09/09/2019 story under correction


                     किताब का नाम : 

        नारी शक्ति की प्रणेता प्रियंवदा पाण्डेय 
       “संघर्ष से सफलता तक की आत्मकथा”

                            लेखक : 
        विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता 

                              { 1 }
इस आत्मकथा को लिखने की पृष्ठभूमि कैसे बनी ?
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प्रयागराज की 94 वर्षीय वयोवृद्ध श्रीमती प्रियंवदा पांडेय पूर्व नारी निकेतन सुपरिन्टेन्डेन्ट वर्ष 1983/ 84 सतना, मध्य प्रदेश की आत्मकथा लिखने हेतु पृष्ठभूमि कैसे बनी ? किताब पढ़ने से पहले हमारे पाठकों के लिए इसे जान लेना जरूरी है ! 

Smiley Live Creations परिवार लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता द्वारा सतना, मध्यप्रदेश  की पूर्व नारी निकेतन सुपरिन्टेन्डेन्ट वर्ष “1983/84” रह चुकी 94 वर्षीय वयोवृद्ध श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की इस आत्मकथा का लेखन महज एक इत्तेफाक नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक स्वस्थ-सुंदर घटना का संयोग - सहयोग जुडा हुआ है ! 

हुआ कुछ यूं की इस वर्ष विश्व मातृ दिवस 12 मई 2019 से स्माइली लाइव क्रिएशन्स परिवार के सदस्य लेखक विभांशु जोशी एवम लेखक भारद्वाज अर्चिता ने संयुक्त रूप से कलमबद्ध करके धरती की शक्तिशाली मातृ शक्ति को समर्पित एक कहानी श्रंखला शुरू किया जिसे नाम दिया “ माँ तेरा आँचल जो हमेशा साथ रहता है ” इस कहानी श्रंखला के अंतर्गत विपरित परिस्थिति मे भी अपने सतत-साकारात्मक प्रयास से परिवार, परिवेश, परिस्थिति एवम प्रकृति के भी विरूद्ध जाकर अपनी संतान, अपने बच्चों की सफलता तय करने वाली दुनिया भर की उन महान माँ द्वारा किए गए सहयोग, त्याग, समर्पण, एवम विश्वास की सच्ची कहानी का सुनियोजित लेखन किया गया है जिन्होने दुनिया को अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए, अपने निज सहयोग, निज प्रयास से अपनी संतान की प्रतिभा को पहचानकर उसे समाज के लिए सहयोगी बनाने मे, एक ख्यातिलब्ध चरित्र के रूप मे मूर्त करते हुए स्थापित करने मे, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, और आज जिन्हे विश्व मानचित्र पर किसी न किसी महान विभूति, महान संतान, की माँ होने का गौरव प्राप्त है ! 

अपनी इस सच्ची कहानी श्रंखला को हमने पूरे एक वर्ष मे पडने वाले प्रत्येक रविवार को सोशल मीडिया के जरिए अपने पाठकों तक पहुँचाने का निर्णय लिया ! जैसा की एक वर्ष मे 48 रविवार होते है अत: हमने वक्त के पन्नो मे दबी विश्व की ऐसी विशेष 48 महान  मातृ-शक्ति का चरित्र चुना जिन्होने बिना किसी अन्य के सहयोग के, स्वयम निरा शून्य पर खडा होने के बावजूद भी परिस्थिति की सारी दुश्वारियों को दरकिनार करते हुए अपने बच्चों को अपने दम पर दुनियाँ मे कामयाब बनाया और वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाया ! 

चूंकि हमारी इस श्रंखला मे कुल कहानी 48 है, इसलिए हमने बीते विश्व मातृ दिवस 12 मई 2019 दिन रविवार (Sunday) से बच्चो एवम माँ के लिए प्रेरणास्रोत के रूप मे सप्ताह के प्रत्येक रविवार को अपनी सोशल मीडिया की साइट पर दुनिया की किसी एक ऐसी कामयाब संतान की कामयाबी की कहानी पब्लिश करने का निर्णय लिया जिसकी कामयाबी विपरित परिस्थिति मे केवल और केवल उसकी माँ के त्याग से तय हुई हो ! साथ ही यह भी निश्चय किया कि आने वाले विश्व मातृ दिवस ( मदर्स डे ) 2020 के अवसर पर इस कहानी श्रंखला को एक किताब का रूप देते हुए स्वस्थ समाज - निर्माण के सरोकार से जोडकर हमारे राष्ट्रनिधि बच्चों के चरित्र निर्माण हेतु अपने देश - समाज को नि:शुल्क सौंप देंगे ! 

अपने उपरोक्त उद्देश्य के साथ हमने इस वर्ष के प्रथम रविवार 12 मई 2019 को पडने वाले विश्व मदर्स डे के अवसर पर लम्बे समय से किए गए स्वयम के  सतत प्रयास, छान - बीन, खोज, एवम तर्क - मन्थन, के आधार पर इसकी पहल किया और विशेष रूप से  लेखन कार्य के लिए बनाए गए अपने निजी मजबूत प्लेटफार्म Smiley Live Creations के तहत अपनी प्रथम कहानी अपने पाठकों के लिए सोशल मीडिया साइट पर परोसा ! 

नित पाठकों की घटती संख्या के समय में हमारे लिए यह एक बडी उपलब्धि रही कि पाठकों द्वारा विशेष कर युवा पाठक, महिलाओँ एवम टीनएजर्स द्वारा हमारी इस कहानी को सोशल मीडिया पर खूब पढ़ा और सराहा गया, कुछ पत्र - पत्रिकाओँ ने हमे अपने यहाँ हमारी इस कहानी श्रंखला को पब्लिश करने का न्योता भी दिया जो की हमने स्वीकार नही किया, क्योकि इस कहानी श्रंखला को लेकर हमारा उद्देश्य बिल्कुल अलग तरह का है ! पाठकों ( विशेष रूप से महिलाओँ  ) द्वारा मिले प्रोत्साहन से हमे इतना स्वस्थ आत्मबल मिला है की हम इसमे बेहतर से बेहतर चरित्र का उल्लेख करते जा रहे है ! कभी नार्वे मे रह रहे किसी भारतीय डाक्टर दम्पति ने मेसेन्जर मे मैसेज भेजकर बधाई देते हुए अपनी शुभकामना भेजी, साथ ही नार्वे मे रह रहे अप्रवासी भारतीय परिवार एवम उनके बच्चों के बीच हमारी इस कहानी श्रंखला के अन्ततर्गत लिखी गयी कहानी का पाठ करने के लिए नार्वे आने का बुलावा भेजा ! तो कभी डेनमार्क “Denmark” मे रह रहे भारतीय मूल के इंजीनियर दम्पति नूपुर सिंह एवम परिवार का मैसेज आया की  “ आपके Smiley Live Creations का डेनमार्क मे हमारे तरफ से आमन्त्रण है ! हम सब चाहते है आपका Smiley Live Creations परिवार डेनमार्क आए और हमारे भारतीय मूल के परिवार के बीच अपनी कहानी का पाठ करे,!”

देश - विदेश से आ रहे पाठकों के यह न्योते जब हमारी कलम को बेहतर करने मे लगे हुए थे और हमारी कहानी लेखन का सिलसिला स्वस्थ तरीके से आगे बढ़ने में लगा हुआ था कि इसी बीच इलाहाबाद ( वर्तमान प्रयागराज ) के अल्लापुर मुहल्ले से जून माह मे एक दिन हमारे एक रेगुलर पाठक इंजीनियर विनोद पाण्डेय जी का हमे फोन आता है और माँ को समर्पित हमारी कहानी श्रंखला की तारीफ करते हुए वह हमसे पूछते हैँ : आप लोग यह कहानी श्रंखला किस उद्देश्य से चला रहे है ? 

उनके लिए हमारा जवाब था “ बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए हम एक ऐसी नि:शुल्क किताब ले आना चाहते है जो हमारे वर्तमान समाज मे बच्चों के बीच हो रहे मूल्यों के क्षरण को रोकने का वाहक बनेगी, साथ ही हजारों - हजार माँ के लिए प्रेरणा का काम करेगी !  

हमारा जवाब सुनने के बाद इंजीनियर विनोद पाण्डेय ने कहा “ आप लोगो के Smiley Live Creations की इस सुंदर पहल को पढ़ते हुए मुझे एक दिन ऐसा लगा की मेरे साथ रह रही मेरी 94 वर्षीय माँ प्रियंवदा पांडेय जी का जीवन चरित्र भी आप लोगो की कलम से लिखी जा रही विश्व की 48 महान माँ के चरित्र मे से ही एक चरित्र है, अत: आप लोगोँ से मेरा आग्रह है कि आप मेरी माँ के जीवन की सच्ची कहानी एक बार जरूर मुझसे सुने और मेरी माँ के द्वारा संघर्ष से सफलता तक तय किए गए सफर की सच्ची कहानी पर भी अपने Smiley Live Creations की ओर से एक किताब लिखे साथ ही किताब लिखने हेतु अपनी फीस भी बताएँ ।” 

काम की व्यस्तता के चलते हमने इंजीनियर विनोद पाण्डेय से कहानी सुनने के लिए कुछ रोज का वक्त माँगा, दो सप्ताह बाद एक दिन पुन: उनका फोन आता है और हमे लगा की उनकी माँ की कहानी हमे सुननी चाहिए अत: हमने उनकी माँ की कहानी सुनना आरम्भ किया चूँकी उनकी 94 वर्षीय माँ का सतत संघर्ष बहुत लम्बा था इस लिए हमने एक दिन मे नही नही बल्कि पूरे एक सप्ताह भर मे उनकी कहानी बडे गौर से सुना !

कहानी सुनने के बाद हमे लगा की वर्ष 1925 के ब्रिटिश कालीन भारत मे पैदा हुई उनकी माँ के संघर्ष से सफलता तक की कहानी वाकई जज्बा और प्रेरणा की अथाह गहराई से भरी हुई नारी सशक्तिकरण की मिशाल है ! हमे उसपर गम्भीर होकर किताब लेखन के लिए सोचना चाहिए । बाद इसके हमने ( लेखक विभांशु जोशी एवम लेखक भारद्वाज अर्चिता ने ) इसके बाबत आपस मे गहन विचार मंथन किया और इंजीनियर विनोद पाण्डेय जी से कहानी के मैटर सहित लिखित प्रपोजल लेटर माँगा ! साथ ही उनके सामने अपनी यह शर्त भी रखा कि: हमारा Smiley Live Creations    परिवार बच्चों के चरित्र निर्माण से लगायत परिवार, समाज, किशोरवय युवाओँ एवम बच्चों के लिए अपने सामाजिक सरोकार के तहत अनेक स्वस्थ विषय पर नि:शुल्क लिखता है अत: आपके लिए भी हमारे Smiley Live Creations परिवार की एक शर्त है वह शर्त यह है की आपकी माता जी की आत्मकथा हम नि:शुल्क लिखेंगे, जिसका जिक्र आपके प्रपोजल लेटर मे रहेगा ! इस किताब को पब्लिश करवाने की पूरी जिम्मेदारी आपकी होगी हम केवल आपके दिए गए मैटर और स्रोतो से हासिल जानकारी के आधार पर यह किताब लिखेँगे ! इस किताब को लिखने का हमारा उद्देश्य केवल समाज को प्रेरणा देने वाली, विपरित परिस्थिति मे खुद को साबित करने वाली एक अदम्य सफल चरित्र महिला के चरित्र को उसकी आत्मकथा के रूप मे स्वस्थ्य तरीके से समाज के सामने प्रेरणा स्वरूप मे रखना है। इस किताब से अर्जित किए गए धन से हमारे Smiley Live Creations परिवार का कोई लेना - देना नही होगा, ना ही हमे इससे धन अर्जित करने की कोई जरूरत है ! अगर आपको हमारी यह शर्त मंजूर हो तो आप हमे यथासिघ्र प्रपोजल लेटर भेजे ! 

उपरोक्त बातचीत के बाद जुलाई माह के प्रथम सप्ताह मे हमे मैटर सहित लिखित प्रपोजल लेटर प्राप्त हुआ जिसके तहत हमने 94 वर्षीय श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की आत्मकथा पर किताब लिखना आरम्भ किया! किताब की केन्द्र चरित्र श्रीमती प्रियंवदा पांडेय सहित उनके परिवार के सभी सदस्योँ की पूर्ण सहमती के साथ हमने किताब को नाम दिया : 
           नारी शक्ति की प्रणेता प्रियंवदा पांडेय
         “संघर्ष से सफलता तक की आत्मकथा,” 

और किताब को नाम देने सहित पूरी किताब लिखकर छपायी कार्य सम्पन्न करवाने हेतु दिनाक 30 अगस्त 2019 को इसे अपनी मेल आई० डी० के माध्यम से इंजीनियर विनोद पांडेय जी को सौप दिया !  

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                 लेखक की कलम से :  
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साथियों एक निश्चित तय समय में 94 वर्ष की उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में जन्मी सशक्त नारी श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी के विशाल जीवन को कागज के पृष्टों में कलम से लिखना हमारे Smiley Live Creations के लिये एक बड़ी चुनौती थी।

क्योकि हमे एक ऐसी महिला की आत्माकथा लिखनी थी जिनके लंबे जीवन काल मे अनेक चुनौतियां आयी, जिसपर उन्होंने अपने बुद्धि , विवेक और साहस से सफलता प्राप्त की। हमे पता है उनके संघर्ष की यह कहानी भारत की समस्त नारी शक्ति को प्रेरणा देने का महत्वपूर्ण कार्य करेगी।

हम जब इस आत्मकथा को लिपिबद्ध कर रहे थे तो हमारे सामने विपरित परिस्थिति मे घोर अभाव के शून्य पर स्वत: खडी होकर मात्र निज आत्मबल के सहयोग से नारी सशक्तिकरण का ज्वलन्त उद्दाहरण चुपचाप समाज के सामने रख देने वाले उनके व्यक्तित्व मे सशक्त नारी और मातृशक्ति के सँयुक्त दृश्य स्पष्ट बन रहे थे।

एक ऐसा नारी चरित्र जिसने जीवन के हर पक्ष में अपनी भूमिका का सफलता पूर्वक निर्वहन किया। उन्होंने शासकीय कार्य के उचित निष्पादन में कई बाधाओं का सामना किया लेकिन अपने कर्तव्यनिष्ठ मार्ग से कभी विचलित नही हुई।

उन्होंने अपनी इच्छा शक्ति से सफलता ऐसे समय मे प्राप्त की जिस समय महिलाओं को सीमित अधिकार और सुविधाए थी। तथा कार्यस्थल में महिलाओं की सुरक्षा के लिये कोई कानून भी नही था।

हम श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की शक्ति को प्रणाम करते हुए यह आत्म कथा लिख रहे है। हमे पूरा विश्वास है कि यह पाठकों के आत्मबल को बढ़ाएगी और प्रेरित भी करेगी।

यह हमारा एक छोटा सा सार्थक प्रयास है। आशा है हमारा प्रयास सभी को पसंद आएगा। इसी कड़ी में हमारी अगली पुस्तक दुनिया की 48 यशस्वी माताओं की कथा होगी जिन्होने संघर्ष के बावजूद अपने बच्चों को प्रतिष्ठित बनाया।
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शुभकामनाओं सहित :
लेखक विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता॥
         

                             { 3 }
प्रियंवदा के बचपन से बाल विवाह तक की कहानी :
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भारत की आजादी के 22 साल पूर्व उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में 5 जुलाई 1925 को अभाव की खुरदरी जमीन पर, घोर असमानता एवम चरम भेद - भाव के वातावरण में उम्मीद की लहलहाती फसल के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी पंडित टीकाराम त्रिपाठी के सुपुत्र पंडित श्री भानु प्रताप त्रिपाठी एवम बहु श्रीमती चन्द्रकली देवी के घर दो बड़े बेटों पंडित जयराम त्रिपाठी, पंडित हरिराम त्रिपाठी के जन्म के लम्बे अन्तराल बाद एक प्रतिभावान बेटी का जन्म हुआ, दो भाइयों के बाद जन्मी यह बेटी घर -  परिवार मे सबकी लाडली थी, विशेष रूप से अपने दोनों बडे भाइयों की,!

माँ - बाप ने बडे स्नेह के साथ बेटी का नाम रखा प्रियंवदा ! बेटी का नाम प्रियंवदा जरूर रखा गया, बेटी पूरे परिवार की लाडली भी जरूर थी, पर अपने उस तत्कालीन भारतीय सनातन परिवार एवम समाज की कुत्सित कुप्रथा वाली परम्परा से अछूती नहीं थी, जो कि हजार - हजार साल के बाह्यय आताताई आक्रमण के बाद उदार भारतीय सनातनी हिन्दू परिवारों
मे भयवस पनपी थी ! परिणाम स्वरूप प्रियंवदा भी जन्म से ही बेटियों वाले उस भेदभाव की शिकार हुई जो अन्य सनातनी, हिन्दू परिवारों की बेटियों के साथ घट रहा था, हो रहा था, यथा उस वक्त के अन्य हिन्दू परिवारों की तरह ही इस बच्ची के जन्म पर भी घर मे न बधावा बजा, न सोहर की स्वर लहरी गूँजी, ना ही मंगल गीत गाए गए। बेटी के जन्म की अपार खुशी होते हुए भी उस खुशी को जाहिर कर सकने की  यह परिवार हिम्मत न दिखा सका !

कहते है अतीत का इतिहास वर्तमान को लम्बे वक्त तक अपने चपेटे मे लिए रहता है यहाँ भी हमारे तत्कालीन सनातनी परिवार, समाज, मे स्थिति कुछ ऐसी ही थी ! अतीत मे हमारी बहू, बहन, बेटियों के साथ विधर्मी संस्कृति के संरक्षकों ने बालात जो किया था उस जघन्यता की परछाई के रूप मे 1925 के ब्रिटिश कालीन गुलाम भारत मे भी प्रदा प्रथा, बाल विवाह, जन्म के समय बेटी की निर्मम हत्या कर देने का रिवाज पूरी सख्ती से एक चलन के रूप में विद्यमान था !

मध्ययुगीन कुप्रथा का यह मलवा गुलामी से मुक्ति हेतु आजादी की अँगडाई लेते हमारे भारत देश मे एक जख्म की तरह हमारी बहन - बेटियोँ को प्रभावित कर रहा था जिसकी वजह से सनातनी हिन्दू परिवारों के साथ - साथ 1925 के अन्य भारतीय परिवारों मे भी बेटी का जन्म लेना अपार सोग, कष्ट, दुख का गम्भीर विषय माना जाता था !

खैर अपने लिए तैयार इस विपरित वातावरण में अति विलक्षण बच्ची प्रियंवदा माँ - बाप, बडे भाईयोँ के अनुराग की छाँव तले एक - एक दिन बडी हो रही थी कि : इसी बीच उसके बाल जीवन मे एक दर्दनाक अनहोनी हुई और 5 वर्ष की नन्ही उम्र मे ही उसके सिर से माता - पिता की छत्रछाया उठ गई और नन्ही बच्ची  प्रियंवदा अनाथ हो गयी !

माता - पिता की अचानक हुई मृत्यु ने उस अबोध बच्ची को सदमे की चपेट मे ले लिया जिसके चलते वह बहुत शान्त रहने लगी ! बहन को लगे इस सदमे की वजह से बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी एवम पंडित हरिराम त्रिपाठी बहुत दुखी हो गए । उन्हे यह बात गँवारा नही थी कि उनकी लाडली बहन माता-पिता की असमय हुई मौत से मिले सदमे की जीवन भर के लिए शिकार होकर रह जाए,! अत: दोनो भाईयों ने माता - पिता का स्थान लेते हुए अपनी बहन की परवरिस पर अपने आप को पूरी तरह केन्द्रित कर दिया ! चूंकि बड़े भाई पंडित जय राम त्रिपाठी युवा अवस्था मे ही आजादी की लडाई के पैरोकार बन गए थे और अपने आपको स्वतंत्रता सेनानी के रूप मे देश सेवा मे लगा दिए थे जिसकी वजह से उनके पास समय का अभाव था ! पर जितना भी समय देश सेवा से बचता वह सारा समय बहन की परवरिस के नाम होता था !

माता - पिता की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों, पटिदारों, पडोसियों के बीच प्रियंवदा एक अनाथ के रूप मे सहानुभूति की पात्र तो जरूर बनी पर केवल मुँह से, केवल वाह्य दिखावे से ! क्योंकि बच्ची के लिए उनके भीतर दिली सहानुभूति तो लगभग न के बराबर ही थी !

नन्ही प्रियंवदा अपनी अबोध उम्र के स्वभाव अनुसार दिन भर इधर-उधर घूँमती, खाती-पीती, आस-पडोस के बच्चों संग खेलती-कूदती, रहती इससे ज् ! अभी तक शिक्षा जैसे विषय से इस बच्ची का दूर - दूर तक का कोई नाता नही जुडा था !

उस वक्त की तत्कालीन भारतीय सामाजिक एवम पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार शायद शिक्षा का प्रियंवदा के जीवन से भविष्य मे भी कोई वास्ता होना भी असम्भव ही था, क्योकि उस वक्त तक हमारे भारतीय समाज मे बेटी का मतलब शिक्षा अर्जन करना नही था, बल्कि चूल्हे - चौके, घर - परिवार की देखभाल तक ही बेटी का दायरा सिमित किया गया था ! बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी भी बहन को लेकर शिक्षा की इसी परिपाटी के पैरोकार थे वह भी कही से इस बात के हिमायती नही थे कि प्रियंवदा के जीवन मे स्कूली शिक्षा की अलख जगे! बडे भाई की यह सोच अपनी एकलौती लाडली बहन प्रियंवदा के लिए बडे भाई द्वारा की गयी कोई साजिश नही थी बल्कि उस समय के तात्कालिक भारतीय परिवेश का ही परिणाम थी, क्योकि उस वक्त हमारे भारतीय घरो मे स्त्री शिक्षा एक तरह से वर्जित थी ! जबकि काफी समय पहले ब्रह्म समाज द्वारा राजा राम मोहन राय की अगुआई मे भारत मे स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सारी क्रान्तिकारी पहल की जा चुकी थी, एवम सामाजिक नवचेतना के द्वारा स्त्री शिक्षा को उन्नत अवस्था मे लाने के लिए ब्रह्म समाज द्वारा अनेक आन्दोलनकारी नीतियाँ भी बनायी गयी थी,  पर वह जमीनी स्तर पर सफल न हो सकी थी जिसके चलते स्त्री शिक्षा के प्रति हमारे भारतीय समाज का उदार होना अभी शेष रह गया था !

कहते हैं ना कि : नियति के आगे समाज एवम समय दोनो का खडयन्त्र सदैव बौना साबित होता है कुछ ऐसा ही सँयोग 5 वर्षीय अबोध-अनाथ बच्ची प्रियंवदा के जीवन मे भी घटा, एक दिन जब वह पडोस के बच्चो के साथ घर के दरवाजे पर खेल रही थी ठीक उसी वक्त एक बाह्यय अजनबी, उच्च शिक्षित, व्यक्ति का उसके घर पर आगमन हुआ, वह अजनबी व्यक्ति दरवाजे पर बच्चो के साथ खेल रही बच्ची प्रियंवदा के खेल कौशल एवम खेल के दौरान बच्ची द्वारा प्रयोग किए जा रहे विलक्षण नियंत्रण कौशल को बडे गौर से देख रहे थे काफी देर तक उस नन्ही बच्चा की विलक्षणता को देखते रहने के बाद वह अजनबी व्यक्ति पास मे ही खडे पंडित जयराम त्रिपाठी के पास आकर उनसे एक दो टूक सीधा सा प्रश्न किया यथा : सर यह नन्ही बच्ची क्या आपकी बेटी है ? 

पंडित जयराम ने जवाब दिया : जी नही यह मेरी छोटी बहन है पर मेरे लिए मेरी बेटी जैसी ही है ! 

अजनबी ने फिर सवाल किया यथा : 
क्या आप इसे स्कूल भेजते है ? 

भाई पंडित जयराम त्रिपाठी अजनबी का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले : बेटियोँ को स्कूल भेजने का रिवाज जब हमारे परिवारो मे नही है तो फिर मै भला इसे स्कूल कैसे भेज सकता हूँ ? 

अजनबी ने फिर पूछा : अगर स्कूल भेजना हो तो ? 

जयराम तिवारी फिर मुस्कुराए और बोले इसे स्कूल भेजने की आखिर जरूरत ही क्या है ?
यही कोई 5 से 7 साल बाद व्याह करके अपने ससुराल चली जाएगी जब तक शादी नही हुई है तब तक के लिए हमारे पास एक अमानत के रूप मे है ! आखिर पढ़ - लिख कर कौन सा इसे कलेक्टर बनना है या नौकरी करनी है, ? शादी करके ससुराल जाएगी, अपना घर - परिवार देखेगी, सुनेगी, आखिर हमारे समाज मे लड़कियों के लिए यही तो दायरा तय किया गया है ना !? 

