किताब का नाम :
नारी शक्ति की प्रणेता प्रियंवदा पाण्डेय
“संघर्ष से सफलता तक की आत्मकथा”
लेखक :
विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता
भूमिका :
लेखक की कलम से :
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साथियों एक निश्चित समय में 94 वर्ष की उत्तरप्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में जन्मी सशक्त नारी श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी के विशाल जीवन को कागज के पृष्टों में कलम से लिखना हमारे लिये एक बड़ी चुनौती थी।
उनके लंबे जीवन काल मे अनेक चुनौतियां आयी जिसपर उन्होंने अपने बुद्धि , विवेक और साहस से सफलता प्राप्त की। उनके संघर्ष की यह कहानी भारत की समस्त नारी शक्ति को प्रेरणा देने का महत्वपूर्ण कार्य करेगी।
हम जब इस आत्मकथा को लिपिबद्ध कर रहे थे तो हमारे सामने उनके व्यक्तित्व मे सशक्त नारी और मातृशक्ति के दृश्य स्पष्ट बन रहे थे।
जीवन के हर पक्ष में अपनी भूमिका का सफलता पूर्वक निर्वहन किया। उन्होंने शासकीय कार्य के उचित निष्पादन में कई बाधाओं का सामना किया लेकिन अपने कर्तव्यनिष्ठ मार्ग से कभी विचलित नही हुई।
उन्होंने अपनी इच्छा शक्ति से सफलता ऐसे समय मे प्राप्त की जिस समय महिलाओं को सीमित अधिकार और सुविधाए थी। तथा कार्यस्थल में महिलाओं की सुरक्षा के लिये कोई कानून भी नही था।
हम श्रीमती प्रियंवदा पांडेय जी की शक्ति को प्रणाम करते हुए यह आत्म कथा लिख रहे है। हमे पूरा विश्वास है कि यह पाठकों के आत्मबल को बढ़ाएगी और प्रेरित भी करेगी।
यह हमारा एक छोटा सा सार्थक प्रयास है। आशा है हमारा प्रयास सभी को पसंद आएगा। इसी कड़ी में हमारी अगली पुस्तक दुनिया की 48 यशस्वी माताओं की कथा होगी जिन्होने संघर्ष के बावजूद अपने बच्चो को प्रतिष्ठित बनाया।
शुभकामनाओं सहित।
लेखक :
विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता
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{ 1 } बचपन :
भारत की आजादी के 22 साल पूर्व उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के ग्राम जमनीपुर में 5 जुलाई 1925 को अभाव की खुरदुरी जमीन पर घोर असमानता एवम भेद-भाव के वातावरण में उम्मीद की लहलहाती फसल के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी पंडित टीकाराम त्रिपाठी के सुपुत्र पंडित श्री भानु प्रताप त्रिपाठी एवम बहु श्रीमती चन्द्रकली देवी के घर दो बड़े बेटों पंडित जयराम त्रिपाठी, पंडित हरिराम त्रिपाठी के जन्म के लम्बे अन्तराल बाद एक प्रतिभावान बेटी का जन्म हुआ, दो भाइयों के बाद जन्मी यह बेटी घर परिवार मे सबकी लाडली थी खास करके अपने दोनों बडे भाइयों की,
माँ - बाप ने बडे स्नेह के साथ बेटी का नाम रखा प्रियंवदा ! बेटी का नाम प्रियंवदा जरूर रखा गया, बेटी पूरे परिवार की लाडली भी जरूर थी, पर अपने उस तत्कालीन भारतीय सनातन परिवार एवम समाज की कुत्सित कुप्रथा वाली परम्परा से अछूती नहीं थी जो कि हजार-हजार साल के बाह्यय आताताई आक्रमण के बाद उदार भारतीय सनातनी हिन्दु परिवारो मे भयवस पनपी थी ! परिणाम स्वरूप प्रियंवदा भी जन्म से ही बेटियों वाले उस भेदभाव की शिकार हुई जो अन्य हिन्दु परिवारो की बेटियो के साथ घट रहा था, हो रहा था यथा उस वक्त के अन्य हिन्दु परिवारों की तरह ही इस बच्ची के जन्म पर भी घर मे न बधावा बजा, न सोहर की स्वर लहरी गूँजी, ना ही मंगल गीत गाए गए। बेटी के जन्म की अपार खुशी होते हुए भी उस खुशी को जाहिर कर सकने की यह परिवार हिम्मत न दिखा सका ! कहते है अतीत का इतिहास वर्तमान को लम्बे वक्त तक अपने चपेटे मे लिए रहता है यहाँ भी हमारे तत्कालीन सनातनी परिवार, समाज, मे स्थिति कुछ ऐसी ही थी ! अतीत मे हमारी बहु, बहन, बेटियों के साथ विधर्मी संस्कृत के संरक्षकों ने बालात जो किया था उस जघन्यता की परछाई के रूप मे 1925 के ब्रिटिश कालीन गुलाम भारत मे भी प्रदा प्रथा, बाल विवाह, जन्म के समय बेटी की निर्मम हत्या कर देने का रिवाज पूरी सख्ती से एक चलन के रूप में विद्यमान था ! मध्ययुगीन कुप्रथा का यह मलवा गुलामी से मुक्ति हेतु आजादी की अँगडाई लेते हमारे भारत देश मे एक जख्म की तरह हमारी बहन बेटियो को प्रभावित रहा था जिसकी वजह से सनातनी हिन्दु परिवारों के साथ साथ 1925 के अन्य भारतीय परिवारों मे भी बेटी का जन्म लेना अपार सोग, कष्ट, दु:ख का गम्भीर विषय माना जाता था ! खैर अपने लिए तैयार इस विपरित वातावरण में वह अति विलक्षण बच्ची प्रियंवदा माँ - बाप,भाई के अनुराग की छाँव तले एक एक दिन बडी हो रही थी कि इसी बीच उसके बाल जीवन मे एक दर्दनाक अनहोनी हुई 5 वर्ष की नन्ही उम्र मे उसके सिर से माता-पिता की छत्र छाया उठ गई और वह अनाथ हो गयी ! माता पिता की अचानक हुई मृत्यु ने उस अबोध बच्ची को सदमे की चपेट मे ले लिया वह बहुत शान्त रहने लगी यह बात बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी एवम पंडित हरिराम त्रिपाठी को गँवारा नही थी कि उनकी लाडली बहन सदमे की शिकार होकर रह जाए इस लिए दोनो भाईयो ने माँ बाप का स्थान लेते हुए अपनी बहन की परवरिस पर अपने आप को केन्द्रित कर दिया ! चूंकि बड़े भाई पंडित जय राम त्रिपाठी युवाअवस्था मे ही आजादी की लडाई के पैरोकार बन गए थे और अपने आपको स्वतंत्रता सेनानी के रूप मे देश सेवा मे लगा दिए थे जिसकी वजह से उनके पास समय का अभाव था पर जितना भी समय देश सेवा से बचता सह बहन की परवरिस के नाम था ! माता पिता की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों, पटिदारों, पडोसियो के बीच प्रियंवदा एक अनाथ के रूप मे सहानुभूति की पात्र तो जरूर बनी पर केवल मुँह से, प्रियंवदा भी अपनी अबोध उम्र के अनुसार दिन भर इधर उधर घूँमती, खाती - पीती,आस - पडोस के बच्चों संग खेलती - कूदती, घूँमती रहती अब तक शिक्षा जैसे विषय से इस बच्ची का दूर दूर का कोई नाता नही था और तत्कालीन भारतीय सामाजिक एवम पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार शायद शिक्षा का प्रियंवदा के जीवन से कोई वास्ता होना भी असम्भव था क्योकि उस वक्त तक हमारे भारतीय समाज मे बेटी का मतलब शिक्षा अर्जन करना नही था, बल्कि चूल्हे - चौके, घर - परिवार की देखभाल तक ही बेटी का दायरा सिमित किया गया था ! बडे भाई पंडित जयराम त्रिपाठी भी बहन को लेकर शिक्षा की इसी परिपाटी के पैरोकार थे वह भी कही से इस बात के हिमायती नही थे कि प्रियंवदा के जीवन मे स्कूली शिक्षा की अलख जगे बहन प्रियंवदा के लिए बडे भाई द्वारा की गयी यह कोई साजिश नही थी बल्कि उस समय के परिवेश का परिणाम थी भाई की ऐसी सोच क्योकि उस वक्त हमारे भारतीय घरो मे स्त्री शिक्षा एक तरह से वर्जित थी ! जबकि काफी समय पहले ब्रह्म समाज द्वारा राजा राम मोहन राय की अगुआई मे भारत मे स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सारी क्रान्तिकारी पहल की जा चुी थी एवम सामाजिक नवचेतना के द्वारा स्त्री शिक्षा को उन्नत अवस्था मे लाने के लिए आन्दोलनकारी नीतियाँ बनायी गयी थी पर वह जमीनी स्तर पर सफल न हो सकी थी ! और स्त्री शिक्षा के प्रति समाज का उदार होना अभी शेष रह गया था ! कहते हैं ना ؛ कि नियति के आगे समाज एवम समय दोनो का खडयन्त्र सदैव बौना साबित होता है कुछ ऐसा ही सँयोग 5 वर्षीय अनाथ बच्ची प्रियंवदा के जीवन मे भी घटा, एक दिन जब वह पडोस के बच्चो के साथ घर के दरवाजे पर खेल रही थी ठीक उसी वक्त एक बाह्यय अजनबी, उच्च शिक्षित, व्यक्ति का उसके घर पर आगमन हुआ, वह अजनबी व्यक्ति दरवाजे पर बच्चो के साथ खेल रही बच्ची प्रियंवदा के खेल कौशल एवम खेल के दौरान बच्ची द्वारा प्रयोग किए जा रहे विलक्षण नियंत्रण कौशल को बडे गौर से देख रहे थे काफी देर तक उस नन्ही बच्चा की विलक्षणता को देखते रहने के बाद वह अजनबी व्यक्ति पास मे ही खडे पंडित जयराम त्रिपाठी के पास आकर एक दो टूक सीधा सा प्रश्न किया यथा : सर यह नन्ही बच्ची क्या आपकी बेटी है ?
पंडित जयराम ने जवाब दिया : जी नही यह मेरी छोटी बहन है पर मेरे लिए मेरी बेटी जैसी ही है !
अजनबी ने फिर सवाल किया यथा :
क्या आप इसे स्कूल भेजते है ?
भाई पंडित जयराम त्रिपाठी अजनबी का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले बेटियोँ को स्कूल भेजने का रिवाज जब हमारे परिवारो मे नही है तो फिर मै इसे स्कूल कैसे भेज सकता हूँ ?
अजनबी ने फिर पूछा अगर स्कूल भेजना हो तो ?
जयराम तिवारी फिर मुस्कुराए और बोले इसे स्कूल भेजने की आखिर जरूरत ही क्या है ? यही कोई 5 से 7 साल बाद व्याह करके अपने ससुराल चली जाएगी आखिर पढ़ लिख कर कौन सा इसे कलेक्टर बनना है या नौकरी करनी है, ? शादी करके ससुराल जाएगी अपना घर परिवार देखेगी सुनेगी आखिर हमारे समाज मे लड़कियों के लिए यही तो दायरा तय किया है ना !?
साथ ही मेरी वर्तमान परिस्थिति भी ऐसी नही है कि अगर अपनी वैचारिक उदारता दिखाकर मै इसे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजना चाहूँ तो भेज सकूँ । दूसरी बात यह की हमारे गाँव मे कोई स्कूल भी नही है ? यह सब बाते अजनबी से कहते - कहते पंडित जयराम त्रिपाठी घर के तात्कालिक हालात का मुआयना करते हुए थोडे भावुक हो गए ! पंडित जी की बाते सुनकर वह व्यक्ति बोला सर जो प्रतिभा मै इस बच्ची मे देख पा रहा हूँ आप सब शायद उसे नही देख पा रहे है ! इस बच्ची मे विलक्षण प्रतिभा भरी है, इसके जीवन मे अगर शिक्षा की अलख जगायी गयी तो निश्चित रूप से यह बच्ची समाज मे कुछ विशेष करेगी ! अजनबी से फिर पंडित जयराम त्रिपाठी ने दुहराते हुए कहा मुझे क्षमा करे श्रीमान मेरी हैसियत नही है !
पंडित जी की यह बात सुनकर वह अजनबी व्यक्ति पंडित जी के सामने एक प्रस्ताव रखता है यथा : पंडित जी अगर आप बच्ची को स्कूल भेजने के लिए तैयार हो तो मेरी जानकारी मे एक ऐसा स्कूल है जहाँ बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है, साथ ही कॉपी, किताब, कपडा, रहना, खाना, दवा, भी निःशुल्क है ! बच्चे को दी जाने वाली शिक्षा का कोई दबाव बच्चे के परिवार पर नही होता है ! अजनबी की यह बात बडे भाई को भा गयी तुरन्त उन्होने अजनबी से उस स्कूल का पता पूछा और विस्तार से जानना चाहा कि कहां बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जाती है ? अजनबी को अपनी पहल मे कामयाबी नजर आई तो उसने उत्साह पूर्वक स्कूल का पता कुछ इस तरह पंडित जी को नोट करवाया : “ प्राथमिक विद्यालय ककरा ” जो की जमनीपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था !
अजनबी और भाई के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था की इसी बीच वह 5 वर्षीय बच्ची प्रियम्वदा भाई के बगल में आकर खड़ी हो गई थी और अबुझ सी उस चर्चा में खुद का भी शामिल होना कुछ कुछ समझ रही थी ! वह बहुत कौतुहल बस उस अजनबी शुभचिन्तक की बाते सुन रही थी और एक प्यारी सी मुस्कान के साथ एकटक उसकी तरफ देखे जा रही थी ! शायद उसके बालमन पर कुछ शुभ होने का अमिट चित्र उभर रहा था ! और आँखो मे अपार निश्छल किन्तु परिवर्तनकारी चमक तैर रही थी ! बडे भाई को जब अजनबी की बातें पूरी तरह समझ में आ गयी तो उन्होने अगले दिन उस स्कूल मे तहकीकात के लिए जाने का आश्वासन देते हुए अजनबी को विदा किए और सारी बात अपने से छोटे भाई पंडित हरी राम से रात मे साझा करते हुए अगली सुबह ककरा नामक स्थान पर जाकर स्कूल के प्रचार्य से मिलने का प्लान बनाए । अगली सुबह दोनो भाई निश्चित समय पर ककरा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे और प्रचार्य से मिलकर जानकारी प्राप्त किए ! जब पूरी जानकारी अजनबी के बताए अनुसार ही सत्य साबित हुई तब घर आए और ककरा प्राथमिक विद्यालय मे बहन के एडमिशन “दाखिला” का निर्णय लेते हुए दो दिन बाद बहन को लेकर स्कूल पहुँच गए इस प्रकार स्कूल से प्रियंवदा का प्रथम साक्षात्कार हुआ । बडे भाईयो से बिछडने का दर्द 5 वर्षीय नन्ही प्रियंवदा को जितना हो रहा था उससे कही ज्यादे दर्द दोनो बडे भाईयो को भी बहन से बिछडने का हो रहा था पर निश्चिन्तता इस बात की थी कि बहन के जीवन मे शिक्षा की अलख जग रही थी तो भाईयो ने खुशी - खुशी यह त्याग करना स्वीकार कर लिया !
कहते है बेटियां पैदाइशी ही जूही, चंपा, हरसिंगार, के फूलों की तरह अप्रतिम सुगंधा की स्वामिनी होती हैं, इन्हे स्नेह, सहयोग,तरक्की और विश्वास की हवा का जरा सा स्पर्श मिल जाए तो यह पूरे समाज को अपनी सुगंधा से महका देने की कूबत रखती हैं ! वर्ष 1930 मे 5 वर्षीय अबोध बच्ची प्रियंवदा के साथ भी ऐसा ही हुआ। माँ - बाप छत्र छाया से मरहूम बच्ची को जब शिक्षा का लैम्प मिला तो उसने अपने जीवन मे स्वयम उजियारा फैलाना शुरू कर दिया ! पांचवी कक्षा तक वह विद्यालय एवं जिला स्तर पर अव्वल नम्बर से अपनी कक्षा मे टाप करती रही ! गणित,अंग्रेजी,संस्कृत,हिन्दी सभी विषय पर मजबूत पकड रखने वाली प्रियंवदा को पांचवी कक्षा मे जिले मे टाप करने के लिए उस जमाने में स्कॉलरशिप मिली थी । उस दौर मे किसी लडकी का पढाई मे इतना मेधावी होना निश्चित रूप से आश्चर्यजनक बात थी, किन्तु प्रियंवदा थी ही इतनी होनहार की उससे कुछ भी विलक्षण करने की उम्मीद की जा सकती थी ! प्रियंवदा की इसी विलक्षण मेधा को देखते हुए शिक्षा विभाग द्वारा आगे आठवीं क्लास तक की भी उसकी पूरी पढाई नि:शुल्क कर दी गयी थी, जिसके तहत छठी क्लास में प्रियंवदा का दाखिला राजकीय जूनियर हाई स्कूल जो उस वक्त ( महिला सेवा सदन ) के नाम से चलाया जाता था में हुआ यहाँ भी प्रियंवदा ने सफलता की इबारत लिखे और छठी क्लास से लेकर आठवी क्लास तक की अपनी पढ़ाई एक टापर्स छात्रा के तौर पर ही पूरी की ! हर क्लास मे अव्वल आने पर जिला स्तर पर प्रति वर्ष उसे सम्मानित किया जाता था एवम स्कालरशिप भी दी जाती थी ! प्रचार्य ने इसके अविभावक बडे भाई से स्पष्ट कह दिया था इस बच्ची की आगे की पढ़ाई जारी रखवाइए क्योकि इसकी मेधा असाधारण है यह बहुत आगे जाएगी !
किन्तु आठवी कलास की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही एक अप्रत्याशी घटना घटी यथा विद्यालय एवम बच्ची दोनो की प्रबल इच्छा थी कि आगे की पढ़ाई जारी रहे पर वर्ष 1940 के तात्कालीन भारतीय सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के अनुरूप 13 वर्ष की छोटी उम्र मे प्रियंवदा का बाल विवाह कर दिया गया ! उस वक्त राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज के नियम के लिहाज से भी यह विवाह बाल विवाह ही था परन्तु उस समय के भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप जब 9 या 10 वर्ष की अवस्था मे बेटी का विवाह करने का रिवाज था ऐसे मे लोगो की नजर मे प्रियंवदा की 13 वर्ष की उम्र भी ज्यादा उम्र करार दी जा रही थी ! 13 वर्षीय प्रियंवदा राजा राम मोहन राय के ब्रह्म समाज के नीतियो से भलिभाँति परिचित थी पर वह स्वयम के इस बाल विवाह का विरोध न कर सकी यह सोचते हुए कि माता - पिता के न होने पर भी दोनो भाई मिलकर उसकी बेहतर परवरिस किए, विरोधी परिवेश मे भी दोनो भाईयो ने उसे शिक्षा का प्रकाश दिया उनपर बडी जिम्मेदारी था प्रियंवदा का विवाह इस प्रकार वर्ष 1940 मे प्रियंवदा की पढ़ाई रोककर 13 वर्ष की छोटी सी उम्र मे इलाहाबाद जनपद के ग्राम - बरबोली, तहसील सोरांव, के एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार में प्राचार्य श्री कृष्णानंद पांडेय के बड़े बेटे त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ प्रियंवदा का विवाह समपन्न हुआ !
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{ 2 }
विवाह, पति, ससुराल का वातावरण, वर्ष 1940 से वर्ष 1942 के दौरान दो वर्ष तक ससुराल मे रहने का अनुभव एवम 1942 मे पति के सहयोग से प्रथम नौकरी मिलने के साथ ही ससुर पंडित कृष्णानंद पाण्डेय द्वारा घर से बेदखल किए जाने की अप्रत्याशित दर्दनाक घटना एवम प्रियंवदा :
वर्ष 1940 मे जब प्रियंवदा पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय के साथ विवाह वन्धन मे बधकर ससुराल आयी तो बडी उम्र न होने के कारण आँखो मे कोई ऐसे सपने नही थे जो ससुराल मे पूरे न हो सके ? सास ससुर देवर नात रिश्तेदार सबकी लाडली थी ! चूँकि प्रियंवदा का विवाह प्रयागराज के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था तो परिवार की शान एवम परम्परा के अनुसार बहू का ज्यादे पढ़ना लिखना कोई बहुत मायने नही रखता था उस दौर मे घर मे पुरूष प्रधानता होने के कारण आगे की पढ़ाई जारी रख पाना भी सम्भव नही था इसलिए 13 वर्षीय प्रियंवदा भी उसी माहौल मे रचने बसने लगी जो उस घर की अन्य महिलाओ के लिए पूर्व से ही तैयार था यथा रसोई घर से लगायत बच्चो बडो की देखभाल करना खाना बनाना खिलाना बाकी समय बचा तो आपस मे घर की महिलाओ के साथ बात चीत करना ! गम्भीर मुद्दो पर घर की औरतो का विचार कोई मायने नही रखता था फैसले लेने के अधिकार केवल पुरूषो को ही थे ! औरतो का दायरा सिमित था !
प्रियंवदा पढ़ाई में मेधावी छात्रा रही है यह बात पति श्री त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को पता थी दो साल 1940 से 1942 पत्नी के साथ गुजरने के बाद वह इस बात से भी परिचित हो चुके थे कि पत्नी मे धैर्य, सहनशक्ति, और उदारता कूट - कूट कर भरी है ! वह जान चुके थे कि पूरे परिवार को साथ लेकर चलना, सबकी तरक्की की बात सोचना पत्नी का विशेष गुण था जो उन्हे औरों से अलग साबित करता था ! चूँकि वह स्वयम अभी अपनी पढ़ाई पूरी करने मे व्यस्त थे इस लिए बाकी कोई और बात उनके दिमाग मे नही थी सिवा प्रियंवदा का सम्मान करने के ! शादी के बाद जब कुछ समय बीता तो एक बेरोजगार पति के जीवन मे जो प्राथमिक समस्याएँ आती है त्रिलोकी नाथ जी भी उससे अछूते न रहे परिवार की आर्थिक हालत बहुत उन्नत थी परिवार का सामाजिक सम्मान भी बहुत था पर एक पति के तौर पर त्रिलोकी नाथ जी के जीवन मे अर्थ की समस्या आने लगी थी ! चूकि अपनी स्वयम की पढ़ाई को भी देखना था और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारी भी निभानी थी और उम्र भी इतनी नही थी कि कोई बडा फैसला लिया जाए कही बाहर जाकर नौकरी करने का क्योकि परिवार “ माता पिता” इसके लिए तैयार नही होता घर के बडे बेटो होने के नाते पण्डित जी कुछ समझ नही पा रहे थे इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए कि इसी बीच आस - पड़ोस के कुछ एक बड़े बुजुर्गों ने उन्हे अपना सुझाव देते हुए उनसे कहा कि: त्रिलोकी बेटा तुम्हारी पत्नी तो आठवीं कक्षा तक पढ़ी है और सुना है पढ़ने में बहुत मेधाकी रही है क्योँ नही किसी प्राथमिक विद्यालय मे उसकी नौकरी लगवा दे रहे हो ? इस वक्त तो अंग्रेजी हुकूमत भारतीय महिलाओं को शिक्षण कार्य मे नियुक्ति देने हेतु काफी सहयोग कर रही है ! पंडित जी को आस पडोस के बड़े - बुजुर्गों की यह बात भा गई उन्होने बिना पत्नी से इस बाबत कोई जिक्र किए ही पहले स्वयम ही सारी जानकारी प्राप्त किया और जब पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए तो नौकरी करने का प्रस्ताव पत्नी के सामने रखा पत्नी सरल स्वभाव की थी उन्हे एक बार के लिए तो बति की कोई बात सही से समझ ही नही आई वह बडी शालीनता के साथ पति से बोली इसके लिए आप पिता जी, माता जी, से बात करिए अगर उनकी सहमति मिलेगी तो मुझे कोई इनकार नही है नौकरी करने से लेकिन अपने बडो की मर्जी के बिना मै शायद ही सोचूँ नौकरी करने के लिए । जब पति ने पूछा अगर बडे तैयार हो गए तब तो तुम्हे कोई आपत्ति नहीं होगी न ?
पत्नी ने जवाब दिया जी नही !
इसके बाद पंडित त्रिलोकी नाथ जी ने पिता से इस विषय पर चर्चा करने का मन बनाया और अगले दिन पिता के विद्यालय से घर वापस आने के कुछ देर बाद पिता के सामने अपनी बात लेकर हाजिर हुए ! एक ऐसे परिवेश मे पंडित त्रिलोकी नाथ पाण्डेय जी पत्नी की नौकरी की बात करने के लिए पिता के सामने खडे थे जब पत्नी की नौकरी हमारे गुलाम भारतीय समाज मे शर्म और अपमान का विषय घोषित था !
खैर हिमम्त जुटाकर पत्नी की नौकरी के लिए पिता से बात करना अभी शुरू ही किए थे कि पिता आग बबूला हो गए बेटे पर बरसते हुए बोले यह विषय लेकर मेरे पास आने से पहले एक बार मेरी इज्जत और सामाजिक रूतबे का तो खयाल तर लिया होता तुमने, बहू से नौकरी करवा कर परिवार के सम्मान को दाँव पर लगाने और मेरी नाक कटवाने के अलवाँ क्या तुम्हारे पास कोई और काम नही बचा है अब ? बहू कमाएगी और तुम खाओगे इससे तो बेहतर होगा कही जाकर चुल्लू भर पानी मे डूब मरो ! पराधीन भारत मे पंडित शायद पहले पुरूष थे जो स्त्री उन्नति के लिए पिता के कोप का भाजन बन रहे थे तभी तो पिता के गुस्से की परवाह किए बिना ही अपनी बात दुहराते रहे यथा पिता जी इसमे नाक कटने जैसी क्या बात है सरकार विशेष सुविधा सहित महिलाओँ को यह अवसर जब दे रही है तो उसका लाभ लेने मे क्या अनुचित है ! मुझे तो कोई शर्म नही आती पत्नी की नौकरी लगने से ! मै तो केवल नौकरी ही नही बल्कि यह भी चाहता हूँ मेरी पत्नी अपनी आगे की पढ़ाई भी पूरी करे और बडी नौकरी मे लगे ! बेटे के मुह से इतनी बात सुनने के बाद पिता की त्योरी चढ़ गयी लगभग चीखते हुए बोले मेरी बात गौर से सुन लो अगर पत्नी से नौकरी नही करवानी है तब तो हमारे परिवार के साथ इस घर मे एक छत के नीचे रहो किन्तु पत्नी से नौकरी करवानी है अगर तो इसी वक्त मेरा घर छोडना होगा यही नही मै तुम्हे अपने परिवार के साथ के हर तरह के सम्बन्ध से बेदखल करता हूँ । पहले तो जमकर अपशब्द का प्रयोग फिर बात इससे भी न बनी तो बेटे के सामने उपरोक्त दो राश्ते रख दिए पिता की पहली शर्त के बजाय दूसरी शर्त पाण्डेय जी को सही लगी उन्होने दूसरी शर्त के लिए पिता जी को बताया पिता ने दूसरी शर्त मँजूर करने की बात सुनकर बेटे के शरीर से पैन्ट शर्ट उतरवा लिए और केवल निक्कड बनियान मे बेटे को पत्नी सहित अपने घर से बेदखल कर दिए । पिता का फरमान सुनकर त्रिलोकी नाथ पाण्डेय बिल्कुल घबराए नही वजह पिता द्वारा किए गए इस फैसले के लिए वह कहीँ न कहीँ तैयार अत: अपनी आत्मा की आवाज सुनते हुए वही करने को तैयार हुए जो उचित था ! पत्नी की शैक्षणिक योग्यता पर पुरूषत्व का बेजा अँहवाद हावी नही होने देना चाहते थे वह समझते थे यह अँह पूरी तरह गलत है ! चूँकि अगली सुबह ही प्रियंवदा को लेकर कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचना था नौकरी का चार्ज दिलवाने, इसलिए वह पिता के पास से सीधे पत्नी के पास पहुँचे पूरी घटना पत्नी को बताए और अपने साथ चलने को बोले ! पत्नी को ससुर की बात की अवहेलना करके घर छोडना गँवारा नही लग रहा था किन्तु बात जब पति ससुर मे से किसी एक के राश्ते के चुनाव की आ गयी तो प्रियंवदा ने पति का राश्ता ही चुनना उचित समझा ! और पति के साथ ससुराल की दहलीज पार कर एक नयी राह पर कदम रखने की पहल किया ! केवल निक्कड बनियान मे ससुर द्वारा घर से बेदखल किए गए अपने पति के साथ मीलोँ पैदल चलकर देर रात वह अपने मायके जमनीपुर पहुँची ! रात भर ससुराल मे गुजारने के बाद सुबह पति पत्नी कोटवा प्राथमिक विद्यालय पहुँचे प्रचार्य से मिलकर प्रियंवदा ने चार्ज लिया और नई जिम्मेदारी के साथ जुड गयी ! उनकी यह नौकरी उस वक्त महिला सशक्तिकरण का प्रथम उदाहरण था ! क्योकि इस नौकरी के साथ ही हमारे समाज एवम सम्भ्रान्त परिवार की कई सारी जटिल वर्जनाए टूट रही थी ! 1942 से 1952 तक कोटवा प्राथमिक विद्यालय मे बतौर शिक्षिका नौकरी करने के साथ ही प्रियंवदा ने कुशलता पूर्वक अपने पति एवम स्वयम अपनी आगे की पढ़ाई का खर्च सम्हाला ! अपनी 13 रूपए की वेतन वाली नौकरी के साथ पति की पाकेट मनी, फीस, अपनी पढ़ाई की फीस और तीन बच्चो ( बेटा शशिकान्त, बेटा प्रभात कुमार, एवम बेटी ऊँमा ) के पालन पोषण की जिम्मेदारी बहुत कुशलता पूर्वक निभाया !
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वर्ष 1948 मे उत्तर प्रदेश के को-आपरेटिव बैंक में पति की प्रथम नौकरी लगना, वर्ष 1952 मे 10 साल की अपनी शैक्षणिक सेवा से स्थिपा देकर नयी नौकरी के लिए प्रियंवदा का मध्य प्रदेश के सतना जिले मे जाना “तात्कालिक पंचायत एवं समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत “LSEO” लेडिज सोशल एजुकेशन आर्गेनाइजर” की पोस्ट पर नियुक्त होना, 3 माह इस पद पर नौकरी करने के बाद स्थिपा देकर इलाहाबाद लौट आना एवम पुन: शैक्षणिक कार्य से जुडना, प्रियंवदा के नाम तत्कालीन सतना कलेक्टर का तार आना और प्रियंवदा का सतना जाकर कलेक्टर से मिलना :
वर्ष 1948 में सहकारी बैंक में पति त्रिलोकी नाथ पाण्डेय को नौकरी मिली उनकी पहली पोस्टिंग धारूपुर इलाहाबाद में हुई ! पति को मिली इस नौकरी से प्रियंवदा को बहुत खुशी हुई क्योकि यह नौकरी स्वयम उनके उस सहयोग एवम त्याग का प्रतिफल थी जो उन्होने पति के साथ ससुराल से बेदखल होने और प्राथमिक विद्यालय की नौकरी का चार्ज लेने के बाद लगातार वर्ष 1942 से वर्ष 1948 तक किया था !
13 रूपए की नौकरी मे पति की आगे की पढाई पूरी करवाना, पति को नौकरी मिलने से पूर्व तक उनके जेब खर्च से लेकर अन्य तरह के खर्च तक की जिम्मेदारी अपने उपर लेना, स्वयम 12वी तक की अपनी पढाई पूरी करना, तीन बच्चों को जन्म देना, उनकी स्वस्थ्य देख - भाल करना साथ ही सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक स्कूल की नौकरी करना यह सब किसी महिला के लिए उस दौर मे आसान कार्य नहीं था ! किन्तु प्रियंवदा ने बहुत ही ईमानदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया ! जिस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लम्बे संघर्ष के बाद देश ने नयी - नयी आजादी मिलने की खुशी पाई थी कुछ वैसी ही खुशी अब प्रियंवदा भी महसूस करने रही थी अपने जीवन मे क्योकि प्रियंवदा ने भी तो अब तक “21 साल उम्र तक” तात्कालीक समाज और परिवार की जटिल व्यवस्था के विरूद्ध एक लम्बी लडाई लडकर अपने जीवन मे यह नव विहान देखा था। 1925 के भारतीय माहौल मे पैदा हुई इस देश की किसी बेटी का पढ़ाई करना, घर की दहलीज पारकर नौकरी मे आना देश को मिली आजादी जैसी ही तो एक आजादी थी वह भी एक महिला के रोजगार परक आत्मनिर्भरता की आजादी !
