( 13 ) कहते है इस दुनियाँ मे कोई भी मा तबतक पूर्ण नहीं बन पाती अथवा पूर्ण माँ मानी ही जाती है जब तक उसने माँ के रूप में बेटी को जन्म न दिया हो बेटी की परवरिश न की हो ! जिस प्रकार स्त्री की संरचना से,
स्त्री की आवृत्ति एवम परिकल्पना से हमारी प्रकृति पूर्ण होती है उसी प्रकार एक बेटी के जन्म के बाद ही वास्तव में एक माँ के लिए माँ शब्द की परिभाषा व्यवहारिक रूप से पूर्ण होती है ! प्रियम्वदा पाण्डेय की तीसरी संतान के रूप में बेटी ऊँमा का जन्म हुआ जिस वक्त ऊँमा का जन्म हुआ माँ की प्रथम नौकरी वाले उतार चढ़ाव के दिन थे पर बेटी के जन्म पर उन्हे अपार खुशी हुई शायद यह पहला अवसर था किसी बेटी के लिए जब उसके जन्म पर बधावा बजा, घर आँगन मे सोहर की स्वर लहरी गूँजी और माता पिता की आर्थिक क्षमता के अनुसार नेग-चार भी बाटा गया ! प्रियम्वदा जी ने नाज़ और सख्ती दोनो का पलडा बराबर करके अपनी बेटी को पात और दुनिया के हर उस दोयम दर्जे की सोच से उपर रखा जो बेटी से केवल इस लिए भेदभाव करती है क्योकि वह दुनिया मे बेटी बनकर पैदा हुई है !
चाहे शिक्षा हो, चाहे संस्कार हो, चाहे नौकरी, उतनी ही बराबर की छूट बेटी ऊँमा को माँ ने दिया जितनी अपने 7 बेटो को दी ! इकलौती बेटी होने का बेजा घमंड ना ऊँमा के भीतर पनपने दिया ना ही कभी बेटी होने की वेदना से ही गुजरने दिया ! शायद बेटी ऊँमा मे प्रियम्वदा खुद के बचपन को भी दूबारा जी रही थी तभी तो हर उस अभाव और भेदभाव की छाया तक से बेटी को दूर रख रही थी जो उन्होने अपने बचपन मे भोगा था, झेला था ! एक स्वस्थ माहौल और आजाद सपनो के साथ बेटी ऊँमा बडी । बेटो की तरह ही घर मे अपनी हर बात मजबूती से रखने की, अपने पैर पर खडी होने की,  आजादी ऊँमा को माँ की तरफ से सदैव रही ! अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बेटी ऊँमा ने एक शिक्षिका के तौर पर खुद को स्थापित किया और लम्बी सेवा देने के बाद कुछ वर्ष पूर्व राधारमण इंटर कॉलेज नैनी जिला प्रयागराज से सेवानिवृत्त हुई है !

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता