प्रियंवदा जीवनी का प्रथम भाग

                              प्रियंवदा पाण्डेय
               एक इबारत संघर्ष से सफलता तक की 
******************************************
                           1 : बचपन 
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में 5 जुलाई वर्ष 1925 के ब्रिटिश कालीन गुलाम भारत में देश की आजादी से 22 साल पूर्व अभाव की खुरदरी जमीन पर घोर असमानता एवम भेद-भाव के वातावरण में उम्मीद की लहलहाती फसल के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी पंडित टीकाराम त्रिपाठी के सुपुत्र पंडित श्री भानु प्रताप त्रिपाठी एवम बहु श्रीमती चन्द्रकली देवी के घर दो बड़े बेटों पंडित जयराम त्रिपाठी, पंडित हरिराम त्रिपाठी के जन्म के लम्बे अन्तराल बाद एक बेटी का जन्म हुआ, दो भाइयों के बाद जन्मी यह बेटी घर परिवार मे सबकी लाडली थी खास करके अपने दोनों बडे भाइयों की, माँ - बाप ने बडे स्नेह के साथ बेटी का नाम रखा प्रियंवदा ! 
बेटी का नाम प्रियंवदा जरूर रखा गया, बेटी पूरे परिवार की लाडली भी जरूर थी, पर अपने उस तत्कालीन भारतीय सनातन परिवार एवम समाज की कुत्सित कुप्रथा वाली परम्परा से अछूती नहीं थी जो कि हजार-हजार साल के बाह्यय आताताई आक्रमण के बाद उदार भारतीय सनातनी हिन्दु परिवारो मे भयवस पनपी थी ! परिणाम स्वरूप प्रियंवदा भी जन्म से ही बेटियों वाले उस भेदभाव की शिकार हुई जो अन्य हिन्दु परिवारो की बेटियो के साथ घट रहा था, हो रहा था यथा उस वक्त के अन्य हिन्दु परिवारों की तरह ही इस बच्ची के जन्म पर भी घर मे न बधावा बजा, न सोहर की स्वर लहरी गूँजी, ना ही मंगल गीत गाए गए। बेटी के जन्म की अपार खुशी होते हुए भी उस खुशी को जाहिर कर सकने की  यह परिवार हिम्मत न दिखा सका ! कहते है अतीत का इतिहास वर्तमान को लम्बे वक्त तक अपने चपेटे मे लिए रहता है यहाँ भी हमारे तत्कालीन सनातनी परिवार, समाज, मे स्थिति कुछ ऐसी ही थी ! अतीत मे हमारी बहु, बहन, बेटियों के साथ विधर्मी संस्कृत के संरक्षकों ने बालात जो किया था उस जघन्यता की परछाई के रूप मे 1925 के ब्रिटिश कालीन गुलाम भारत मे भी प्रदा प्रथा, बाल विवाह, जन्म के समय बेटी की निर्मम हत्या कर देने का रिवाज पूरी सख्ती से एक चलन के रूप में विद्यमान था ! मध्ययुगीन कुप्रथा का यह मलवा गुलामी से मुक्ति हेतु आजादी की अँगडाई लेते हमारे भारत देश मे एक जख्म की तरह हमारी बहन बेटियो को प्रभावित रहा था जिसकी वजह से सनातनी हिन्दु परिवारों के साथ साथ 1925 के अन्य भारतीय परिवारों मे भी बेटी का जन्म लेना अपार सोग, कष्ट, दु:ख का गम्भीर विषय माना जाता था ! खैर अपने लिए तैयार इस विपरित वातावरण में वह अति विलक्षण बच्ची प्रियम्वदा माँ - बाप,भाई के अनुराग की छाँव तले एक एक दिन बडी हो रही थी कि इसी बीच उसके बाल जीवन मे एक दर्दनाक अनहोनी हुई 5 वर्ष की नन्ही उम्र मे उसके सिर से माता-पिता की छत्र छाया उठ गई और वह अनाथ हो गयी ! माता पिता की अचानक हुई मृत्यु ने उस अबोध बच्ची को सदमे की चपेट मे ले लिया वह बहुत शान्त रहने लगी यह बात बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी एवम पंडित हरिराम त्रिपाठी को गँवारा नही थी कि उनकी लाडली बहन सदमे की शिकार होकर रह जाए इस लिए दोनो भाईयो ने माँ बाप का स्थान लेते हुए अपनी बहन की परवरिस पर अपने आप को केन्द्रित कर दिया ! चूंकि बड़े भाई पंडित जय राम त्रिपाठी युवाअवस्था मे ही आजादी की लडाई के पैरोकार बन गए थे और अपने आपको स्वतंत्रता सेनानी के रूप मे देश सेवा मे लगा दिए थे जिसकी वजह से उनके पास समय का अभाव था पर जितना भी समय देश सेवा से बचता सह बहन की परवरिस के नाम था ! माता पिता की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों, पटिदारों, पडोसियो के बीच प्रियंवदा एक अनाथ के रूप मे सहानुभूति की पात्र तो जरूर बनी पर केवल मुँह से, प्रियंवदा भी अपनी अबोध उम्र के अनुसार दिन भर इधर उधर घूँमती, खाती - पीती,आस - पडोस के बच्चों संग खेलती - कूदती, घूँमती रहती अब तक शिक्षा जैसे
विषय से इस बच्ची का दूर दूर का कोई नाता नही था और तत्कालीन भारतीय सामाजिक एवम पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार शायद शिक्षा का प्रियंवदा के जीवन से कोई वास्ता होना भी असम्भव था क्योकि उस वक्त तक हमारे भारतीय समाज मे बेटी का मतलब शिक्षा अर्जन करना नही था, बल्कि चूल्हे - चौके, घर - परिवार की देखभाल तक ही बेटी का दायरा सिमित किया गया था ! बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी भी बहन को लेकर शिक्षा की इसी परिपाटी के पैरोकार थे वह भी कही से इस बात के हिमायती नही थे कि प्रियंवदा के जीवन मे स्कूली शिक्षा की अलख जगे बहन प्रियंवदा के लिए बडे भाई द्वारा की गयी यह कोई साजिश नही थी बल्कि उस समय के परिवेश का परिणाम थी भाई की ऐसी सोच क्योकि उस वक्त हमारे भारतीय घरो मे स्त्री शिक्षा एक तरह से वर्जित थी ! जबकि काफी समय पहले ब्रह्म समाज द्वारा राजा राम मोहन राय की अगुआई मे भारत मे स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सारी क्रान्तिकारी पहल की जा चुी थी एवम सामाजिक नवचेतना के द्वारा स्त्री शिक्षा को उन्नत अवस्था मे लाने के लिए आन्दोलनकारी नीतियाँ बनायी गयी थी पर वह जमीनी स्तर पर सफल न हो सकी थी ! और स्त्री शिक्षा के प्रति समाज का उदार होना अभी शेष रह गया था ! कहते हैं ना ؛ कि नियति के आगे समाज एवम समय दोनो का खडयन्त्र सदैव बौना साबित होता है कुछ ऐसा ही सँयोग 5 वर्षीय अनाथ बच्ची प्रियंवदा के जीवन मे भी घटा, एक दिन जब वह पडोस के बच्चो के साथ घर के दरवाजे पर खेल रही थी ठीक उसी वक्त एक बाह्यय अजनबी, उच्च शिक्षित, व्यक्ति का उसके घर पर आगमन हुआ, वह अजनबी व्यक्ति दरवाजे पर बच्चो के साथ खेल रही बच्ची प्रियंवदा के खेल कौशल एवम खेल के दौरान बच्ची द्वारा प्रयोग किए जा रहे विलक्षण नियंत्रण कौशल को बडे गौर से देख रहे थे काफी देर तक उस नन्ही बच्चा की विलक्षणता को देखते रहने के बाद वह अजनबी व्यक्ति पास मे ही खडे पंडित जयराम त्रिपाठी के पास आकर एक दो टूक सीधा सा प्रश्न किया यथा : सर यह नन्ही बच्ची क्या आपकी बेटी है ? 
पंडित जयराम ने जवाब दिया : जी नही यह मेरी छोटी बहन है पर मेरे लिए मेरी बेटी जैसी ही है ! 
अजनबी ने फिर सवाल किया यथा : 
क्या आप इसे स्कूल भेजते है ? 
भाई पंडित जयराम त्रिपाठी अजनबी का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले बेटियोँ को स्कूल भेजने का रिवाज जब हमारे परिवारो मे नही है तो फिर मै इसे स्कूल कैसे भेज सकता हूँ ? 
अजनबी ने फिर पूछा अगर स्कूल भेजना हो तो ? 
जयराम तिवारी फिर मुस्कुराए और बोले इसे स्कूल भेजने की आखिर जरूरत ही क्या है ? यही कोई 5 से 7 साल बाद व्याह करके अपने ससुराल चली जाएगी आखिर पढ़ लिख कर कौन सा इसे कलेक्टर बनना है या नौकरी करनी है, ? शादी करके ससुराल जाएगी अपना घर परिवार देखेगी सुनेगी आखिर हमारे समाज मे लड़कियों के लिए यही तो दायरा तय किया है ना !? 
साथ ही मेरी वर्तमान परिस्थिति भी ऐसी नही है कि अगर अपनी वैचारिक उदारता दिखाकर मै इसे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजना चाहूँ तो भेज सकूँ । दूसरी बात यह की हमारे गाँव मे कोई स्कूल भी नही है ? यह सब बाते अजनबी से कहते - कहते पंडित जयराम त्रिपाठी घर के तात्कालिक हालात का मुआयना करते हुए थोडे भावुक हो गए ! पंडित जी की बाते सुनकर वह व्यक्ति बोला सर जो प्रतिभा मै इस बच्ची मे देख पा रहा हूँ आप सब शायद उसे नही देख पा रहे है ! इस बच्ची मे विलक्षण प्रतिभा भरी है, इसके जीवन मे अगर शिक्षा की अलख जगायी गयी तो निश्चित रूप से यह बच्ची समाज मे कुछ विशेष करेगी ! अजनबी से फिर पंडित जयराम त्रिपाठी ने दुहराते हुए कहा मुझे क्षमा करे श्रीमान मेरी हैसियत नही है ! 
पंडित जी की यह बात सुनकर वह अजनबी व्यक्ति पंडित जी के सामने एक प्रस्ताव रखता है यथा : पंडित जी अगर आप बच्ची को स्कूल भेजने के लिए तैयार हो तो मेरी जानकारी मे एक ऐसा स्कूल है जहाँ बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है, साथ ही कॉपी, किताब, कपडा, रहना, खाना, दवा, भी निःशुल्क  है ! बच्चे को दी जाने वाली शिक्षा का कोई दबाव बच्चे के परिवार पर नही होता है ! अजनबी की यह बात बडे भाई को भा गयी तुरन्त उन्होने अजनबी से उस स्कूल का पता पूछा और विस्तार से जानना चाहा कि कहां बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाती है ? अजनबी को अपनी पहल मे कामयाबी नजर आई तो उसने उत्साह पूर्वक स्कूल का पता कुछ इस तरह पंडित जी को नोट करवाया : “ प्राथमिक विद्यालय ककरा ” जो की जमनीपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था !
अजनबी और भाई के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था की इसी बीच वह 5 वर्षीय बच्ची प्रियम्वदा भाई के बगल में आकर खड़ी हो गई थी और अबुझ सी उस चर्चा में खुद का भी शामिल होना कुछ कुछ समझ रही थी ! वह बहुत कौतुहल बस उस अजनबी शुभचिन्तक की बाते सुन रही थी और एक प्यारी सी मुस्कान के साथ एकटक उसकी तरफ देखे जा रही थी ! शायद उसके बालमन पर कुछ शुभ होने का अमिट चित्र उभर रहा था ! और आँखो मे अपार निश्छल किन्तु परिवर्तनकारी चमक तैर रही थी ! बडे भाई को जब अजनबी की बातें पूरी तरह समझ में आ गयी तो उन्होने अगले दिन उस स्कूल मे तहकीकात के लिए जाने का आश्वासन देते हुए अजनबी को विदा किए और सारी बात अपने से छोटे भाई पंडित हरी राम से रात मे साझा करते हुए अगली सुबह ककरा नामक स्थान पर जाकर स्कूल के प्रचार्य से मिलने का प्लान बनाए । अगली सुबह दोनो भाई निश्चित समय पर ककरा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे और प्रचार्य से मिलकर जानकारी प्राप्त किए ! जब पूरी जानकारी अजनबी के बताए अनुसार ही सत्य साबित हुई तब घर आए और ककरा प्राथमिक विद्यालय मे बहन के एडमिशन “दाखिला” का निर्णय लेते हुए दो दिन बाद बहन को लेकर स्कूल पहुँच गए इस प्रकार स्कूल से प्रियंवदा का प्रथम साक्षात्कार हुआ । बडे भाईयो से बिछडने का दर्द 5 वर्षीय नन्ही प्रियंवदा को जितना हो रहा था उससे कही ज्यादे दर्द दोनो बडे भाईयो को भी बहन से बिछडने का हो रहा था पर निश्चिन्तता इस बात की थी कि बहन के जीवन मे शिक्षा की अलख जग रही थी तो भाईयो ने खुशी - खुशी यह त्याग करना स्वीकार कर लिया ! 
कहते है बेटियां पैदाइशी ही जूही, चंपा, हरसिंगार, के फूलों की तरह अप्रतिम सुगंधा की स्वामिनी होती हैं, इन्हे स्नेह, सहयोग,तरक्की और विश्वास की हवा का जरा सा स्पर्श मिल जाए तो यह पूरे समाज को अपनी सुगंधा से महका देने की कूबत रखती हैं ! वर्ष 1930 मे 5 वर्षीय अबोध बच्ची प्रियंवदा के साथ भी ऐसा ही हुआ। माँ - बाप छत्र छाया से मरहूम बच्ची को जब शिक्षा का लैम्प मिला तो उसने अपने जीवन मे स्वयम उजियारा फैलाना शुरू कर दिया ! पांचवी कक्षा तक वह विद्यालय एवं जिला स्तर पर अव्वल नम्बर से अपनी कक्षा मे टाप करती रही ! गणित,अंग्रेजी,संस्कृत,हिन्दी सभी विषय पर मजबूत पकड रखने वाली प्रियंवदा को पांचवी कक्षा मे जिले मे टाप करने के लिए उस जमाने में स्कॉलरशिप मिली थी । उस दौर मे किसी लडकी का पढाई मे इतना मेधावी होना निश्चित रूप से आश्चर्यजनक बात थी, किन्तु प्रियंवदा थी ही इतनी होनहार की उससे कुछ भी विलक्षण करने की उम्मीद की जा सकती थी ! प्रियंवदा की इसी विलक्षण मेधा को देखते हुए शिक्षा विभाग द्वारा आगे आठवीं क्लास तक की भी उसकी पूरी पढाई नि:शुल्क कर दी गयी थी, जिसके तहत छठी क्लास में प्रियंवदा का दाखिला राजकीय जूनियर हाई स्कूल जो उस वक्त ( महिला सेवा सदन ) के नाम से चलाया जाता था में हुआ यहाँ भी प्रियंवदा ने सफलता की इबारत लिखे और छठी क्लास से लेकर आठवी क्लास तक की अपनी पढ़ाई एक टापर्स छात्रा के तौर पर ही पूरी की ! हर क्लास मे अव्वल आने पर जिला स्तर पर प्रति वर्ष उसे सम्मानित किया जाता था एवम स्कालरशिप भी दी जाती थी ! प्रचार्य ने इसके अविभावक बडे भाई से स्पष्ट कह दिया था इस बच्ची की आगे की पढ़ाई जारी रखवाइए क्योकि इसकी मेधा असाधारण है यह बहुत आगे जाएगी !
किन्तु आठवी कलास की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही एक अप्रत्याशी घटना घटी यथा विद्यालय एवम बच्ची दोनो की प्रबल इच्छा थी कि आगे की पढ़ाई जारी रहे पर वर्ष 1940 के तात्कालीन भारतीय सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के अनुरूप 13 वर्ष की छोटी उम्र मे प्रियंवदा का बाल विवाह कर दिया गया ! उस वक्त राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज के नियम के लिहाज से भी यह विवाह बाल विवाह ही था परन्तु उस समय के भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप जब 9 या 10 वर्ष की अवस्था मे बेटी का विवाह करने का रिवाज था ऐसे मे लोगो की नजर मे प्रियंवदा की 13 वर्ष की उम्र भी ज्यादा उम्र करार दी जा रही थी ! 13 वर्षीय प्रियंवदा राजा राम मोहन राय के ब्रह्म  समाज के नीतियो से भलिभाँति परिचित थी पर वह स्वयम के इस बाल विवाह का विरोध न कर सकी यह सोचते हुए कि माता - पिता के न होने पर भी दोनो भाई मिलकर उसकी बेहतर परवरिस किए, विरोधी परिवेश मे भी दोनो भाईयो ने उसे शिक्षा का प्रकाश दिया उनपर बडी जिम्मेदारी था प्रियंवदा का विवाह इस प्रकार वर्ष 1940 मे प्रियंवदा की पढ़ाई रोककर 13 वर्ष की छोटी सी उम्र मे इलाहाबाद जनपद के ग्राम - बरबोली,  तहसील सोरांव, के एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार में प्राचार्य श्री कृष्णानंद पांडेय के बड़े बेटे त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ प्रियंवदा का विवाह समपन्न हुआ ॥ 
           **      **     **     **     **    
2 : विवाह, पति, ससुराल का वातावरण, वर्ष 1940 से वर्ष 1942 के दौरान दो वर्ष तक ससुराल मे रहने का अनुभव एवम 1942 मे पति के सहयोग से प्रथम नौकरी मिलने के साथ ही ससुर पंडित कृष्णानंद पाण्डेय द्वारा घर से बेदखल किए जाने की अप्रत्याशित दर्दनाक घटना एवम प्रियंवदा : 

वर्ष 1940 मे जब प्रियंवदा पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ विवाह वन्धन मे बधकर ससुराल आयी तो बडी उम्र न होने के कारण आँखो मे कोई ऐसे सपने नही थे जो ससुराल मे पूरे न हो सके ? सास ससुर देवर नात रिश्तेदार सबकी लाडली थी ! चूँकि प्रियंवदा का विवाह प्रयागराज के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था तो परिवार की शान एवम परम्परा के अनुसार बहू का ज्यादे पढ़ना लिखना कोई बहुत मायने नही रखता था उस दौर मे घर मे पुरूष प्रधानता होने के कारण आगे की पढ़ाई जारी रख पाना भी सम्भव नही था इसलिए 13 वर्षीय प्रियंवदा भी उसी माहौल मे रचने बसने लगी जो उस घर की अन्य महिलाओ के लिए पूर्व से ही तैयार था यथा रसोई घर से लगायत बच्चो बडो की देखभाल करना खाना बनाना खिलाना बाकी समय बचा तो आपस मे घर की महिलाओ के साथ बात चीत करना ! गम्भीर मुद्दो पर घर की औरतो का विचार कोई मायने नही रखता था फैसले लेने के अधिकार केवल पुरूषो को ही थे ! औरतो का दायरा सिमित था ! 