पति की नौकरी हो जाने के चार वर्ष बाद तक प्रियंवदा ने अपना शैक्षणिक कार्य जारी रखा फिर एक रोज वर्ष 1952 मे पति ने उनके सामने उनके लिए नयी नौकरी का प्रस्ताव रखा नौकरी नयी थी और वेतनमान भी अधिक था तो नौकरी के प्रति प्रियंवदा का कौतुहल बढ़ गया ! लेकिन उनके सामने जो बडी समस्या थी वह यह कि नौकरी उत्तर प्रदेश मे नही बल्कि मध्य प्रदेश के सतना जिले के लिए थी ! चूकि वर्ष 1948 मे रीवा संभाग के अंतर्गत सतना को नया जिला बनाया गया था और आजादी के बाद नया जिला बनने की वजह से सन 1952 मे केन्द्र सरकार की नई नीति के अनुसार महिलाओ, लडकियो, के लिए तात्कालिक पंचायत एवम समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत सरकारी नौकरी मे पढ़ी लिखी महिलाओं एवं लड़कियों को लाने के लिए बहुत सारे पदों की पर रिक्तियां निकाली गयी थी ! जैसा की हम सब इस सत्य से अवगत है कि अंग्रेजी हुकूमत के लिए मध्य प्रदेश का रीवा संभाग एवम उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद मण्डल सैन्य सेवा एवम व्यापार के मुख्य आधार थे, इस दृष्टिकोण से रीवा संभाग के अंतर्गत आने वाले जबलपुर जिले एवम इलाहाबाद के बीच ब्रिटिश काल मे ही काफी समय पहले रेल सेवा का आरम्भ कर दिया गया था जिसमे सतना रेलवे स्टेशन की भूमिका मुख्य थी ! याने के 1947 मे देश को आजादी मिलने के बाद मध्य प्रदेश एवम तात्कालिक संयुक्त प्रान्त ( जो की 24 जनवरी सन 1950 को भारत के गवर्नर जनरल द्वारा संयुक्त प्रान्त से बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया ) के बीच एक दूसरे के यहाँ के युवाओ के लिए रोजगार के द्वार खुले ! उत्तर प्रदेश की दक्षिण दिशा में मध्यप्रदेश की सीमा आने की वजह से एवम मध्य प्रदेश मे हो रहे नव विकास के लिहाज से जबलपुर, सतना, इलाहाबाद, बनारस, के बीच युवाओ का रोजगार के लिए प्रस्थान भी हो रहा था ! इसी रोजगार परक प्रस्थान की एक कडी के रूप मे पति द्वारा प्रियंवदा के लिए भी एक नया अवसर आया था सतना जिले मे नौकरी हेतु ! जोकि पति त्रिलोकी नाथ जी के कुछ अपने ऐसे शुभचिन्तको द्वारा सुझाया गया था जो स्वयम इलाहाबाद से ही जाकर सतना मे अधिकारी नियुक्त हुए थे ! पति प्रस्वाव जब समझ मे आया तो वह सतना म०प्र० जाकर नौकरी करने को तैयार हो गयी इस प्रकार वर्ष 1952 मे प्रियंवदा 10 साल की शैक्षणिक नौकरी से स्थिपा देकर अपने तीन छोटे बच्चो के साथ नौकरी करने सतना (म०प्र०) पहुँची ! सतना मे उनको तात्कालिक पंचायत एवं समाज सेवा विभाग मध्य प्रदेश के अंतर्गत LSEO लेडिज सोशल एजुकेशन आर्गेनाइजर के पद पर नियुक्ति मिली ! पति से दूर होकर दूसरे प्रदेश मे नौकरी करना आसान काम नही था पर पति के सहयोग से दूसरे प्रदेश मे नौकरी करने जाना उस समय यह साहस से परिपूर्ण एक बडी ही अनोखी घटना थी हमारे भारतीय समाज के लिए।
प्रदेश अलग, नौकरी अलग तरह की, और जिम्मेदारी भी अब जरा अलग तरह की हो गयी थी क्योकि नौकरी के साथ साथ तीन बच्चो की देखभाल भी खुद ही करना था !
तीन माह तक उपरोक्त पद पर पूरी निष्ठा के साथ काम करती रही सभी इनके काम से खुश थे कि एक दिन अचानक दफ्तर की टेबल पर स्तीफा पत्र रख कर बच्चो के साथ चुपचाप इलाहाबाद लौट आई और सप्ताह भर बाद ही पुन: शिक्षक के रूप में अपनी सेवा देनी शुरू कर दी ! सेवा देते हुए कुछ माह ही बीते थे कि एक दिन इनके नाम से सतना कलेक्टर का तार आ गया एक तो तार उपर से सतना कलेक्टर का इनके घर मे ही नही बल्कि पूरे गाँव मे हड़कंप मच गया इस चिन्ता के साथ की आखिर प्रियंवदा ने सतना मे नौकरी करते हुए ऐसा क्या गलत किया कि कलेक्टर सतना का तार आ गया इसके नाम से ? हड़कंप मचने की मुख्य वजह यह थी की तार मे केवल इतना ही लिखा था प्रियंवदा पाण्डेय अविलम्ब सतना आकर मुझसे मिलिए। द्वारा जिलाधिकारी सतना !
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{ 4 }
प्रियंवदा का सतना जिलाधिकारी से मिलने जाना, प्रियंवदा एवम जिलाधिकारी सतना की मीटिंग, मीटिंग मे प्रियंवदा द्वारा इस्तीफा दिए जाने की वजह बताया जाना, एवम जिलाधिकारी द्वारा हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराते हुए प्रियंवदा को पुन BDO बेसिक परियोजना अधिकारी की पोस्ट पर नयी नियुक्ति देना :
तार कलेक्टर का था, तार मे केवल अविलम्ब आकर मिलने की बात लिखी गयी थी और इस बात से परिवार सहित गाँव जवार मे हड़कंप मच गया था तो यह भी लाजमी हो गया था कि गाँव समाज के उच्च शिक्षित जानकार लोगों के साथ इसके बाबत कुछ आधे - एक घंटे की बैठकी करके यह सुझाव लिया जाए की करना क्या चाहिए ? पंडित त्रिलोकी नाथ ने जानकार शिक्षित लोगो के साथ बैठकी की और बैठकी मे तय हुआ की पति त्रिलोकी नाथ एवम गाँव के तीन चार उच्च शिक्षित जानकार लोग प्रियंवदा को लेकर सतना जिलाधिकारी से मिलने जाएँगे ! दो दिन बाद पति सहित अन्य लोगो के साथ प्रियंवदा सतना जिलाधिकारी कार्यालय पहुँची, जिलाधिकारी को अपना परिचय देते हुए तार भेजकर उन्हे मिलने आने के लिए बुलाने की बात से अवगत कराते हुए हुए इस बुलावे की वजह पूछीँ, जिलाधिकारी ने अपने सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए प्रियंवदा से पहला प्रश्न किया यथा :
प्रश्न जिलाधिकारी : मैडम प्रियंवदा पाण्डेय आपने अपनी नौकरी से इस्तीफा क्यो दिया ?
उत्तर प्रियंवदा पाण्डेय : सर मेरे पति उत्तर प्रदेश मे पोस्टेड है मै सतना मे तीन छोटे बच्चों के साथ अकेले नौकरी कर रही थी, रहने के लिए एवम बच्चों की देखभाल के लिए कोई सुविधा नही मिली थी, किराए का घर ले कर रहना था मुझे साथ ही बच्चों के लिए कोई सहायक न होने की वजह से घर एवम दफ्तर का काम मुझे ही करना था जो कि मुझसे मैनेज नही हो पा रहा था इसी लिए मैने नौकरी से इस्तीफा दे दिया !
प्रश्न जिलाधिकारी : मैडेम अगर आपको सतना मे रहने हेतु सरकारी आवास एवम attendant { परिचारक } की सुविधा दे दी जाए तो क्या आप पुन: सतना मे नौकरी करने को तैयार हैं ?
प्रियंवदा को एक पल के लिए महसूस हुआ जैसे कलेक्टर ने उनके मन की बात कह दी हो उन्होने जवाब देते हुए कहा सर मेरे नौकरी छोडने के पीछे यही एक वजह थी, अगर मेरी वजह की पूर्ति होती है तो मुझे यहाँ नौकरी करने से कोई इनकार नही है ! साथ बैठे पति की भी इसमे हाँ थी अत: पुन: नौकरी के लिए प्रियंवदा की सहमति पाकर जिलाधिकारी सतना ने उसी दिन BDO “बेसिक परियोजना अधिकारी” के पद पर उनकी नियुक्ति कर दिया ! साथ ही अगले दिन जिला पंचायत अधिकारी का बंगला उनके रहने के लिए आवंटित करते हुए 24 घंटे साथ रहने परिवार बच्चो की देखभाल करने के लिए एक attendant “परिचारक” की सुविधा भी उपलब्ध करा दिए !
कलेक्टर सतना के इस कदम से पुरूष बर्चश्व वाले सरकारी महकमे मे विरोधी स्वर गूँजने लगे हर कोई यह जानना चाहता था की आखिर कौन सी ऐसी वजह है जिसके चलते कलेक्टर सतना ने वह सारी सुविधाएँ एक महिला कर्मी को उपलब्ध करा दिया जो उस वक्त किसी सरकारी अधिकारी को भी उपलब्ध नही थी !? सवाल समय परिवेस जनित था उस वक्त जब महिलाएँ घर की दहलीज पार करने से पूर्व भी सौ बार सोचती थी भी ऐसे मे एक महिला का पढ़ी लिखी होना, पढ़ी लिखी होने के साथ साथ अधिकारी हो जाना यह उस वक्त के पुरूष समाज मे पचा पाना सम्भव नही था ! यह बात और है कि उसी वक्त के समाज मे वह शुभचिन्तक जिसकी वजह से प्रियंवदा बच्चो के नि:शुल्क स्कूल पढ़ाई करने पहुंच पाई थी, माँ पिता के गुजरने के बाद बहन के प्रति माँ पिता वाली जिम्मेदारी अपने कन्धे पर लेने वाले दोनो सगे बडे भाई जयराम, हरिराम, पति त्रिलोकी नाथ जी और सतना के कलेक्टर जैसे उदार चरित्र भी मौजूद थे जिन्होने अपना प्रियंवदा के व्यक्तित्व को स्थापित करने मे अपना अहम योगदान दिया था एवम देश की हर एक बहन, बेटी, महिला, की तरक्की एवम आत्मनिर्भरता चाहते थे ! कलेक्टर सतना को लोगो द्वारा किए जा रहे बेजा बातचीत से कोई लेना देना नही था ! वजह उस वक्त सतना जिला सीधे दिल्ली के रडार पर था ! नया जिला होने के नाते केन्द्र सरकार द्वारा जिलाधिकारी को सख्त हिदायत थी कि उनके जिले मे कितनी औरते सरकारी विभाग मे नौकरी करने घर से बाहर निकली उनका व्योरा रखा जाए साथ ही अगर किसी महिला ने नौकरी छोड दिया है तो उस महिला से मिलकर इस बात का पता लगाया जाए कि : उसने नौकरी क्यो छोडा इसके पीछे की वजह का पता लगाया जाए और और उसकी वापसी एवम नौकरी बहाली का इन्तेजाम किया जाए साथ ही पूरी घटना का व्योरा केन्द्र सरकार के सम्बन्धित विभाग को भेजा जाए ! वैसे तो उस वक्त केन्द्र सरकार की यह हिदायत भारत के सभी जिले के जिलाधिकारी को थी ! चूकि यहाँ हमारा केन्द्रबिन्दु प्रियंवदा पाण्डेय जी के चरित्र चित्रण से है तो हम यहाँ उनकी कर्म स्थली सतना पर ही केन्द्रित होँगे प्रियंवदा पाण्डेय की केस मे सतना कलेक्टर के साथ यही हुआ था! प्रियंवदा द्वारा सतना से स्तीफा देकर प्रयागराज वापस लौट आने के बाद सतना कलेक्टर को उपर तलब किया गया और दबाव बनाया गया की आपके यहाँ नौकरी करने वाली महिला प्रियंवदा अपनी नौकरी छोडकर क्यो गयी इसका पता लगाया जाय और प्रयास हो प्रियंवदा नौकरी पर लौट आएँ । सरकार की नीतियाँ नयी नयी थी उस वक्त ! आजादी के बाद की सरकार भी नयी नयी थी और देश मे स्त्री शिक्षा न के बराबर थी इसलिए केन्द्र सरकार स्त्री शिक्षा और स्त्री के रोजगार परक आत्म निर्भरता के प्रति गम्भीर थी ! 1952 के दौर मे एक - दो जो पढ़ी लिखी महिलाएँ घर से निकलकर नौकरी करने बाहर आती थी उनका मनोबल बढ़ाने हेतुसरकार एक्सपोजर दे रही थी !
सतना कलेक्टर से मिलने के बाद अपनी जरूरत के हिसाब से सुविधा पाकर प्रियंवदा पुन: नौकरी पर जब लौटी तब जिम्मेदारी और बडी हो गयी थी ! कलेक्टर सतना ने BDO बेसिक परियोजना अधिकारी के पद पर उन्हे नियुक्त करते हुए एक बेहद जिम्मेदारी भरा बडा कार्य सौप दिया ! यह जिम्मेदारी थी आसपास की तहसील मे जाकर लडकियो महिलाओ को शिक्षा अर्जन करने के लिए , नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित करना! प्रियंवदा ने पूरे समर्पण भाव से इस प्रोजेक्ट पर खुद को लगाया तहसीलो मे गयी लडकियो को महिलाओ को प्रोत्साहित किया इस कार्य मे स्वयम सतना कलेक्टर भी इन्हे अपना सहयोग दे रहे थे कुछ ही साल मे परिणाम यह हुआ कि सतना मे जब भी कभी बालिकाओं, महिलाओं के बीच शिक्षा की अलख जगाकर उन्हे शिक्षा एवम रोजकार से जोडने की बात चलेगी तो आपके उस अथक योगदान का जिक्र हुए बीना यह बात अधूरी रहेगी जिसके अंतर्गत अपने 400 से 500 तक के बीच घरो मे जाकर शिक्षा की अलख जगाया और लडकियो को स्कूली शिक्षा से जोडा !
6 जनवरी 1952 को पण्डित जवाहर लाल नेहरू का सतना जिले का दौरा साथ ही सतना मे उच्च पदो पर कार्यरत जिम्मेदार अधिकारियो से महिलाओं बालिकाओं की शिक्षा के प्रति गम्भीर होने का आवाहन करना भी एक वजह थी !
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{ 5 }
वर्ष 1970 का दौर एवम नयी कार्यप्रणाली के मानक पर खुद को साबित करती प्रियंवदा :
70 का दसक और प्रियंवदा की कार्य शैली बहुत अलग तरह की हो गयी थी घर और नौकरी दोनो के प्रति यथा : 70 के दसक मे तेजी से समाज मे जागृति आ रही थी वह जो महिलाए टेम्पररी नौकरी मे आई थी उन्हे परमानेन्ट किया जा रहा था ! ऐसे मे प्रियंवदा पाण्डेय द्वारा भी जो महिलाए टेम्पररी सेवा मे लगाई गयी थी वह बहाल कर दी गयी ! अब इसके साथ ही आरम्भ हुआ महिला बाल विकास पंचायती राज की ट्रेनिग का दौर सरकार के नियम मे बहुत सारे बदलाव हो चुके थे तो प्रियंवदा के लिए भी ट्रेनिग जरूरी था अत: भारत के विभिन्न शहरो मे जहाँ जहाँ ट्रेनिंग सेन्टर बनाए गए थे
इन्हे ट्रेनिग के लिए भेजा गया जिसमे प्रमुख रूप से
नागपुर मे एक माह की ट्रेनिंग,
इन्दौर मे एक माह की ट्रेनिंग
जबल पुर मे दो माह की ट्रेनिंग
भोपाल मे दो माह की ट्रेनिंग
मुम्बई मे एक माह की ट्रेनिंग
भारत सरकार के विशेष बुलावे पर अपने अधिनस्थ कार्यकर्ता महिलाओ को लेकर दिल्ली जाना, ऐतिहासिक स्थानो का भ्रमण करवाना, राष्ट्रपति भवन एवम लोकसभा का स्पेशल भ्रमण ।
जैसा की प्रियंवदा जी बताती है इस ट्रेनिंग के पीछे सरकार का उद्देश्य यह था कि वह महिलाएँ जो 1952 के बाद से नौकरी मे तो आई है किन्तु वह देश की भौगोलिक और ऐतिहासिक जानकारी से अनजान है, अत: देश दुनिया मे हो घट रही नयी नयी जानकारियो से उन्हे समृद्ध किया जाए! सरकार की नयी - नयी परियोजनाओ से अवेयर किया जाए ! वह बताती है मुझे शहर प्रदेश से बाहर भेजा जाता था तो मेरी सुविधा का पूरा खयाल रखा जाता था ! सरकार का सख्त आदेश था किसी महिला को ट्रेनिंग एवम यात्रा के दौरान किसी तरह की परेसान का सामना न करना पडे ! इस
दौरान महिलाओ को साथ लेकर विभिन्न शहरो मे जाने हेतु सरकार की तरफ से बाल विकास पंचायती राज सेवा विभाग की बसें उपलब्ध कराई जाती थी साथ मे पर्याप्त परिचारक मिलते थे ! हम अपने बच्चो को भी साथ ले जा सकती थी ! हमारे रहने खाने पीने की व्यवस्था सरकारी क्वाटर मे करवायी जाती थी जहाँ - जहाँ जिस - जिस शहर मे हमे ट्रेनिंग अथवा भ्रमण के लिए भेजा जाता हमारा काभी खयाल रखा जाता !
उस दौरान ट्रेनिंग के बाद पूरे वर्ष भर का हमारे सेवा का लेखा चोखा किया जाता और पुरस्कार स्वरूप सरकार द्वारा सर्वोत्तम employ का appreciation letter हमारे नाम हमारे दफ्तर मे भेजा जाता था ! उस वक्त तक मँच पर फूल माला देकर कर्मचारियो का सम्मान लगभग न के बराबर ही था और हमारे सम्मान के लिए सरकार की तरफ से साबासी पत्र आना ही बहुत बडा सम्मान था, मुझे गर्व है कि एक नही बल्कि कई बार मै भी अपनी अच्छी सेवा देने के लिए ऐसे सम्मान पत्र की पात्र बनी !
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{ 6 }
नारी निकेतन सुपरिटेनडेन्ट सतना के रूप मे प्रियंवदा पाण्डेय की सेवा :
{ 7 } एक स्त्री के तौर पर नौकरी मे रहते हुए पुरूष बर्चश्व के द्वारा मानसिक शोषण की शिकार प्रियंवदा :
{ 8 } पुरूष महिला के लिग भेद से उपर जाकर पुरूष बर्चश्व को धता बताते हुए खुद की सफलता तय करने वाली निडर प्रियंवदा :
{ 9 } नौकरी के साथ एवम नौकरी के बाद सामाजिक सरोकार से गहरे तक जुडी रहने वाली प्रियंवदा :
{ 10 } बडी सफलता अर्जित करने एवम आर्थिक रूप से एक आत्मनिर्भर महिला होने के बावजूद सफलता को पति - पत्नी के मधुर रिस्ते के दरम्यान कभी न आने देने एवम पति के लिए केवल एक सामान्य पत्नी बनकर सहज, सरल, सुंदर सम्बन्ध आजीवन कायम रखने वाली प्रियंवदा :
{ 10 } अपने बच्चो के लिए एक आदर्श माँ के रूप मे प्रियंवदा :
{ 11 } अपनी दिनचर्या को लेकर हमेशा संतुलित, संयमित एवं सख्त रही है प्रियंवदा !
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जिस समय हमारे समाज मे योग शिक्षा विलुप्त होने के कगार पर जा पहँची थी उस दौर मे भी प्रियंवदा पाण्डेय रोज सुबह 4 बजे बिस्तर छोडने के बाद नियमित एक घन्टा योगा किया करती थी जिनमे से कुछ एक आसन वह आज अपनी 94 वर्ष की उम्र मे भी करना जारी रखी है जैसे अनुलोम, विलोम, प्राणायाम, वज्रसान, ऊँ की ध्वनी, आदि ! किशोरा अवस्था से ही प्रात: काल एवम संध्या वंदन में पूरे लय गति के साथ शिव तांडव करने का उनका नियम रहा है जो आज भी जारी है ! हम कह सकते है एक अद्भूत मिसाल है वह हमारी आज की पीढ़ी के युवाओं के लिए। यह किताब लिखते समय जानकारी लेने हेतु हमारी यथा कदा उनसे टेलीफोन पर वार्ता होती रहती थी इसी वार्ता के दौरान एक दिन पूरे लय के साथ उन्होने हमे अपने स्वर मे शिव तांडव सुनाया जिसे सुनने के बाद हम स्तब्ध थे और यह समझने का प्रयास कर रहे थे कि शायद योगा के प्रति आजीवन झुकाव एवम खुद को फिट रखने के लिए अपने विल पावर को मजबूत बनाए रखना ही उनके 94 वर्ष की उम्र मे भी उन्हे सक्रिय बनाए हुए है ! उनकी यादास्त को दुरूस्त रखे हुए है तभी तो इस उम्र मे भी उन्हे न ब्लडप्रेसर की समस्या है ना ही सुगर की !
हमने अपने स्वर मे शिव तांडव की कुछ एक पंक्तियाँ यथा :
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
दुहराने की कोशिश किया तो हमारी सांसे उखड़ने लगी तब हमने यह महसूस किया कि युवा अवस्था मे हम जिस शिव तांडव की चार से छह पक्ति तक को भी सस्वर नहीं पढ़ सकते है वह शिव ताण्डव 94 वर्ष की उम्र मे भी नियमित रूप से दोनो जून प्रियंवदा पाण्डेय जी द्वारा सस्वर पढ़ा जाना निश्चित रूप से उनके जीवन भर की साधना का प्रतिफल है ! एक ऐसा प्रतिफल जो किसी के जीवन मे त्याग, स्वस्थ जिद, पूर्ण समर्पण, एवम अपने कर्तव्य के प्रति अपार निष्ठा से संभव हो पाता है, अनवरत संतुलित जीवन के आचार - व्यवहार से संभव होता है !
स्वास्थय के प्रति जीवन पर्यन्त वह सतर्क रही है यही वजह है कि वह आज भी अपनी देखभाल खुद करती है और अपनी दवाओं के प्रति भी स्वयं ही सजग रहती है। दवाई के प्रति लापरवाही न हो इसलिए अपनी सारी दवाइयों को अपने सिरहाने रखती है। और नियम से दवा लेती है। दोनो वक्त के भोजन के बाद कुछ देर टहलना आज भी उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा है !
होम्योपैथ की दवा का अच्छा ज्ञान रखती है और अपने प्रयोग मे भी जाती है ! स्वादिष्ट भोजन उनकी सदैव कमजोरी रहा है यहाँ तक की आज 94 वर्ष की उम्र मे भी इलाहाबाद स्थित नेतराम की प्रसिद्ध कचौरी दुकान की कचौरी और आलू दम की दीवानी है पर संतुलित मात्रा में एवम हफ्ते मे केवल एक बार ! इनका लजीज भोजन से गहरा लगाव सदैव रहा है, पर स्वाद पर संयम रखती थी पर स्वास्थ्य पर स्वाद को कभी हावी नही होने दिया क्योकि घर मे सख्त नियम बना रखी थी ! हफ्ते मे केवल एक दिन चटपटा भोजन करती थी जिसका नियम घर मे अपने बच्चो पर भी लागू कर रखा था इन्होने !
इनकी एक आदत जो इनकी साकारात्मक सोच को आज भी दर्शाती है वह है लोगो के दुख दर्द सुनकर उनके लिए आर्थिक एवं शारीरिक स्तर पर नि:स्वार्थ सहयोग करना, उनके बूरे वक्त मे सम्बल बन कर खडा होना ! “साकारात्मक रहो, साकारात्मक करो, साकारात्मक सोचो,” युवा अवस्था से आज तक इसी फॉर्मूला पर अमल करती आ रही है और अपना मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रखती है !
{ 12 } नौकरी के बाद भी सामाजिक सरोकार से जुडकर जीवन के हर आयाम पर अपना सतत योगदान देती रही प्रियंवदा यथा :
: गरीब बच्चोँ की शिक्षा मे योगदान : बचपन मे अभाव से बहुत करीब का नाता रहा है प्रियंवदा का इस लिए आर्थिक रूप से सक्षम होने के बाद गरीब बच्चो के लिए सदैव आर्थिक सहयोग देती रही एवम उनके शिक्षा अर्जन हेतु सक्रिय रही ! स्कूल भेजने से लगायत अन्य जरूरतो का ध्यान रखते हुए उन्हे सहयोग करती रही है!
: गरीब बोटियोँ एवम अभावग्रस्त लडकियोँ को बहुत सहयोग करती रही है, इनका यह कार्य शुरू तो सतना नारी निकेतन मे नौकरी के दौरान आने वाली सैकडो दुखी बेटियो का घर बसाने के साथ ही हो गया था, पर विशेष रूप से नौकरी से रिटायर होने के बाद इसे ज्यादे करती आ रही है और अपने परिवारी जनो को भी इसमे सहयोग करने के लिए प्रेरित करती रहती है ! हर लडकी की पीडा इन्हे अपनी पीडा लगती है क्योकि लडकी होकर इस समाज मे जीना कितना दूरूह है यह शायद इनसे बेहतर कोई और नही जान सकता !
: वर्षो से मानव सेवा सँस्थान राजस्थान को सालाना 20 हजार रूपए का गुप्त दान भी इनके द्वारा दिया जाता है कहने को तो यह गुप्त दान परिवार से छुपा कर दिया जाता है पर दान के रूपए बेटोँ द्वारा ही भेजवाती है इसलिए बेटो के हाथ दान के एमाउन्ट की जानकारी लग ही जाती है ! इनकी आत्कथा लिखते हुए इस रोचक घटना का जिक्र इनके परिवार के सदस्योँ ने ही हमसे किया ।
: नौकरी से सेवामुक्त होने के बाद बेसहारा बच्चोँ के लिए भी बहुत काम करती रही हैँ इसी काम के अन्तर्गत दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा के साथ इनका जुडाव हुआ दीदी माँ ऋतंभरा जो कि वर्तमान भारत भूमि पर जन्म लेने वाली महान साध्वी होने के साथ साथ दुनियाँ मे एक ऐसी अनोखी माँ है जो उन बच्चो को अपनी गोद मे सँरक्षण देती है जिन्हे उनकी अपनी माँ की गोद भी स्वीकार करने से इनकार कर देती है ! हर बच्चे मे राम, श्याम, नारायण, सीता, का चरित्र विकसित करने वाली माँ ऋतंभरा के बेहद करीब रहते हुए प्रियंवदा उन बच्चोँ के लिए हर वर्ष भूमि हेतु अर्थ दान देती है जिनका पालन पोषण दीदी माँ के आँगन मे होता है । यह दान वह कितना देती है परिवारी जनो से नही शेयर करती पर यहाँ भी बैँक जाकर बेटे ही एकाउन्ट मे पैसा जमा करवाते है इसलिए दिया जाने वाले दान का एमाउन्ट घर मे सबको पता चल जाता है ! बेटो ने बताया यह राशि एक लाख रूपए होती है !
{ 13 } अपनी 7 बहुओँ के लिए सास नही बल्कि माँ एवम दोस्त बनी रहने वाली प्रियंवदा : 7 बेटो एवम 7 बहुओँ के प्रति इनका व्यवहार सदैव आदर्श रहा है हाँ कही अगर कोई अनबन हुई तो बहुओ से नही अपने बेटो से होती है कारण इन्हे यह बरदास्त नही बेटे इन्हे दान पुण्य करने से रोके और बेटे है कि जानबुझकर इन्हे छेडने के लिए पूछा करते है अम्मा इस बार कितना दान दी है बेटो के मुँह से इतना सुनकर झुँझला जाती है और इन्हे इस प्रकार छेडने का सबसे ज्यादे रिकार्ड इनके बेटे ई० विनोद पाण्डेय जी के नाम है ! बहुओ के साथ रिस्ता बहुत मधुर रहा है पर दिनचर्या को लेकर सख्ती की हिमायती रहते हुए क्योकि अपने जीवन काल मे प्रियंवदा एक उच्च शिक्षित, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, सुलझी हुई महिला रही है है जिसकी वजह से दकियानूसी छोटी सोच से उनका दूर दूर तक का कोई वास्ता नही था अपने बेटा बेटी के लिए जहाँ वह एक कुशल माँ थी तो वही बहुओँ के लिए एक मित्रवत सास थी हाँ बहुँओ से कभी कोई सिकायत रही तो वह लजीज खाने को लेकर जो बहु इनके लिए लजीज खाना नाश्ता बनाए वह बहुत अच्छी जिसने फीका खाना बनाया खिलाया वह बिल्कुल अच्छी बहु नही ! बहुओ के साथ का रिश्ता खाने के टेस्ट पर निर्भर करता था ! अगर यह एक मुद्दा अनदेखा कर दिया जाए तो शायद इस दुनिया मे प्रियंवदा से प्यारी सास कोई दूसरी नही होगी होगी क्योकि बेटो की शादी के लिए बहुओ का चुनाव इन्होने बहुओँ की शिक्षा के आधार पर किया शिक्षा के मानक पर पैसे रूपए को कभी नही रखा !
{ 14 } हर प्रकार से एक आदर्श चरित्र प्रियंवदा :
{ 15 } दुनिया मे आत्मकथा तो हर रोज किसी ना किसी महान चरित्र की महानता पर लिखी जाती है और लिखी जाती रहेगी पर प्रियंवदा जैसे चरित्र की आत्मकथा लिखने का सौभाग्य कभी - कभी किसी - किसी को मिलता है ! कहना यहाँ उचित होगा कि विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता भी एक साथ मिलकर प्रियंवदा पाण्डेय जी की आत्मकथा को लिखते हुए अब उन्ही सौभग्यशाली लेखको मे शामिल हो गए है । क्योकि बडे घर, बडे शहर मे तो असँख्य प्रतिभाएँ जन्म लेती रहती है और उनकी जीवनी, उनकी आत्मकथा, लिखने की होड दुनिया भर के लेखकोँ के बीच चलती रहती है ! लेकिन हमे उस होड, उस प्रतिभा के पीछे कलम लेकर भागने से कही बेहतर लगी भारत के अभावग्रस्त छोटे से गाँव जमनीपुर मे 5 जुलाई 1925 को जन्मी वह जीवट बेटी जिसने छोटे से गाँव जमनीपुर के अभाव को कभी अपनी प्रतिभा के आडे नही आने दिया और विषम परिस्थिति, सुविधाओ का नितान्त अभाव, समाज के असहयोगात्मक व्यवहार, गैरबराबरी का दँश, झेलते हुए भी शून्य पर खडी होकर शिक्षा अर्जन का कार्य विपरित दौर मे किया, और ऐसे दौर, ऐसे समाज मे, खुद को खडा किया जहाँ पुरूषोँ के बीच भी शिक्षा 2 प्रतिशत से अधिक नही थी ! 5 वर्ष की उम्र मे माता पिता की ममता से मरहूम जमनीपुर गाँव की इस अनाथ मेधा ने समाज को यह बता दिया कि माँ बाप का सानिध्य भी हमारे साथ आजीवन नही रह सकता लेकिन केवल शिक्षा का लैम्प ही एक ऐसा स्वस्थ माध्यम है जो जीवन पर्यन्त हमारे साथ बना रहता है और समाजिक असमानता, व्यवहारिक असमानता, स्त्री - पुरूष के बीच की असमानता, एवम गाँव - शहर के भाव - अभाव की असमानता को मिटा कर समानता का स्वस्थ वातावरण तैयार कर सकता है ! देश, परिवार, की उन्नति का वाहक बन करता है ! इस देश की किसी भी बेटी को प्रियंवदा की तरह समाज मे स्थापित कर सकता है । जिसका आदर्श चरित्र लाखो बेटियो की प्रेरणा बन जाए । हमारे समाज की आदर्श चरित्र प्रियंवदा पाण्डेय जी के इस आत्मकथा का एक -एक पन्ना प्रेरणा से भरा है क्योकि उनके जीवन की एक - एक घटना स्मरणीय एवम प्रेरक है जो उनके चरित्र को इस समाज के लिए आदर्श बनाती है ! यह आत्मकथा लिखकर हमने समाज मे छुपे हुए अनमोल हीरे को समाज के सामने लाने का एक प्रयास किया है ! यह किताब हम इस भाव के साथ अपने समाज,अपने देश, अपने पाठक वर्ग के नाम कर रहे है कि :
समाज हित मे यह आत्मकथा केवल एक पुस्तक भर नही बल्कि एक माँ को समर्पित प्रेरणामयी, अनुकरणीय प्रार्थना है हमारी तरफ से !!
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कलम से :
विभांशु जोशी एवम भारद्वाज अर्चिता
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