पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसे शुरू कीं पांचजन्य और राष्ट्र धर्म पत्रिकाएं अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे लेकिन लखनऊ से उनका कई क़िस्म का रिश्ता रहा. एक सांसद के रूप में, देश के प्रधान मंत्री के तौर पर. वे यहां से एक-दो नहीं, लगातार पांच बार एमपी रहे. लेकिन लखनऊ से उनका कनेक्शन तो सालों पुराना है. तब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था. अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे लेकिन लखनऊ से उनका कई क़िस्म का रिश्ता रहा. एक सांसद के रूप में, देश के प्रधान मंत्री के तौर पर. वे यहां से एक-दो नहीं, लगातार पांच बार एमपी रहे. लेकिन लखनऊ से उनका कनेक्शन तो सालों पुराना है. तब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था. बात 1947 की है. उन दिनों भाऊराव देवरस यूपी के प्रांत प्रचारक थे. दीनदयाल उपाध्याय संघ के सह प्रांत प्रचारक हुआ करते थे. आरएसएस के कार्यक्रमों में अटल बिहारी वाजपेयी कविता पाठ किया करते थे. ख़ूब तालियां बजती थीं. भाऊराव और दीनदयाल की नज़र इस युवा, प्रखर और ओजस्वी कवि पर पड़ी. संघ के शिविरों में रात में होने वाले कार्यक्रमों के अटल हीरो बन चुके थे. जुलाई के महीने में दीनदयाल उपाध्याय, भाऊराव देवरस और अटल बिहारी वाजपेयी की बैठक हुई. तय हुआ कि संघ के प्रचार प्रसार के लिए एक पत्रिका निकाली जाए. लेकिन इसका नाम क्या हो ? अलग अलग नाम सुझाए गए लेकिन कोई फ़ैसला नहीं हो पाया. भाऊराव एक दिन लखनऊ यूनिवर्सिटी में सीढ़ियों पर बैठे थे. चर्चा पत्रिका को लेकर शुरू हुई. किसी ने नाम सुझाया “राष्ट्रधर्म”. यही नाम फ़ाइनल हो गया. अटल ज़ी इसके पहले संपादक बने. 31 अगस्त 1947 यानी रक्षाबंधन पर राष्ट्रधर्म का पहला अंक प्रकाशित हुआ. इसी अंक में दीनदयाल उपाध्याय ने ‘चिति’ नाम से एक लेख भी लिखा था. जिस पर आगे चल कर कई लोगों ने रिसर्च किया. राष्ट्रधर्म के इसी अंक में पहले पन्ने पर उनकी कविता प्रकाशित हुई थी. हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय, मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार क्षीर. अटल जी की ये कविता बाद में बड़ी मशहूर हुई. राष्ट्र धर्म के पहले अंक की 3 हज़ार प्रतियां प्रकाशित हुई थीं. उस दौर में कोई भी हिंदी पत्रिका पाँच सौ से अधिक नहीं छपती थी. राष्ट्रधर्म की सभी कॉपियाँ हाथों हाथ बिक गईं. इसीलिए पांच सौ और प्रतियाँ प्रकाशित करनी पड़ीं. राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8 हज़ार और तीसरे अंक की 12 हज़ार कॉपियाँ छापनी पड़ीं. अटल बिहारी वाजपेयी कुछ ही महीनों तक इस पत्रिका के संपादक रहे. संघ ने एक साप्ताहिक पत्रिका निकालने का फ़ैसला किया. अटल जी इसके पहले संपादक बने. 1 जनवरी 1948 को पाँचजन्य का पहला अंक प्रकाशित हुआ. राष्ट्रधर्म की सफलता से प्रसन्न होकर संघ ने वाजपेयी को ये ज़िम्मेदारी दी. ये भी पहली बार हुआ कि अटल जी ने एक साथ दोनों पत्रिकाओं का संपादन किया. अटल बिहारी वाजपेयी के संपादन का अंदाज निराला था. उन दिनों लेटर प्रेस होने के कारण कंपोजिंग आज जैसा आसान नहीं था. सामग्री देने के बाद पता लगा कि चार छह पंक्तियों की जगह ख़ाली छूट रही है. कंपोजिटर दौड़ा दौड़ा आता था कि कुछ और लेख दे दीजिए, जिससे जगह पूरी हो सके. अब गीत हो या कविता, अटल जी तुरंत उसमें चार छह लाइन जोड़ देते थे. अटल जी के साथ साथ भाऊराव देवरस और दीनदयाल उपाध्याय ने भी कॉपोजिंग सीख ली थी. पत्रिका के संपादन के साथ साथ अटल जी साइकिल पर उसे पीछे बाँध कर बेचा भी करते थे !
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसे शुरू कीं पांचजन्य और राष्ट्र धर्म पत्रिकाएं
अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे लेकिन लखनऊ से उनका कई क़िस्म का रिश्ता रहा. एक सांसद के रूप में, देश के प्रधान मंत्री के तौर पर. वे यहां से एक-दो नहीं, लगातार पांच बार एमपी रहे. लेकिन लखनऊ से उनका कनेक्शन तो सालों पुराना है. तब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था.
अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे लेकिन लखनऊ से उनका कई क़िस्म का रिश्ता रहा. एक सांसद के रूप में, देश के प्रधान मंत्री के तौर पर. वे यहां से एक-दो नहीं, लगातार पांच बार एमपी रहे. लेकिन लखनऊ से उनका कनेक्शन तो सालों पुराना है. तब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था.
बात 1947 की है. उन दिनों भाऊराव देवरस यूपी के प्रांत प्रचारक थे. दीनदयाल उपाध्याय संघ के सह प्रांत प्रचारक हुआ करते थे. आरएसएस के कार्यक्रमों में अटल बिहारी वाजपेयी कविता पाठ किया करते थे. ख़ूब तालियां बजती थीं.
भाऊराव और दीनदयाल की नज़र इस युवा, प्रखर और ओजस्वी कवि पर पड़ी. संघ के शिविरों में रात में होने वाले कार्यक्रमों के अटल हीरो बन चुके थे. जुलाई के महीने में दीनदयाल उपाध्याय, भाऊराव देवरस और अटल बिहारी वाजपेयी की बैठक हुई.
तय हुआ कि संघ के प्रचार प्रसार के लिए एक पत्रिका निकाली जाए. लेकिन इसका नाम क्या हो ? अलग अलग नाम सुझाए गए लेकिन कोई फ़ैसला नहीं हो पाया. भाऊराव एक दिन लखनऊ यूनिवर्सिटी में सीढ़ियों पर बैठे थे. चर्चा पत्रिका को लेकर शुरू हुई. किसी ने नाम सुझाया “राष्ट्रधर्म”. यही नाम फ़ाइनल हो गया. अटल ज़ी इसके पहले संपादक बने.
31 अगस्त 1947 यानी रक्षाबंधन पर राष्ट्रधर्म का पहला अंक प्रकाशित हुआ. इसी अंक में दीनदयाल उपाध्याय ने ‘चिति’ नाम से एक लेख भी लिखा था. जिस पर आगे चल कर कई लोगों ने रिसर्च किया. राष्ट्रधर्म के इसी अंक में पहले पन्ने पर उनकी कविता प्रकाशित हुई थी. हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय, मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार क्षीर. अटल जी की ये कविता बाद में बड़ी मशहूर हुई.
राष्ट्र धर्म के पहले अंक की 3 हज़ार प्रतियां प्रकाशित हुई थीं. उस दौर में कोई भी हिंदी पत्रिका पाँच सौ से अधिक नहीं छपती थी. राष्ट्रधर्म की सभी कॉपियाँ हाथों हाथ बिक गईं. इसीलिए पांच सौ और प्रतियाँ प्रकाशित करनी पड़ीं. राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8 हज़ार और तीसरे अंक की 12 हज़ार कॉपियाँ छापनी पड़ीं.
अटल बिहारी वाजपेयी कुछ ही महीनों तक इस पत्रिका के संपादक रहे. संघ ने एक साप्ताहिक पत्रिका निकालने का फ़ैसला किया. अटल जी इसके पहले संपादक बने. 1 जनवरी 1948 को पाँचजन्य का पहला अंक प्रकाशित हुआ. राष्ट्रधर्म की सफलता से प्रसन्न होकर संघ ने वाजपेयी को ये ज़िम्मेदारी दी. ये भी पहली बार हुआ कि अटल जी ने एक साथ दोनों पत्रिकाओं का संपादन किया.
अटल बिहारी वाजपेयी के संपादन का अंदाज निराला था. उन दिनों लेटर प्रेस होने के कारण कंपोजिंग आज जैसा आसान नहीं था. सामग्री देने के बाद पता लगा कि चार छह पंक्तियों की जगह ख़ाली छूट रही है. कंपोजिटर दौड़ा दौड़ा आता था कि कुछ और लेख दे दीजिए, जिससे जगह पूरी हो सके. अब गीत हो या कविता, अटल जी तुरंत उसमें चार छह लाइन जोड़ देते थे. अटल जी के साथ साथ भाऊराव देवरस और दीनदयाल उपाध्याय ने भी कॉपोजिंग सीख ली थी. पत्रिका के संपादन के साथ साथ अटल जी साइकिल पर उसे पीछे बाँध कर बेचा भी करते थे !
Comments
Post a Comment