मेरी वर्तमान परिस्थिति भी ऐसी नही है कि “अगर मै अपनी वैचारिक उदारता दिखाकर इसे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजना चाहूँ तो भेज सकूँ । दूसरी बात यह की हमारे गाँव मे कोई स्कूल भी नही है ? यह सब बाते अजनबी से कहते - कहते पंडित जयराम त्रिपाठी घर के तात्कालिक हालात का मुआयना करते हुए थोडे भावुक हो गए ! पंडित जी की बाते सुनकर वह व्यक्ति बोला सर जो प्रतिभा मै इस बच्ची मे देख पा रहा हूँ आप सब शायद उसे नही देख पा रहे है ! इस बच्ची मे विलक्षण प्रतिभा भरी है, इसके जीवन मे अगर शिक्षा की अलख जगायी गयी तो निश्चित रूप से यह बच्ची समाज मे कुछ विशेष करेगी ! अजनबी से फिर पंडित जयराम त्रिपाठी ने दुहराते हुए कहा मुझे क्षमा करे श्रीमान मेरी हैसियत नही है ! पंडित जी की यह बात सुनकर वह अजनबी व्यक्ति पंडित जी के सामने एक प्रस्ताव रखता है यथा : पंडित जी अगर आप बच्ची को स्कूल भेजने के लिए तैयार हो तो मेरी जानकारी मे एक ऐसा स्कूल है जहाँ बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है, साथ ही कॉपी, किताब, कपडा, रहना, खाना, दवा, भी निःशुल्क  है ! बच्चे को दी जाने वाली शिक्षा का कोई दबाव बच्चे के परिवार पर नही होता है !

अजनबी की यह बात बडे भाई को भा गयी तुरन्त उन्होने अजनबी से उस स्कूल का पता पूछा और विस्तार से जानना चाहा कि कहां बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाती है ? अजनबी को अपनी पहल मे कामयाबी नजर आई तो उसने उत्साह पूर्वक स्कूल का पता कुछ इस तरह पंडित जी को नोट करवाया : “ प्राथमिक विद्यालय ककरा ” जो की जमनीपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था !

अजनबी और भाई के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था की इसी बीच वह 5 वर्षीय बच्ची प्रियंवदा भाई के बगल में आकर खड़ी हो गई थी ! भाई एवम अजनबी के बीच चल रही अबुझ सी उस चर्चा में खुद का भी शामिल होना कुछ - कुछ समझ रही थी ! वह बहुत कौतुहल बस उस अजनबी शुभचिन्तक की बाते सुन रही थी और एक प्यारी सी मुस्कान के साथ एकटक उसकी तरफ देखे जा रही थी ! शायद उसके बालमन पर कुछ शुभ होने का अमिट चित्र उभर रहा था और आँखो मे अपार निश्छल किन्तु परिवर्तनकारी चमक तैर रही थी !

बडे भाई को जब अजनबी की बातें पूरी तरह समझ में आ गयी तो उन्होने अगले दिन उस स्कूल मे तहकीकात के लिए जाने का आश्वासन देते हुए अजनबी को विदा किए और सारी बात अपने से छोटे भाई पंडित हरी राम से रात मे साझा करते हुए अगली सुबह ककरा नामक स्थान पर जाकर स्कूल के प्रचार्य से मिलने का प्लान बनाए ।

अगली सुबह दोनों भाई निश्चित समय पर ककरा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे और प्रचार्य से मिलकर जानकारी प्राप्त किए ! जब पूरी जानकारी अजनबी के बताए अनुसार ही सत्य साबित हुई तब घर आए और ककरा प्राथमिक विद्यालय मे बहन को एडमिशन “दाखिला” दिलाने का निर्णय लेते हुए दो दिन बाद बहन को लेकर स्कूल पहुँच गए !

इस प्रकार स्कूल से बच्ची प्रियंवदा का प्रथम साक्षात्कार हुआ। बडे भाईयों से बिछडने का दर्द 5 वर्षीय नन्ही प्रियंवदा को जितना हो रहा था उससे कही ज्यादे दर्द दोनों बडे भाईयों को भी बहन से बिछडने का हो रहा था पर निश्चिन्तता इस बात की थी की बहन के जीवन मे शिक्षा की अलख जग रही थी अत: दोनों भाईयों ने खुशी - खुशी यह बडा त्याग करना स्वीकार कर लिया ! 

कहते है बेटियां पैदाइशी ही जूही, चंपा, हरसिंगार, के फूलों की तरह अप्रतिम सुगंध की स्वामिनी होती हैं, इन्हे स्नेह, सहयोग,तरक्की और विश्वास की हवा का जरा सा स्पर्श मिल जाए तो यह पूरे समाज को अपनी सुगंध से महका देने की कूबत रखती हैं ! वर्ष 1930 मे 5 वर्षीय अबोध बच्ची प्रियंवदा के साथ भी ऐसा ही हुआ।

माँ - बाप छत्रछाया से मरहूम बच्ची को जब शिक्षा का लैम्प मिला तो उसने अपने जीवन मे स्वयम उजियारा फैलाना शुरू कर दिया ! पांचवी कक्षा तक वह विद्यालय एवं जिला स्तर पर अव्वल नम्बर से अपनी कक्षा मे टाप करती रही ! गणित,अंग्रेजी,संस्कृत,हिन्दी सभी विषय पर मजबूत पकड रखने वाली प्रियंवदा को पांचवी कक्षा मे जिले मे टाप करने के लिए उस जमाने में स्कॉलरशिप मिली थी । उस दौर मे किसी लडकी का पढाई मे इतना मेधावी होना निश्चित रूप से आश्चर्यजनक बात थी, किन्तु प्रियंवदा थी ही इतनी होनहार की उससे कुछ भी विलक्षण करने की उम्मीद की जा सकती थी ! प्रियंवदा की इसी विलक्षण मेधा को देखते हुए शिक्षा विभाग द्वारा आगे आठवीं क्लास तक की भी उसकी पूरी पढाई नि:शुल्क कर दी गयी थी, जिसके तहत छठी क्लास में प्रियंवदा का दाखिला राजकीय जूनियर हाई स्कूल जो उस वक्त ( महिला सेवा सदन ) के नाम से चलाया जाता था में हुआ, यहाँ भी प्रियंवदा ने सफलता की इबारत लिखे और छठी क्लास से लेकर आठवी क्लास तक की अपनी पढ़ाई मे भी एक मेधावी छात्रा के तौर पर ही पूरी की ! हर क्लास मे अव्वल आने पर जिला स्तर पर प्रति वर्ष उसे सम्मानित किया जाता था एवम स्कालरशिप भी दी जाती थी ! प्रचार्य ने प्रियंवदा के अविभावक “बडे भाई” से स्पष्ट कह दिया था इस बच्ची की आगे की पढ़ाई जारी रखवाइए क्योंकि इसकी मेधा असाधारण है, यह बहुत आगे जाएगी !

किन्तु आठवी कलास की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही प्रियंवदा के जीवन मे एक अनोखी घटना घटी, हुआ यों की बडे भाईयों द्वारा आगे की पढ़ाई रोक कर बहन का विवाह तय कर दिया गया ! पढ़ाई रूकने से प्रियंवदा एवम उनके स्कूल के प्रचार्य सहित शिक्षक भी काफी  दुखी थे ! प्रियंवदा और शिक्षक की प्रबल इच्छा होने के बावजूद उनकी आगे की पढ़ाई जारी न रखी जा सकी और वर्ष 1940 के तात्कालीन भारतीय सामाजिक, पारिवारिक, व्यवस्था के अनुरूप 13 वर्ष की छोटी उम्र मे प्रियंवदा का बाल विवाह कर दिया गया !

उस वक्त राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज के नियम के लिहाज से 13 वर्ष की उम्र मे किया गया किसी बच्ची का विवाह बाल विवाह के अन्तर्गत ही आता था ! किन्तु उस समय के भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप जब 9 या 10 वर्ष की अवस्था मे बेटी का विवाह करने का रिवाज था, ऐसे मे लोगो की नजर मे प्रियंवदा की 13 वर्ष की उम्र भी ज्यादा उम्र करार दी जा रही थी !

13 वर्षीय प्रियंवदा स्वयम राजा राम मोहन राय के ब्रह्म समाज की नीतियो से भलिभाँति परिचित थी पर वह स्वयम के इस बाल विवाह का विरोध न कर सकी यह सोचते हुए कि माता-पिता के न होने पर भी दोनो भाई मिलकर उनकी बेहतर परवरिस किए, विरोधी परिवेश मे भी दोनो भाईयो ने उन्हे शिक्षा का प्रकाश दिया, माता-पिता की मौत के बाद उनपर मेरे विवाह की बडी जिम्मेदारी थी और उन्होने मेरा विवाह करके अपनी अहम जिम्मेदारी निभाया है !

इस प्रकार प्रियंवदा का विवाह वर्ष 1940 मे प्रियंवदा की पढ़ाई रोककर 13 वर्ष की छोटी सी उम्र मे इलाहाबाद जनपद के ग्राम बरबोली, तहसील सोरांव, के एक इज्जतदार, संभ्रांत, गँवई पृष्ठभूमि वाले ब्राह्मण परिवार में प्राथमिक विद्यालय मे प्राचार्य श्री कृष्णानंद पांडेय के बड़े बेटे श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ समपन्न हुआ !   
                 
                             { 4 } 
विवाह के बाद ससुराल का वातावरण, वर्ष 1940 से वर्ष 1942 दो वर्ष तक ससुराल मे रहने का अनुभव, एवम 1942 मे पति के सहयोग से प्रथम नौकरी मिलने के साथ ही ससुर पंडित कृष्णानंद पाण्डेय द्वारा घर से बेदखल किए जाने की घटना एवम प्रियंवदा :
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वर्ष 1940 मे जब प्रियंवदा पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ विवाह वन्धन मे बधकर प्रियंवदा त्रिपाठी से प्रियंवदा पाण्डेय के रूप मे परिवर्तित होकर ससुराल बरबोली आयीँ तो उम्र बडी न होने के कारण आँखो मे कोई ऐसे सपने भी नही थे जो ससुराल मे पूरे न हो सके ? अपनी पीढ़ी की घर की पहली बडी बहू होने के नाते ससुराल मे प्रियंवदा सास, ससुर, देवर, ननद, नात - रिश्तेदार, सबकी लाडली थी !

चूँकि प्रियंवदा का विवाह प्रयागराज के एक गँवई पृष्ठभूमि मे रचे - बसे संयुक्त, संभ्रांत ब्राहम्ण परिवार में हुआ था अत: उस दौर की परम्परा के अनुसार परिवार की इज्जत के लिहाज से घर की बहू का ज्यादे पढ़ना - लिखना कोई बहुत मायने नही रखता था ! उस दौर मे घर मे पुरूष प्रधानता होने के कारण आगे की पढ़ाई जारी रख पाना भी सम्भव नही था इसलिए 13 वर्षीय प्रियंवदा भी उसी माहौल मे रचने बसने लगी जो उस घर की अन्य महिलाओ के लिए पूर्व से ही तैयार था यथा रसोई घर से लगायत बच्चो बडों की देखभाल करना खाना बनाना खिलाना बाकी समय बचा तो आपस मे घर की महिलाओ के साथ बात चीत करना !
गम्भीर मुद्दों पर घर की औरतों का विचार कोई मायने नही रखता था फैसले लेने के अधिकार केवल पुरूषों को ही थे ! औरतों का दायरा घर की दहलीज तक सिमित था ! 

प्रियंवदा पढ़ाई में मेधावी छात्रा रही हैँ यह बात पति श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को पता थी ।
दो साल 1940 से 1942 पत्नी के साथ गुजारने के बाद वह इस बात से भी परिचित हो चुके थे की उनकी पत्नी मे धैर्य, सहनशक्ति, और उदारता कूट-कूट कर भरी है !
वह जान चुके थे कि उनके पूरे परिवार को साथ लेकर चलना, सबकी तरक्की की बात सोचना उनकी पत्नी का विशेष गुण है जो उन्हे औरों से अलग साबित करता है ! चूँकि वह स्वयम अभी अपनी पढ़ाई पूरी करने मे व्यस्त थे इस लिए बाकी कोई और बात उनके दिमाग मे नही थी सिवा प्रियंवदा का सम्मान करने के !

शादी के बाद जब कुछ समय बीता तो एक बेरोजगार पति के जीवन मे जो प्राथमिक समस्याएँ आती है त्रिलोकी नाथ जी भी उससे अछूते न रहे ! सामाजिक रूप से तो उनके परिवार की आर्थिक हालत बहुत उन्नत थी, परिवार का सामाजिक सम्मान भी बहुत था, पर शादी के बाद जैसे - जैसे समय बीतने लगा एक पति के तौर पर  त्रिलोकी नाथ जी के जीवन मे अर्थ की समस्या आने लगी थी ! चूकि अपनी स्वयम की पढ़ाई को भी उन्हे देखना था और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी भी निभानी थी साथ ही उम्र भी इतनी नही थी कि कोई बडा फैसला लिया जाए, कही बाहर जाकर नौकरी करने का सोचा जाए, क्योकि परिवार “ माता - पिता” इसके लिए तैयार नही होते ! घर के बडे बेटे होने के नाते पण्डित जी कुछ समझ नही पा रहे थे की वह इस समस्या का हल कैसे निकाले ? इसी बीच आस - पड़ोस के कुछ एक बड़े - बुजुर्गों ने उन्हे अपना सुझाव देते हुए उनको बताया की त्रिलोकी बेटा तुम्हारी पत्नी तो आठवीं कक्षा तक पढ़ी है ना, और हमने तो सुना है पढ़ने में बहुत मेधावी भी रही है, फिर तुम ऐसा क्योँ नही कर रहे हो की किसी प्राथमिक विद्यालय मे उसकी नौकरी लगवा दे रहे हो ? इस वक्त तो अंग्रेजी हुकूमत भारतीय वैसे भी महिलाओं को शिक्षण कार्य मे नियुक्ति देने हेतु काफी सहयोग कर रही है !

पंडित त्रिलोकी नाथ जी को आस पडोस के अपने बड़े - बुजुर्गों की यह बात भा गई उन्होने बिना पत्नी से इस बाबत कोई जिक्र किए स्वयम ही जाकर सारी जानकारी प्राप्त किया और जब पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए तो नौकरी करने का प्रस्ताव पत्नी के सामने रखा पत्नी सरल स्वभाव की थी अत: उन्हे एक बार के लिए तो पति की कोई बात सही से समझ ही नही आई फिर वह दूबारा पूछी दूबारा पूछने पर जब पति की बात उनकी समझ मे आ गई तब वह बडी शालीनता के साथ पति से बोली इसके लिए पहले आप पिता जी, माता जी, ( सास - ससुर ) से बात करिए अगर नौकरी के लिए उनकी सहमति मिल जाएगी तो मुझे नौकरी करने से कोई इनकार नही है ! लेकिन पहले जाकर आप उनकी सहमति ले लीजिए, क्योँकि अपने बडो की मर्जी के बिना नौकरी करने के बारे मे मै शायद कभी भी तैयार नही हो सकती ! इसपर जब पति ने पूछा अगर हमारे बडे तैयार हो गए तब तो तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होगी ना ? 
पत्नी प्रियंवदा ने जवाब मे कहा अगर वह तैयार हो गए तो मै नौकरी करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ  ! 

पत्नी की इच्छा जानने के बाद पंडित त्रिलोकी नाथ जी ने अपने पिता जी से इस विषय पर चर्चा करने का मन बनाया और अगले दिन पिता के विद्यालय से घर वापस आने के कुछ देर बाद पिता के सामने अपनी बात लेकर हाजिर हुए ! एक ऐसे परिवेश मे पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी पत्नी की नौकरी की बात करने के लिए पिता के सामने खडे थे जब पत्नी की नौकरी को हमारे गुलाम भारतीय समाज मे शर्म और अपमान का विषय ही घोषित कर दिया गया था ! 

खैर हिम्मत जुटाकर पत्नी की नौकरी के लिए पिता से बात करना अभी शुरू ही किए थे कि पिता आग बबूला हो गए बेटे पर बरसते हुए बोले यह विषय लेकर मेरे पास आने से पहले एक बार मेरी इज्जत, मेरे सामाजिक रूतबे का तो खयाल तर लिया होता तुमने, बहू से नौकरी करवा कर परिवार के सम्मान को दाँव पर लगाने और मेरी नाक कटवाने के अलवाँ क्या तुम्हारे पास अब कोई और काम नही बचा है ?
बहू कमाएगी और तुम बैठ कर खाओगे, इससे तो बेहतर होगा की कही जाकर चुल्लू भर पानी मे डूब मरो तुम !
हमारी समझ से तो 1940 के पराधीन भारत मे पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी शायद पहले युवा पुरूष थे जो स्त्री उन्नति के लिए पिता के कोप का भाजन बन रहे थे ! और पिता के गुस्से की परवाह किए बिना ही उनके द्वारा सुनाए जा रहे असँख्य अपशब्द की लताड सहते हुए अपनी बात बिना रके आगे कहते - दुहराते जा रहे थे यथा :
पिता जी इसमे नाक कटने जैसी क्या बात है ?
सरकार विशेष  सुविधा सहित महिलाओँ को यह अवसर जब प्रदान कर रही है तो उसका लाभ लेने मे अनुचित क्या है ?
मुझे तो कोई शर्म नही आएगी अगर मेरी पत्नी की नौकरी करती है तो ? !
मै तो केवल पत्नी की नौकरी ही नही चाहता बल्कि यह भी चाहता हूँ की मेरी पत्नी अपनी आगे की पढ़ाई भी पूरी करे और किसी ऊँचे ओहदे की बडी नौकरी मे लगे !
बेटे के मुँह से इतनी बात सुनने के बाद पिता की त्योरी चढ़ गयी, लगभग चीखते हुए बोले मेरी बात गौर से सुन लो अगर पत्नी से नौकरी नही करवानी है तब तो हमारे परिवार के साथ इस घर मे एक छत के नीचे रहो तुम ! किन्तु पत्नी से नौकरी करवानी है अगर तो इसी वक्त पत्नी सहित तुम्हे मेरा घर छोडना होगा ! इतना ही नही बल्कि मै तो तुम्हे अपने इवम अपने परिवार के साथ के हर तरह के सम्बन्ध से बेदखल करता हूँ ।
पहले तो जमकर अपशब्द का प्रयोग और जब बात इससे भी न बनी तो बेटे के सामने उपरोक्त दो रास्ते रख दिए !
पिता की पहली शर्त मानने के बजाय दूसरी शर्त मानना  त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी को सही लगा, उन्होने बिना किसी प्रकार का समझौता करते हुए दूसरी शर्त मानने का अपना फैसला पिता जी को बता दिया !
पिता ने दूसरी शर्त मँजूर करने की बात सुनकर पहले तो बेटे के शरीर से पैन्ट शर्ट उतरवा लिए और केवल निक्कड - बनियान मे बेटे को छडी से खूब पीटे, पीटने के बाद बोले मै तुम्हे तुम्हारी पत्नी सहित अपने घर से इसी वक्त बेदखल कर रहा हूँ । तुम्हारे बदन पर जो यह निक्कड बनियान छोडा है मैने उसके अलावा मेरे घर से एक भी तिनका सहयोग लिए बिना इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ ।
पिता पंडित कृष्णानंद पाण्डेय का फरमान सुनकर त्रिलोकी नाथ पाण्डेय बिल्कुल घबराए नही वजह पिता द्वारा किए गए इस फैसले के लिए वह कहीँ न कहीँ पहले से ही तैयार थे ! अत: अपनी आत्मा की आवाज सुनते हुए वही करने को तैयार हुए जो उचित था !
वह पत्नी की शैक्षणिक योग्यता पर पुरूषत्व का बेजा अँहवाद हावी नही होने देना चाहते थे क्योकि वह समझते थे यह अँह पूरी तरह गलत है ! चूँकि अगली सुबह ही प्रियंवदा को लेकर कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचना था नौकरी का चार्ज दिलवाने, इसलिए वह पिता के पास से सीधे पत्नी के पास पहुँचे पूरी घटना पत्नी को बताए और अपने साथ चलने को बोले ! सरल सहज कम उम्र पत्नी को ससुर की बात की अवहेलना करके घर छोडना गँवारा नही लग रहा था इसलिए उन्होने पति को हर तरह से समझाने का प्रयास किया किन्तु बात जब पति और ससुर मे से किसी एक के राश्ते के चुनाव की आ गयी तो प्रियंवदा ने पति का राश्ता चुनना ही उचित समझा ! और पति के साथ ससुराल की दहलीज पार कर एक नयी राह पर कदम रखने की पहल कर दिया !

केवल निक्कड बनियान मे ससुर द्वारा घर से बेदखल किए गए अपने पति के साथ मीलोँ पैदल चलकर देर रात प्रियंवदा अपने मायके जमनीपुर पहुँची ! रात भर ससुराल मे गुजारने के बाद सुबह पण्डित त्रिलोकी नाथ पत्नी को लेकर कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे,  प्रचार्य से मिलकर पत्नी प्रियंवदा को नौकरी का चार्ज दिलवाए और पत्नी को एक नई किन्तु स्वस्थ जिम्मेदारी के साथ जुडने का अवसर उपलब्ध करवाकर खुद को सही साबित किए !
प्रियंवदा की यह नौकरी उस वक्त महिला सशक्तिकरण का प्रथम उदाहरण था ! क्योकि इस एक नौकरी के साथ ही हमारे समाज मे सम्भ्रान्त परिवार की कई सारी जटिल वर्जनाए टूट गयी थीँ ! 1942 से 1956 तक कोटवा प्राथमिक विद्यालय मे बतौर शिक्षिका नौकरी करने के साथ ही प्रियंवदा ने कुशलता पूर्वक अपने पति की एवम स्वयम अपनी भी आगे की पढ़ाई का खर्च सम्हाला ! अपनी 13 रूपए की वेतन वाली नौकरी के साथ पति की पाकेट मनी, फीस, अपनी पढ़ाई की फीस और तीन बच्चो (  बेटा शशिकान्त, बेटा प्रभात कुमार, एवम बेटी उमा ) के पालन - पोषण की जिम्मेदारी बहुत कुशलता पूर्वक निभाया ! 

                   
                              { 5 }
वर्ष 1948 मे उत्तर प्रदेश के को-आपरेटिव बैंक में पति की प्रथम नौकरी लगना, वर्ष 1956-57 मे 14 साल की अपनी शैक्षणिक सेवा से स्थिपा देकर नयी नौकरी के लिए प्रियंवदा का मध्य प्रदेश के सतना जिले मे जाना “तात्कालिक पंचायत एवं समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत “LSEO” लेडिज सोशल एजुकेशन आर्गेनाइजर” की पोस्ट पर नियुक्त होना, 3 माह इस पद पर नौकरी करने के बाद स्थिपा देकर इलाहाबाद लौट आना एवम पुन: शैक्षणिक कार्य से जुडना, प्रियंवदा के नाम तत्कालीन सतना कलेक्टर का तार आना और प्रियंवदा का सतना जाकर कलेक्टर से मिलना :
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वर्ष 1948 में सहकारी बैंक में पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को नौकरी मिली उनकी पहली पोस्टिंग धारूपुर इलाहाबाद में हुई ! पति को मिली इस नौकरी से प्रियंवदा को बहुत खुशी हुई क्योकि यह नौकरी स्वयम उनके उस सहयोग एवम त्याग का प्रतिफल थी जो उन्होने पति के साथ ससुराल से बेदखल होने और प्राथमिक विद्यालय की नौकरी का चार्ज लेने के बाद लगातार वर्ष 1942 से वर्ष 1948 तक किया था ! 

13 रूपए की नौकरी मे पति की आगे की पढाई पूरी करवाना, पति को नौकरी मिलने से पूर्व तक उनके जेब खर्च से लेकर अन्य तरह के खर्च तक की जिम्मेदारी अपने उपर लेना, स्वयम 12वी तक की अपनी पढाई पूरी करना, तीन बच्चों को जन्म देना, उनकी स्वस्थ्य देख - भाल करना साथ ही सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक स्कूल की नौकरी करना यह सब किसी महिला के लिए उस दौर मे आसान कार्य नहीं था ! किन्तु प्रियंवदा ने बहुत ही ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया ! जिस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लम्बे संघर्ष के बाद देश ने नयी - नयी आजादी मिलने की खुशी पाई थी कुछ वैसी ही खुशी अब प्रियंवदा भी महसूस करने रही थी अपने जीवन मे क्योकि प्रियंवदा ने भी तो अब तक “21 साल उम्र तक” तात्कालीक समाज और परिवार की जटिल व्यवस्था के विरूद्ध एक लम्बी लडाई लडकर अपने जीवन मे यह नव विहान देखा था। 1925 के भारतीय माहौल मे पैदा हुई इस देश की किसी बेटी का पढ़ाई करना, घर की दहलीज पारकर नौकरी मे आना देश को मिली आजादी जैसी ही तो एक आजादी थी वह भी एक महिला के रोजगार परक आत्मनिर्भरता की आजादी ! 