प्रियंवदा पढ़ाई में मेधावी छात्रा रही है यह बात पति श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को पता थी दो साल 1940 से 1942 पत्नी के साथ गुजरने के बाद वह इस बात से भी परिचित हो चुके थे कि पत्नी मे धैर्य, सहनशक्ति, और उदारता कूट - कूट कर भरी है ! वह जान चुके थे कि पूरे परिवार को साथ लेकर चलना, सबकी तरक्की की बात सोचना पत्नी का विशेष गुण था जो उन्हे औरों से अलग साबित करता था ! चूँकि वह स्वयम अभी अपनी पढ़ाई पूरी करने मे व्यस्त थे इस लिए बाकी कोई और बात उनके दिमाग मे नही थी सिवा प्रियंवदा का सम्मान करने के ! शादी के बाद जब कुछ समय बीता तो एक बेरोजगार पति के जीवन मे जो प्राथमिक समस्याएँ आती है त्रिलोकी नाथ जी भी उससे अछूते न रहे परिवार की आर्थिक हालत बहुत उन्नत थी परिवार का सामाजिक सम्मान भी बहुत था पर एक पति के तौर पर  त्रिलोकी नाथ जी के जीवन मे अर्थ की समस्या आने लगी थी ! चूकि अपनी स्वयम की पढ़ाई को भी देखना था और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी भी निभानी थी और उम्र भी इतनी नही थी कि कोई बडा फैसला लिया जाए कही बाहर जाकर नौकरी करने का क्योकि परिवार ( माता पिता ) इसके लिए तैयार नही होता घर के बडे बेटो होने के नाते पण्डित जी कुछ समझ नही पा रहे थे इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए कि इसी बीच आस - पड़ोस के कुछ एक बड़े बुजुर्गों ने उन्हे अपना सुझाव देते हुए उनसे कहा कि: त्रिलोकी बेटा तुम्हारी पत्नी तो आठवीं कक्षा तक पढ़ी है और सुना है पढ़ने में बहुत मेधाकी रही है क्योँ नही किसी प्राथमिक विद्यालय मे उसकी नौकरी लगवा दे रहे हो ? इस वक्त तो अंग्रेजी हुकूमत भारतीय महिलाओं को शिक्षण कार्य मे नियुक्ति देने हेतु काफी सहयोग कर रही है ! पंडित जी को आस पडोस के बड़े - बुजुर्गों की यह बात भा गई उन्होने बिना पत्नी से इस बाबत कोई जिक्र किए ही पहले स्वयम ही सारी जानकारी प्राप्त किया और जब पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए तो नौकरी करने का प्रस्ताव पत्नी के सामने रखा पत्नी सरल स्वभाव की थी उन्हे एक बार के लिए तो बति की कोई बात सही से समझ ही नही आई वह बडी शालीनता के साथ पति से बोली इसके लिए आप पिता जी, माता जी, ( से बात करिए ) अगर उनकी सहमति मिलेगी तो मुझे कोई इनकार नही है नौकरी करने से लेकिन अपने बडो की मर्जी के बिना मै शायद ही सोचूँ नौकरी करने के लिए । जब पति ने पूछा अगर बडे तैयार हो गए तब तो तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होगी न ? 
पत्नी ने जवाब दिया जी नही ! 
इसके बाद पंडित त्रिलोकी नाथ जी ने पिता से इस विषय पर चर्चा करने का मन बनाया और अगले दिन पिता के विद्यालय से घर वापस आने के कुछ देर बाद पिता के सामने अपनी बात लेकर हाजिर हुए यथा : 




Comments

Popular posts from this blog

“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता