भाषी
एक बार नानू प्रो० केदारनाथ का इन्टरव्यू ले रही थी मै ! भाषा को लेकर किए गए मेरे एक सवाल के जवाब मे नानू प्रोफे० केदारनाथ ने कुछ ऐसा जवाब दिया था :
अपनी माँ, अपनी माटी, एवम अपनी भाषा, का कर्ज कभी नही उतारा जा सकता है फिर हम चाहे कितना भी अपना योगदान क्यो न दे दे !
श्रद्धेय मैथिली शरण गुप्त की वह दो पक्ति भी स्मरण हो आई है :
“जिसको न निज देश तथा निज भाषा का अभिमान है .!
वो नर नही निरा पशु है और मृतक समान हैं ..!!”
जिस भाषा के लिए हमारे भाषा पूर्वज आदरणीय भारतेन्दु जी ने कहा है :
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
उस भाषा मे लिखन वास्ते डबराल जी को आत्मग्लानि हो रही है तो निश्चित रूप से उनके भीतर भी हमारी वर्तमान भाषा की दसा दिशा और दोयम दर्जे की स्थिति को लेकर कोई गहरा रोस एवम दर्द होगा !
क्योकि बचपन मे जब कोई बच्चा अपनी माँ से नाराज होकर यह कहता है “ माँ तुम अच्छी नही हो माँ तुम बहुत बुरी हो जाओ मै तुमसे बात नही करूँगा, कभी भी बात नही करूँगा ” लेकिन कुछ पल के बाद वही बच्चा अपनी माँ की गोद मे मिलता है माँ के साथ मगन भाव मे मतलब बच्चे के उस कथन के पीछे उसकी किसी बात का किसी इच्छा पूरा न हो पाना या फिर बच्चे की किसी डिमाण्ड का बाकी रह जाना भर होता है बस इतनी सी बात होती है और कुछ नही यह केवल माँ बेटे के बीच की केमिस्ट्री है इसे हर कोई नही समझ सकता इसे हर किसी को समझने की जरूरत भी नही होती ! बिल्कुल यही स्थिति डबराल महोदय की भाषा को लेकर दी गयी टिप्पणी पर है यह टिप्पणी उनकी किसी अधूरी छलित उम्मीद का परिणाम है इसमे जबतक कुछ समझ ना आए किसी को दखल देने की जरूरत नही है बिल्कुल माँ बेटे के बीच की नाराजगी वाली केमिस्ट्री है यह मै तो बस यही कहना चाहती हूँ ।
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भारद्वाज अर्चिता
पत्रकार
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