atal varshi

एक सधे हुए पत्रकार एवम संपादक का के रूप मे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का परिचय :
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बहुत कम लोगों को पता होगा मित्रों की पांचजन्य और राष्ट्र धर्म जैसी साप्ताहिक पत्रिका का कुशल सम्पादन भी किया था अटल बिहारी बाजपेयी ने!
बात 1947 की है उन दिनों भाऊराव देवरस यूपी के प्रांत प्रचारक थे! दीनदयाल उपाध्याय संघ के सह प्रांत प्रचारक हुआ करते थे! आरएसएस के कार्यक्रमों में अटल बिहारी वाजपेयी के कविता पाठ करने का यह स्वर्ण काल था स्वर्ण काल से आसय अपने काव्य पाठ उस वक्त सबसे ज्यादे दर्शक दीर्घा से अपने लिए तालियां बटोरते थे वह ! भाऊराव और दीनदयाल की नज़र इस युवा, प्रखर और ओजस्वी कवि पर पड़ी संघ के शिविरों में रात में होने वाले कार्यक्रमों के अटल नायक बन चुके थे जुलाई के महीने में दीनदयाल उपाध्याय, भाऊराव देवरस और अटल बिहारी वाजपेयी की सँयुक्त बैठक हुई और तय हुआ कि संघ के प्रचार प्रसार के लिए एक पत्रिका निकाली जाए लेकिन इसका नाम क्या हो ? अलग अलग नाम सुझाए गए कोई फ़ैसला नहीं हो पाया,भाऊराव एक दिन लखनऊ यूनिवर्सिटी में सीढ़ियों पर बैठे थे, चर्चा पत्रिका को लेकर शुरू हुई,किसी ने नाम सुझाया “राष्ट्रधर्म”. यही नाम फ़ाइनल हुआ एवम अटल ज़ी इसके पहले संपादक बने ! 31 अगस्त 1947 यानी रक्षाबंधन पर राष्ट्रधर्म का पहला अंक प्रकाशित हुआ!  इसी अंक में दीनदयाल उपाध्याय ने ‘चिति’ नाम से एक लेख भी लिखा था ! जिस पर आगे चल कर कई लोगों ने रिसर्च किया राष्ट्रधर्म के इसी अंक में पहले पन्ने पर उनकी दिन्दुस्तान को समर्पित कविता प्रकाशित हुई थी हिंदू 
                   तन मन,
                 हिंदू जीवन,
         रग रग हिंदू मेरा परिचय,
        मैं शंकर का वह क्रोधानल,
       कर सकता जगती क्षार क्षीर ॥ 
अटल जी की ये कविता बाद में बहुत प्रसिद्धी पायी !
राष्ट्र धर्म के पहले अंक की 3 हज़ार प्रतियां प्रकाशित हुई थीं ! उस दौर में भारत मे कोई भी हिंदी पत्रिका पाँच सौ से अधिक नहीं छपती थी ! राष्ट्रधर्म की सभी कॉपियाँ हाथों हाथ बिक गईं ! अटल जी के दिशानिर्देशन मे राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8 हज़ार
और तीसरे अंक की 12 हज़ार कॉपियाँ छापी गयी !
1 जनवरी 1948 को पाँचजन्य का पहला अंक प्रकाशित हुआ राष्ट्रधर्म की सफलता से प्रसन्न होकर संघ ने वाजपेयी को इसके सम्पादक की ज़िम्मेदारी दी ! पहली बार ऐसा हुआ कि अटल जी ने एक साथ दो पत्रिकाओं का संपादन किया !
अटल बिहारी वाजपेयी के संपादन का अंदाज निराला था ! उन दिनों लेटर प्रेस होने के कारण कंपोजिंग आज जैसा आसान नहीं था ! सामग्री देने के बाद जब पता लगता कि चार छह पंक्तियों की जगह ख़ाली छूट रही है तो कंपोजिटर दौड़ा दौड़ा आता था कि कुछ और लेख दे दीजिए, जिससे जगह पूरी हो सके ! अब गीत हो या कविता, अटल जी तुरंत उसमें चार छह लाइन जोड़ देते थे ! बाद मे अटल जी के साथ साथ भाऊराव देवरस और दीनदयाल उपाध्याय ने भी कॉपोजिंग सीख लिया  पत्रिका के संपादन के साथ साथ अटल जी साइकिल पर पीछे बाँध कर पत्रिका की प्रतियाँ बेचा भी करते थे !
एक पत्रकार की एक पत्रकार को उसके प्रथम पुण्य तिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
16/08/2019

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