पति की नौकरी हो जाने के चार वर्ष बाद तक प्रियंवदा ने अपना शैक्षणिक कार्य जारी रखा फिर एक रोज वर्ष 1956 मे पति ने उनके सामने उनके लिए नयी नौकरी का प्रस्ताव रखा नौकरी नयी थी और वेतनमान भी अधिक था तो नौकरी के प्रति प्रियंवदा का कौतुहल बढ़ गया ! लेकिन उनके सामने जो बडी समस्या थी वह यह कि नौकरी उत्तर प्रदेश मे नही बल्कि मध्य प्रदेश के सतना जिले के लिए थी ! चूकि वर्ष 1948 मे रीवा संभाग के अंतर्गत सतना को नया जिला बनाया गया था और आजादी के बाद नया जिला बनने की वजह से सन 1952 मे केन्द्र सरकार की नई नीति के अनुसार महिलाओ, लडकियो, के लिए तात्कालिक पंचायत एवम समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत सरकारी नौकरी मे पढ़ी लिखी महिलाओं एवं लड़कियों को लाने के लिए बहुत सारे पदों की पर रिक्तियां निकाली गयी थी ! जैसा की हम सब इस सत्य से अवगत है कि अंग्रेजी हुकूमत के लिए मध्य प्रदेश का रीवा संभाग एवम उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद मण्डल सैन्य सेवा एवम व्यापार के मुख्य आधार थे, इस दृष्टिकोण से रीवा संभाग के अंतर्गत आने वाले जबलपुर जिले एवम इलाहाबाद के बीच ब्रिटिश काल मे ही काफी समय पहले रेल सेवा का आरम्भ कर दिया गया था जिसमे सतना रेलवे स्टेशन की भूमिका मुख्य थी ! याने के 1947 मे देश को आजादी मिलने के बाद मध्य प्रदेश एवम तात्कालिक संयुक्त प्रान्त ( जो की 24 जनवरी सन 1950 को भारत के गवर्नर जनरल द्वारा संयुक्त प्रान्त से बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया ) के बीच एक दूसरे के यहाँ के युवाओ के लिए रोजगार के द्वार खुले ! उत्तर प्रदेश की दक्षिण दिशा में मध्यप्रदेश की सीमा आने की वजह से एवम मध्य प्रदेश मे हो रहे नव विकास के लिहाज से जबलपुर, सतना, इलाहाबाद, बनारस, के बीच युवाओ का रोजगार के लिए प्रस्थान भी हो रहा था ! इसी रोजगार परक प्रस्थान की एक कडी के रूप मे पति द्वारा प्रियंवदा के लिए भी एक नया  अवसर आया था सतना जिले मे नौकरी हेतु ! जोकि पति त्रिलोकी नाथ जी के कुछ अपने ऐसे शुभचिन्तको द्वारा सुझाया गया था जो स्वयम इलाहाबाद से ही जाकर सतना मे अधिकारी नियुक्त हुए थे ! पति प्रस्वाव जब समझ मे आया तो वह सतना मध्य प्रदेश जाकर नौकरी करने को तैयार हो गयी इस प्रकार वर्ष 1956-57 मे प्रियंवदा 14 साल की नौकरी से स्थिपा देकर अपने तीन छोटे बच्चो के साथ नौकरी करने सतना (मध्य प्रदेश) पहुँची ! सतना मे उनको तात्कालिक पंचायत एवं समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत LSEO लेडिज सोशल एजुकेशन आर्गेनाइजर के पद पर नियुक्ति मिली ! पति से दूर होकर दूसरे प्रदेश मे नौकरी करना आसान काम नही था पर पति के सहयोग से दूसरे प्रदेश मे नौकरी करने जाना उस समय यह साहस से परिपूर्ण एक बडी ही अनोखी घटना थी हमारे भारतीय समाज के लिए। 

प्रदेश अलग, नौकरी अलग तरह की, और जिम्मेदारी भी अब जरा अलग तरह की हो गयी थी क्योकि नौकरी के साथ साथ तीन बच्चो की देखभाल भी खुद ही करना था ! 

तीन माह तक उपरोक्त पद पर पूरी निष्ठा के साथ काम करती रही सभी इनके काम से खुश थे कि एक दिन अचानक दफ्तर की टेबल पर स्तीफा पत्र रख कर बच्चो के साथ चुपचाप इलाहाबाद लौट आई और सप्ताह भर बाद ही पुन: शिक्षक के रूप में अपनी सेवा देनी शुरू कर दी ! सेवा देते हुए कुछ माह ही बीते थे कि एक दिन इनके नाम से सतना कलेक्टर का तार आ गया एक तो तार उपर से सतना कलेक्टर का इनके घर मे ही नही बल्कि पूरे गाँव मे हड़कंप मच गया इस चिन्ता के साथ की आखिर प्रियंवदा ने सतना मे नौकरी करते हुए ऐसा क्या गलत किया कि कलेक्टर सतना का तार आ गया इसके नाम से ? हड़कंप मचने की मुख्य वजह यह थी की तार मे केवल इतना ही लिखा था प्रियंवदा पाण्डेय अविलम्ब सतना आकर मुझसे मिले।
द्वारा: जिलाधिकारी सतना !   
             

                               {  6  }
प्रियंवदा का सतना जिलाधिकारी से मिलने जाना, प्रियंवदा एवम जिलाधिकारी सतना की मीटिंग, मीटिंग मे प्रियंवदा द्वारा इस्तीफा दिए जाने की वजह बताया जाना, एवम जिलाधिकारी द्वारा हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराते हुए प्रियंवदा को पुन ( BDO ) बेसिक परियोजना अधिकारी की पोस्ट पर नयी नियुक्ति देना : 
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तार कलेक्टर का था, तार मे केवल अविलम्ब आकर मिलने की बात लिखी गयी थी और इस बात से परिवार सहित गाँव जवार मे हड़कंप मच गया था तो यह भी लाजमी हो गया था कि गाँव समाज के उच्च शिक्षित जानकार लोगों के साथ इसके बाबत कुछ आधे - एक घंटे की बैठकी करके यह सुझाव लिया जाए की करना क्या चाहिए ? पंडित त्रिलोकी नाथ ने जानकार शिक्षित लोगो के साथ बैठकी की और बैठकी मे तय हुआ की पति त्रिलोकी नाथ एवम गाँव के तीन चार उच्च शिक्षित जानकार लोग प्रियंवदा को लेकर सतना जिलाधिकारी से मिलने जाएँगे ! दो दिन बाद पति सहित अन्य लोगो के साथ प्रियंवदा सतना जिलाधिकारी कार्यालय पहुँची, जिलाधिकारी को अपना परिचय देते हुए तार भेजकर उन्हे मिलने आने के लिए बुलाने की बात से अवगत कराते हुए हुए इस बुलावे की वजह पूछीँ, जिलाधिकारी ने अपने सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए प्रियंवदा से पहला प्रश्न किया यथा : 

प्रश्न जिलाधिकारी : मैडम प्रियंवदा पाण्डेय आपने अपनी नौकरी से इस्तीफा क्यो दिया ? 

उत्तर प्रियंवदा पाण्डेय : सर मेरे पति उत्तर प्रदेश मे पोस्टेड है मै सतना मे तीन छोटे बच्चों के साथ अकेले नौकरी कर रही थी, रहने के लिए एवम बच्चों की देखभाल के लिए कोई सुविधा नही मिली थी, किराए का घर ले कर रहना था मुझे साथ ही बच्चों के लिए कोई सहायक न होने की वजह से घर एवम दफ्तर का काम मुझे ही करना था जो कि मुझसे मैनेज नही हो पा रहा था इसी लिए मैने नौकरी से इस्तीफा दे दिया ! 

प्रश्न जिलाधिकारी : मैडेम अगर आपको सतना मे रहने हेतु सरकारी आवास एवम attendant { परिचारक } की सुविधा दे दी जाए तो क्या आप पुन: सतना मे नौकरी करने को तैयार हैं ? 

प्रियंवदा को एक पल के लिए महसूस हुआ जैसे कलेक्टर ने उनके मन की बात कह दी हो उन्होने जवाब देते हुए कहा सर मेरे नौकरी छोडने के पीछे यही एक वजह थी, अगर मेरी वजह की पूर्ति होती है तो मुझे यहाँ नौकरी करने से कोई इनकार नही है ! साथ बैठे पति की भी इसमे हाँ थी अत: पुन: नौकरी के लिए प्रियंवदा की सहमति पाकर जिलाधिकारी सतना ने उसी दिन BDO “बेसिक परियोजना अधिकारी” के पद पर उनकी  नियुक्ति कर दिया ! साथ ही अगले दिन जिला पंचायत अधिकारी का बंगला उनके रहने के लिए आवंटित करते हुए 24 घंटे साथ रहने परिवार बच्चो की देखभाल करने के लिए एक attendant “परिचारक” की सुविधा भी उपलब्ध करा दिए ! 

कलेक्टर सतना के इस कदम से पुरूष बर्चश्व वाले सरकारी महकमे मे विरोधी स्वर गूँजने लगे हर कोई यह जानना चाहता था की आखिर कौन सी ऐसी वजह है जिसके चलते कलेक्टर सतना ने वह सारी सुविधाएँ एक महिला कर्मी को उपलब्ध करा दिया जो उस वक्त किसी  सरकारी अधिकारी को भी उपलब्ध नही थी !? सवाल समय परिवेस जनित था उस वक्त जब महिलाएँ घर की दहलीज पार करने से पूर्व भी सौ बार सोचती थी भी ऐसे मे एक महिला का पढ़ी लिखी होना, पढ़ी लिखी होने के साथ साथ अधिकारी हो जाना यह उस वक्त के पुरूष समाज मे पचा पाना सम्भव नही था ! यह बात और है कि उसी वक्त के समाज मे वह शुभचिन्तक जिसकी वजह से प्रियंवदा बच्चो के नि:शुल्क स्कूल पढ़ाई करने पहुंच पाई थी, माँ पिता के गुजरने के बाद बहन के प्रति माँ पिता वाली जिम्मेदारी अपने कन्धे पर लेने वाले दोनो सगे बडे भाई जयराम, हरिराम, पति त्रिलोकी नाथ जी और सतना के कलेक्टर जैसे उदार चरित्र भी मौजूद थे जिन्होने अपना प्रियंवदा के व्यक्तित्व को स्थापित करने मे अपना अहम योगदान दिया था एवम देश की हर एक बहन, बेटी, महिला, की तरक्की एवम आत्मनिर्भरता चाहते थे ! कलेक्टर सतना को लोगो द्वारा किए जा रहे बेजा बातचीत से कोई  लेना देना नही था ! वजह उस वक्त सतना जिला सीधे दिल्ली के रडार पर था ! नया जिला होने के नाते केन्द्र सरकार द्वारा जिलाधिकारी को सख्त हिदायत थी कि उनके जिले मे कितनी औरते सरकारी विभाग मे नौकरी करने घर से बाहर निकली उनका व्योरा रखा जाए साथ ही अगर किसी महिला ने नौकरी छोड दिया है तो उस महिला से मिलकर इस बात का पता लगाया जाए कि : उसने नौकरी क्यो छोडा इसके पीछे की वजह का पता लगाया जाए और और उसकी वापसी एवम नौकरी बहाली का इन्तेजाम किया जाए साथ ही पूरी घटना का व्योरा केन्द्र सरकार के सम्बन्धित विभाग को भेजा जाए ! वैसे तो उस वक्त केन्द्र सरकार की यह हिदायत भारत के सभी जिले के जिलाधिकारी को थी ! चूकि यहाँ हमारा केन्द्रबिन्दु प्रियंवदा पाण्डेय जी के चरित्र चित्रण से है तो हम यहाँ उनकी कर्म स्थली सतना पर ही केन्द्रित होँगे प्रियंवदा पाण्डेय की केस मे सतना कलेक्टर के साथ यही हुआ था! प्रियंवदा द्वारा सतना से स्तीफा देकर प्रयागराज वापस लौट आने के बाद सतना कलेक्टर को उपर तलब किया गया और दबाव बनाया गया की आपके यहाँ नौकरी करने वाली महिला प्रियंवदा अपनी नौकरी छोडकर क्यो गयी इसका पता लगाया जाय और प्रयास हो प्रियंवदा नौकरी पर लौट आएँ । सरकार की नीतियाँ नयी नयी थी उस वक्त ! आजादी के बाद की सरकार भी नयी नयी थी और देश मे स्त्री शिक्षा न के बराबर थी इसलिए केन्द्र सरकार स्त्री शिक्षा और स्त्री के रोजगार परक आत्म निर्भरता के प्रति गम्भीर थी ! 1952 के दौर मे एक - दो जो पढ़ी लिखी महिलाएँ घर से निकलकर नौकरी करने बाहर आती थी उनका मनोबल बढ़ाने हेतुसरकार एक्सपोजर दे रही थी ! 

सतना कलेक्टर से मिलने के बाद अपनी जरूरत के हिसाब से सुविधा पाकर प्रियंवदा पुन: नौकरी पर जब लौटी तब जिम्मेदारी और बडी हो गयी थी ! कलेक्टर सतना ने BDO बेसिक परियोजना अधिकारी के पद पर उन्हे नियुक्त करते हुए एक बेहद जिम्मेदारी भरा बडा कार्य सौप दिया ! यह जिम्मेदारी थी आसपास की तहसील मे जाकर लडकियो महिलाओ को शिक्षा अर्जन करने के लिए , नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित करना! प्रियंवदा ने पूरे समर्पण भाव से इस प्रोजेक्ट पर खुद को लगाया तहसीलो मे गयी लडकियो को महिलाओ को प्रोत्साहित किया इस कार्य मे स्वयम सतना कलेक्टर भी इन्हे अपना सहयोग दे रहे थे कुछ ही साल मे परिणाम यह हुआ कि सतना मे जब भी कभी बालिकाओं, महिलाओं के बीच शिक्षा की अलख जगाकर उन्हे शिक्षा एवम रोजकार से जोडने की बात चलेगी तो आपके उस अथक योगदान का जिक्र हुए बीना यह बात अधूरी रहेगी जिसके अंतर्गत अपने 400 से 500 तक के बीच घरो मे जाकर शिक्षा की अलख जगाया और लडकियो को स्कूली शिक्षा से जोडा ! 

6 जनवरी 1952 को पण्डित जवाहर लाल नेहरू का सतना जिले का दौरा साथ ही सतना मे उच्च पदो पर कार्यरत जिम्मेदार अधिकारियो से महिलाओं बालिकाओं की शिक्षा के प्रति गम्भीर होने का आवाहन करना भी एक वजह थी !

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                               { 5 }

वर्ष 1970 का दौर एवम नयी कार्यप्रणाली के मानक पर खुद को साबित करती प्रियंवदा : 

70 का दसक और प्रियंवदा की कार्य शैली बहुत अलग तरह की हो गयी थी घर और नौकरी दोनो के प्रति यथा : 70 के दसक मे तेजी से समाज मे जागृति आ रही थी वह जो महिलाए टेम्पररी नौकरी मे आई थी उन्हे परमानेन्ट किया जा रहा था ! ऐसे मे प्रियंवदा पाण्डेय द्वारा भी जो महिलाए टेम्पररी सेवा मे लगाई गयी थी वह बहाल कर दी गयी ! अब इसके साथ ही आरम्भ हुआ महिला बाल विकास पंचायती राज की ट्रेनिग का दौर सरकार के नियम मे बहुत सारे बदलाव हो चुके थे तो प्रियंवदा के लिए भी ट्रेनिग जरूरी था अत: भारत के विभिन्न शहरो मे जहाँ जहाँ ट्रेनिंग सेन्टर बनाए गए थे 

इन्हे ट्रेनिग के लिए भेजा गया जिसमे प्रमुख रूप से 

नागपुर मे एक माह की ट्रेनिंग,

इन्दौर मे एक माह की ट्रेनिंग 

जबल पुर मे दो माह की ट्रेनिंग

भोपाल मे दो माह की ट्रेनिंग

मुम्बई मे एक माह की ट्रेनिंग 

भारत सरकार के विशेष बुलावे पर अपने अधिनस्थ कार्यकर्ता महिलाओ को लेकर दिल्ली जाना, ऐतिहासिक स्थानो का भ्रमण करवाना, राष्ट्रपति भवन एवम लोकसभा का स्पेशल भ्रमण । 

जैसा की प्रियंवदा जी बताती है इस ट्रेनिंग के पीछे सरकार का उद्देश्य यह था कि वह महिलाएँ जो 1952 के बाद से नौकरी मे तो आई है किन्तु वह देश की भौगोलिक और ऐतिहासिक जानकारी से अनजान है, अत: देश दुनिया मे हो घट रही नयी नयी जानकारियो से उन्हे समृद्ध किया जाए! सरकार की नयी - नयी परियोजनाओ से अवेयर किया जाए ! वह बताती है मुझे शहर प्रदेश से बाहर भेजा जाता था तो मेरी सुविधा का पूरा खयाल रखा जाता था ! सरकार का सख्त आदेश था किसी महिला को ट्रेनिंग एवम यात्रा के दौरान किसी तरह की परेसान का सामना न करना पडे ! इस 

दौरान महिलाओ को साथ लेकर विभिन्न शहरो मे जाने हेतु सरकार की तरफ से बाल विकास पंचायती राज सेवा विभाग की बसें उपलब्ध कराई जाती थी साथ मे पर्याप्त परिचारक मिलते थे ! हम अपने बच्चो को भी साथ ले जा सकती थी ! हमारे रहने खाने पीने की व्यवस्था सरकारी क्वाटर मे करवायी जाती थी जहाँ - जहाँ जिस - जिस शहर मे हमे ट्रेनिंग अथवा भ्रमण के लिए भेजा जाता हमारा काभी खयाल रखा जाता ! 

उस दौरान ट्रेनिंग के बाद पूरे वर्ष भर का हमारे सेवा का लेखा चोखा किया जाता और पुरस्कार स्वरूप सरकार द्वारा सर्वोत्तम employ का appreciation letter हमारे नाम हमारे दफ्तर मे भेजा जाता था ! उस वक्त तक मँच पर फूल माला देकर कर्मचारियो का सम्मान लगभग न के बराबर ही था और हमारे सम्मान के लिए सरकार की तरफ से साबासी पत्र आना ही बहुत बडा सम्मान था, मुझे गर्व है कि एक नही बल्कि कई बार मै भी अपनी अच्छी सेवा देने के लिए ऐसे सम्मान पत्र की पात्र बन

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता