shri krishna rukamini viwah

श्रीकृष्ण और रुक्मणी का प्रेम विवाह माता-पिता-भाई एवम परिवार के विरूद्ध जाकर भारतीय इतिहास - पुराण का एक ऐसा प्रेम विवाह जिसके लिए दोनो पक्षों के बीच हुआ था भीषण युद्ध
==============================
यथा: हम सब जानते है भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र जितना एक कर्म योगी का चरित्र है उससे कही बडा, कही ज्यादे, एक सफल नायक का चरित्र भी है, एक ऐसे नायक का जिसने हर कदम पर समाज की कुत्सित वर्जनाएँ तोडते हुए इतिहास लिखा है ! जिसने कर्म के मानक पर लाकर न्याय एवम अन्याय के बीच का फर्क करना सीखाया है ! जिसने समय आने पर रिश्तो की मर्यादा लांघ कर भी धर्म की रक्षा किया है फिर विषय चाहे जगत कल्याण का हो, भक्ति का हो, या फिर प्रेम का ! उद्दाहरण स्वरूप जब श्रीकृष्ण गोकुल से मथुरा के लिए चले या यूँ कहे प्रेम लोक से कर्म लोक की तरफ चले राधा ने अपने होटो पर केवल चुप्पी रखी उन्होने ना श्रीकृष्ण को रोका, ना कोसा, ना ही कोई ऐसी प्रतिक्रिया ही व्यक्त किया जो की श्रीकृष्ण के कर्म पथ पर बाधा उतपन्न करे ! गौर करने वाली जो बात है वह यह कि श्रीकृष्ण ने भी राधा के इस गहन सहयोग, गहन प्रेम, इस गहन चुप्पी का सम्मान करते हुए कभी पलट कर राधा के प्रेम को कमजोर नही होने दिया और प्रेम को पूजा का जो स्थान मिलना चाहिए वह स्थान उन्होने देवी राधा के प्रेम को दिया एवम स्वयम जगत मे राधेकृष्ण हो कर रच बस गए ।
वर्जनाएँ तोडकर श्रीकृष्ण के नायक होने का एक परम उद्दाहरण यह भी है कि उनसे प्रेम का दान जिसने जिस रूप मे माँगा उन्होने उसी रूप मे उसपर यह दान लुटाया देवी रुक्मणी के साथ उनके प्रेम विवाह की घटना इस सत्य की सौ प्रतिसत पूर्ति करती है यथा :
राधा के बाद भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय रुक्मणी हुईं। देवी रुक्मणी और श्रीकृष्ण के बीच प्रेम कैसे हुआ इसकी बड़ी अनोखी कहानी है और इसी कहानी से अर्ची आर्याव्रत मे प्रेम की एक नई परंपरा की शुरुआत भी हुई ,! देवी रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थी। रुक्मिणी अपनी बुद्धिमता, सौंदर्य और न्यायप्रिय व्यवहार के लिए प्रसिद्ध थीं। रुक्मिणी का पूरा बचपन अपनी माँ से श्रीकृष्ण के साहस और वीरता की कहानियां सुनते हुए बीता था याने के श्रीकृष्ण को बचपन से ही रुक्मिणी अपने जीवन नायक के रूप मे स्वीकार कर चुकी थी किन्तु उनके बडी होने पर जब उनकी विवाह की उम्र हुई तो इनके लिए कई रिश्ते देखे जाने लगे लेकिन रुक्मिणी ने सभी को मना कर दिया। इनके विवाह को लेकर माता पिता और भाई रुक्मी बहुत चिंतित हो गए ।

एक बार इनके कुल पुरोहित द्वारिका से भ्रमण करते हुए विदर्भ आए। विदर्भ में उन्होंने श्रीकृष्ण के रूप गुण और व्यवहार का अद्भुत वर्णन किया। पुरोहित जी अपने साथ श्रीकृष्ण की एक तस्वीर भी लाए थे। देवी रुक्मिणी ने जब तस्वीर को देखा तो वह भवविभोर हो गईं और उसी पल श्रीकृष्ण को अपना पति मान लिया।
लेकिन श्रीकृष्ण से इनके विवाह में कठिनाई यह थी कि इनके पिता और भाई का राजनीतिक संबंध जरासंध, कंस और शिशुपाल से था। इस कारण वे श्रीकृष्ण से रुक्मिणी का विवाह नहीं करवाना चाहते थे। राजनीतिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए जब रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया गया तब रुक्मिणी ने एक प्रेमपत्र लिखकर ब्राह्मण कन्या सुनन्दा के हाथ श्रीकृष्ण के पास भेज दिया।
जब श्रीकृष्ण को रुक्मिणी का प्रेमपत्र मिला और प्रेम पत्र पढ़कर श्रीकृष्‍ण को रुक्मिणीजी के संकट का पता चला तो उन्‍हें संकट से निकालने के लिए श्रीकृष्‍ण ने एक योजना बनाई। योजना अनुसार जब शिशुपाल बारात लेकर राजा भीष्मक ( रुक्मिणी के पिता ) के द्वार पर आए उसी वक्त श्रीकृष्‍ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर लिया। रुक्मिणी के अपहरण के बाद श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया। जिसकी ध्वनि सुनकर पिता भीष्मक सहित रुक्मी और शिशुपाल हैरान रह गए कि आखिर इस विवाह स्थान पर श्रीकृष्ण कैसे आ गए ? इसी बीच उन्हें सूचना मिली की श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर लिया है। क्रोधित होकर रुक्मी श्रीकृष्ण का वध करने के लिए उनसे युद्ध करने निकल पड़ा था। रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भीषण युद्ध हुआ जिसमें कृष्ण विजयी हुए और रुक्मिणी को लेकर सकुशल द्वारिका आए।
द्वारिका में रुक्मिणी और श्रीकृष्ण के विवाह की भव्य तैयारी हुई और विवाह संपन्न हुआ। श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी का यह प्रेम विवाह हमारे भारतीय इतिहास और पुराणों मे शायद प्रथम प्रेम विवाह था जो कन्या के माता - पिता द्वारा कन्यादान किए बिना समपन्न हुआ था ! तलवार की टंकार एवम युद्ध की पृष्ठभूमि पर समपन्न हुआ था !
अत: हम कह सकते हैं की इस अखण्ड ब्रह्माण्ड में, इस भौतिक संसार में ऐसा कुछ भी नया नही घटा है, घट रहा है, अथवाँ घटेगा जो कर्मयोगी नायक श्रीकृष्ण के चरित्र मे शामिल न हो !
=============================
कलम से (संयुक्त रूप से) :
         विभांशु जोशी
        भारद्वाज अर्चिता
स्तम्भकार,पत्रकार,समीक्षक,स्वतंत्र टिप्पणीकार

Comments

Popular posts from this blog

“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता