राजेश खन्ना पर पूर्व का ( वर्ष 2012 मे ) लिखा गया मेरा एक पोस्ट जिसे आज 18 जुलाई 2019 को उनकी पुण्यतिथि पर कुछ नए पुट का समावेस करते हुए पुन: पोस्ट कर रही हूं ! यथा :

सुपर स्टार राजेश खन्ना (जतिन खन्ना) प्रेम का आनंद और आत्ममोह की पीड़ा !!
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आनंद फिल्म के आखिरी दृश्य में फिल्म का मुखर नायक अचानक मौन हो जाता है और सहनायक की विचलित चुप्पी एक विस्फोट के साथ टूटती है, सहसा रिकार्ड प्लेयर से आवाज आती है बाबू मोशाय.... जिन्दगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है।
अंत में सलिल दा की करुणाकलित रागिनी के साथ एक स्वर गूंजता है, आनन्द मरा नहीं..आनन्द मरते नहीं।
                 आनंद की मृत्यु हुई और पीड़ा जी उठी। सैकड़ों चित्र आखों में उतर आए हैं, तैर रहे हैं ,चल रहे हैं, फिर रहे हैं और उन चित्रों का नायक चुप है। ऋषि दा की इस अमर फिल्म का ही एक यादगार गाना है, “जिन्दगी कैसी है पहेली हाय !” फिल्म में नायक उस पहेली को उसी प्रकार बूझ रहा होता है जैसे आज उसके चले जाने के बाद उस नायक को चाहने वाले बूझ रहे हैं। क्योंकि राजेश खन्ना का जीवन किसी पहेली से कम नहीं था।
साठ के दशक के उत्तरार्ध में राजेश खन्ना की फिल्म, आराधना आई। हिन्दी सिनेमा को एक नया रोमांटिक हीरो मिला। अगले तीन वर्षों में उस रोमांटिक हीरो ने लोकप्रियता के सभी मानदंड तोड़ दिये। दिलचस्प है कि राजेश खन्ना के फिल्मी व्यक्तित्व में एक ठहराव था, लेकिन उनकी लोकप्रियता का प्रवाह प्रचंड था, वे अपने ठहरे हुए व्यक्तित्व के साथ बेतहासा भावनाओं का बवंडर लेकर आए थे, जिसमें सिनेमाई दीवानों की जमात उड़ गई। परिणाम यह हुआ कि रातों - रात मिली इस बेसुमार कामयाबी ने राजेश खन्ना को नितांत ही एकालापी बना डाला ! और इस एकाकीपन मे ही वह  आत्ममोहन के चरम पर जा पहुंचे। उन्हें खुद से प्रेम करने की असाध्य बीमारी हो गई। जब हिन्दी सिनेमा में उनका डंका बज रहा था तभी चुपके से एक बदलाव हुआ। कोमल, प्रेम प्रधान फिल्मों के बीच एक गुस्सैल विद्रोही नायक का प्रवेश हुआ। अगले दो तीन वर्षों में सिनेमा की भाषा बदल गई, और आलम यह हुआ कि : राजेश खन्ना के चाहने वालों की दृष्टि भी इस परिवर्तन को अस्वीकार न कर सकी, लेकिन राजेश खन्ना  आत्ममोह आखें मूंदे रहे। इस आख मूदने के साथ ही धीरे धीरे उनका मायावी संसार झीना पड़ता गया। कामयाबी के महल में बैठे राजेश खन्ना अपनी त्वरित लोकप्रियता और फिर उसके विघटन का ताप नहीं झेल सके। उनके सपनों की झिलमिलाती दुनिया उन्हें अवसाद में ले गई। वे शराब के शौकीन पहले से थे अब शराब उनकी आदत बन गई। उन्हें अपनी प्रशंसा सुनने की लत थी, पहले जब उनके नाम का सिक्का चलता था तब चाटुकारों की सेना उन्हें घेरे रहती थी, किन्तु जब वो विफलता की ढा़लन पर औँधे मूँह लुढ़क रहे थे और उन्हे सम्हालने वाला एक भी सच्चा साथी नहीं था उनके आस पास ! पत्नी की बात वे सुनते नहीं थे लेकिन चाटूकारों की झूठी प्रशंसा उन्हें तब भी तसल्ली दे रही थी। खुद से उनका भरोसा उठ रहा था। वे कभी अपने बाल बढ़ाते, कभी टोपी पहनते लेकिन पुराना दौर लौट कर नहीं आ रहा था। अस्सी के दशक तक उनकी उपस्थिति बनी रही फिर वे गुम हो गए। पत्नी से रिश्ता पहले ही टूट चुका था। बस शराब साथ थी। यौवन ढल चुका था, चेहरे पर शराब का असर दिखने लगा था। नब्बे के दशक और पिछले दस बारह वर्षों के दौरान यदा कदा वे पर्दे पर दिख जाते थे दैनिक जागरण प्रेस  गोरखपुर यूनिट मे काम करते हुए राजेश खन्ना साहब से मेरी भी एक छोटी सी मुलाकात वर्ष 2010 मे हुई थी अवसर था मेरे शहर के डॉक्टर दंपति (डॉ० वजाहत
करीम एवं डॉ० सुरहिता करीम के सहयोग से आकाश पाण्डेय के निर्देशन मे बनी हिन्दी फिल्म “दो दिलों के खेल में” के रीलीज होने की तारीख राजेश खन्ना को  देख कर उस वक्त मुझे किसी तरह की कोई प्रसन्नता नही हुई थी बल्कि उस वक्त उनकी लाचार थकी आँखे, फिल्म मे निभाए गए एक समझौते टाइप का रोल और अन्दर से जिस्म को कमजोर करती विमारी को चेहरे से झाँकते देख कर उनपर घोर तरस आया था, सच कहूँ तो आसमान के चाँद को जमीन पर गिरकर धूल मे मिलते जैसा एहसास हो रहा था मुझे !
राजेश खन्ना को लेकर मन में कई बार यह सवाल उठते है कि लोकप्रियता के आकाश में एकछत्र राज करने के बाद धरती के किसी कोने में पटक दिये जाने की पीड़ा कैसी क्या इतनी भयावह हो सकती है ? पिछले दिनों अचानक वह एक टीवी के विज्ञापन में नजर आए। देख कर सदमा सा लगा। अपनी तरह से वे बीते दौर को जीने की कोशिश कर रहे थे लेकिन मौत की छाया उस जिंदादिल चेहरे पर पड़ ही गई थी। अचानक उस चेहरे को देखते हुए उनका अतीत याद आ गया। फिर सोचने लगी कि राजेश खन्ना के चेहरे में आखिर ऐसा क्या था। न तो सुतवां नाक थी उनकी, न ही बड़ी-बड़ी आखें ही थी, हां उनकी आखों की भाषा मे एक गजब का सम्मोहन एक गजब का वसीकरण जरूर था !
होटो पर दुआ जैसी खिल जाने वाली उनकी बिलकुल अलग मासूम सी मुस्कराहट जिसे अंग्रेजी में हम इन्फेक्शस स्माइल कहते हैं भी लोगो को अपना मुरीद बनाने की कूबत रखती थी क्योकि वह एक निश्चल पहाडी नदी की धार की तरह राजेश खन्ना के चेहरे पर हमेशा तैरती रहती थी।
राजेश खन्ना का रोमांस दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद से जरा अलग था। प्रेम की अभिव्यक्ति में उनकी आंख, हंसी और पूरी देह की बराबर भूमिका थी। देह इस अर्थ में महत्वपूर्ण थी कि उसने प्रणय निवेदन की एक नई शैली अपनाई थी। निस्संदेह उनकी आवाज अमिताभ बच्चन जैसी नहीं थी, लेकिन उस आवाज़ में कोमलता के साथ-साथ सोज़ भी था। शायद किसी लड़की को रिझाने के लिए वो आवाज सबसे बेहतर तरंगें पैदा करती थी। जब वे बोलते तो नाप तौल कर शब्दों को गिराते और चेहरा उन शब्दों के साथ अपनी तरह से हरकत करता।
राजेश खन्ना की बीमारी की खबर पिछले कुछ अरसे से आ रही थी, हमने उसे खतरा मानने से इन्कार कर दिया था। ये एहसास कतई नहीं था कि आनन्द हमें धोखा दे जाएगा। हमें उनसे एक वापसी की उम्मीद थी। ये आशा थी कि शराब की लत छोड़ने के बाद जब वे स्वस्थ होकर लौटेंगे तो चरित्र अभिनेता के रूप में किसी सशक्त किरदार को जीवंत करेंगे। लेकिन जीवन ने उन्हें मौका ही नहीं दिया। झंझा कभी सुदीर्घ नहीं होती, बस अपने साथ सब कुछ उड़ाकर कर अचानक कही गुम हो जाती है अर्ची !
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कलम से :
अर्चिता
19/07/2012

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