने का प्रयास कर रही थीँ तभी तो हर उस अभाव और भेदभाव की छाया तक से बेटी को दूर रख रही थी जो उन्होने अपने बचपन मे भोगा था, झेला था ! 

एक स्वस्थ माहौल और आजाद सपनोँ के साथ बेटी उमा बडी हुई। बेटोँ की तरह ही घर मे अपनी हर बात मजबूती से रखने की, अपने पैर पर खडी होने की, अपनी मनपन्द शिक्षा अर्जित करने की आजादी उमा को माँ की तरफ से सदैव रही ! 

बेटी उमा बताती है “ माँ की शुरूआती 14 वर्ष की नौकरी सरकारी शिक्षिका की रही । मेरा बचपन माँ को 

शिक्षिका के रूप सेवा देते हुए देखकर बीता ! शिक्षिका के रूप मे मेरी माँ का लोग बहुत सम्मान करते थे, मै अपनी माँ के इस सम्मानित पद से एवम माँ को लोगो से मिलने वाले विशेष सम्मान से बहुत प्रभावित थी और बचपन से अपनी आँख मे बस एक ही सपना सजा रही थी एक ही कामना दिल मे पाल रही थी वह यह की बडी होकर मै भी शिक्षिका के रूप मे खुद को स्थापित करने करूँगी ! मुझे आज अपार खुशी हो रही है आप लोगो को यह बताते हुए की मैने अपने सपने को सच किया, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद एक शिक्षिका के रूप मे अपनी नौकरी शुरू किया और सफलता पूर्वक अपनी नौकरी के दायित्व को पूरा किया !”  

जैसा की उपर स्वयम बेटी उमा ने बताया की उन्होने एक शिक्षिका के तौर पर खुद को स्थापित किया । 

लम्बी सेवा देने के बाद कुछ वर्ष पूर्व राधारमण इंटर कॉलेज नैनी, जिला प्रयागराज से उम सेवानिवृत्त होकर वर्तमान मे पति श्री हरि प्रकाश मिश्र के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रही हैँ ! 

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यूँ तो दुनिया की सभी भाषा - बोली मे, साहित्य लेखन विधा मे, आत्मकथा लिखने की परम्परा सदियोँ पुरानी रही है ! हर रोज दुनिया के बडे - बडे लेखकोँ द्वारा किसी ना किसी महान चरित्र की महानता को बयान करती हुई आत्मकथा लिखी जाती रही है, और आगे भी अनवरत लिखी जाती रहेगी ! लेकिन समाज मे, समाज के आखिरी पायदान पर खडा होकर केवल अपनी निरा प्रतिभा एवम सतत सार्थक प्रयत्न की बदौलत सफलता की प्रथम कडी मे जाकर खुद को सीधे - सीधे जोड कर समाज की मुख्यधारा जुड जाने वाले प्रियंवदा पाण्डेय जैसे प्रेरणामयी चरित्र कभी - कभी ही पैदा होते हैँ, साथ ही ऐसे चरित्र की आत्मकथा लिखने का सौभाग्य भी कभी - कभी ही किसी लेखक को मिलता है ! 

यहाँ कहना उचित होगा की लेखक विभांशु जोशी एवम लेखक भारद्वाज अर्चिता एक साथ मिलकर 94 वर्षीय सम्मानित वयोवृद्ध चरित्र प्रियंवदा पाण्डेय जी की आत्मकथा को लिखते हुए अब उन्ही सौभग्यशाली लेखकोँ मे शामिल हो गए है जिन्हे शून्य पर खडा होकर अभाव से दो - दो हाथ करते हुए, सफलता पूर्वक अपनी सफलता तय करने वाले परिवर्तनकारी चरित्र की आत्मकथा लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता है ! 

बडे घर, बडे शहर मे तो रोज असँख्य चमचमाती हुई प्रतिभाएँ जन्म लेती रहती हैँ और उनकी जीवनी, उनकी आत्मकथा, लिखने की होड दुनिया भर के लेखकोँ के बीच चलती रहती है ! लेकिन हमे उस होड, उस प्रतिभा के पीछे कलम लेकर भागने से कही बेहतर लगी भारत के अभावग्रस्त छोटे से गाँव जमनीपुर की माँटी मे 5 जुलाई  वर्ष 1925 को जन्मी वह जीवट बेटी जिसने छोटे से गाँव जमनीपुर के अभाव को कभी अपनी प्रतिभा के आडे नही आने दिया और विषम परिस्थिति मेँ, सुविधाओ के नितान्त अभाव मे, समाज के असहयोगात्मक व्यवहार को दरकिनार करते हुए, गैरबराबरी का दँश झेलते हुए भी शून्य पर खडी होकर शिक्षा का लैम्प पकडा, विपरित दौर मे शिक्षा अर्जन का कार्य किया,! ऐसे दौर, ऐसे समाज मे शिक्षा हेतु खुद की उपस्थिति दर्ज कराया जिस दौर मे पुरूषो के बीच भी शिक्षा 2 प्रतिशत से अधिक नही थी ! 5 वर्ष की उम्र मे माता - पिता की ममता से मरहूम जमनीपुर गाँव की इस अनाथ मेधा ने समाज को यह बता दिया कि माता - पिता का सानिध्य हमारे साथ आजीवन नही रह सकता लेकिन केवल शिक्षा का लैम्प ही एक ऐसा स्वस्थ माध्यम है जो जीवन पर्यन्त हमारे साथ बना रहता है, और समाजिक असमानता, व्यवहारिक असमानता, स्त्री - पुरूष के बीच की असमानता, एवम गाँव - शहर के भाव - अभाव की असमानता को मिटा कर समानता का स्वस्थ वातावरण तैयार कर सकता है ! देश, समाज, परिवार, की उन्नति का वाहक बन सकता है ! 

हमारे देश, समाज, गाँव, की किसी भी बेटी को प्रियंवदा की तरह समाज मे सशक्त रूप स्थापित कर सकता है ।

हमारे समाज मे अभाव से जूझ रहे हर उस माता - पिता के लिए प्रियंवदा पाण्डेय जैसी बेटियाँ गौरव का परिचायक होती है जिन्होने अभाव मे भी अपनी बेटी के हाथ मे किताबे पकडाने का सपना देखा है और यह चाहा है की शिक्षा के उजियारे से उनकी बेटी का जीवन सँवरे ! उनकी बेटियाँ भी प्रियंवदा की तरह ही समाज के लिए एक ऐसी बेटी बने जिसका आदर्श चरित्र लाखो बेटियो की प्रेरणा बन जाए ! 

हमारे वर्तमान समाज के लिए आदर्श चरित्र, हमारी बेटियोँ के लिए सदैव अनुकरणीय प्रेरणास्रोत प्रियंवदा पाण्डेय जी की इस आत्मकथा का एक - एक पन्ना प्रेरणा से भरा है क्योकि उनके जीवन की एक - एक घटना व्यवहारिक रूप से स्मरणीय एवम प्रेरक है जो उनके चरित्र को इस समाज के लिए आदर्श बनाती है ! यह आत्मकथा लिखकर हमने समाज मे छुपे हुए अनमोल हीरे को समाज के सामने लाने का एक प्रयास किया है ! यह किताब हम इस भाव के साथ अपने समाज, अपने देश, अपने पाठक वर्ग के नाम कर रहे है कि : समाज हित मे यह आत्मकथा केवल एक पुस्तक भर नही बल्कि एक आदर्श माँ को समर्पित प्रेरणामयी, अनुकरणीय प्रार्थना है हमारी तरफ से !! 

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कलम से : 

विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता

किताब पूर्ण होने की तिथि 

30 अगस्त 2019

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

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