वंचितों से प्रतिबद्धता का का नाम है चित्रा मुद्गल ॥
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चित्रामुद्गल कहती हैं, "प्रेमचंद की ठाकुर का कुआं कहानी ने उनके मन में जातिगत भेद-भाव के प्रति तीव्र वितृष्णा पैदा की. कहानी पढ़ने के बाद जब वे जातिगत भेदभाव के प्रति सचेत हुई तो उन्होंने देखा कि ऐसा भेदभाव तो स्वयं उनके घर के लोग भी करते हैं.'

हिंदी की वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल को कौन नही जानता ? प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त पचहत्तर वर्षीय लेखिका अपने लेखकीय गरिमा के साथ सामाजिक सक्रियता के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है वह समाज में घोर उपेक्षा के शिकार "थर्ड जेंडर'' की यातना, संघर्ष और स्वप्न को अभिव्यक्त करने वाला उपन्यास है.

हाल के वर्षों में "थर्ड जेंडर'' पर लिखे गए उपन्यासों में यह इस लिहाज से विशिष्ट है कि इसमें तथ्यों की जगह संवेदना और सूचनाओं की जगह विश्लेषण को प्रमुखता दी गई है. यहां किन्नरों का जीवन-सत्य तथ्यों और आंकड़ों के रूप में नहीं बल्कि कथा के भीतर ही कुछ इस तरह से पिरोया गया है कि उपन्यास बेहद मार्मिक हो उठा है. उपन्यास इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि चिंतन, तथ्य और आंकड़ों से बोझिल किए बिना उपेक्षित तबकों की जिंदगी पर उत्कृष्ट रचना लिखी जा सकती है. पूरा उपन्यास अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही किन्नरों की मंडली को सौंप दिए गए विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली द्वारा अपनी जीवन स्थितियों और घर की स्मृतियों का वर्णन करते हुए अपनी बा (मां) को लिखे गए क्रमवार पत्रों के रूप में संयोजित है.

मां भी अपने किन्नर पुत्र को पत्र लिखती है पर वे जवाबी पत्र पृष्ठभूमि में रहते हैं. बेटे के लिखे पत्रों से ही मालूम होता है कि मां ने अपने पत्र में क्या लिखा था? पत्र-शैली चिंतन-प्रवाह या विचार-प्रवाह को अभिव्यक्त करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है, लेकिन लेखिका ने इसके माध्यम से कथा-प्रवाह को अभिव्यक्त करके एक अनूठा प्रयोग किया है और इसमें वह पूरी तरह सफल भी हुई हैं. उपन्यास में भरपूर कथा-रस की मौजूदगी उनके रचनात्मक कौशल का प्रमाण है.

सामान्य मनुष्य की तरह भेदभाव रहित गरिमापूर्ण जीवन ही उपन्यास के मुख्य पात्र विनोद का सपना है पर लेखिका इस सपने को पूरा करने में राजनीति की भूमिका को लेकर सशंकित हैं. मुख्यधारा की राजनीति की दिलचस्पी किन्नरों को मानवीय गरिमा दिलाने में नहीं बल्कि आरक्षण का लालच देकर उन्हें वोट बैंक के रूप में सिर्फ उपयोग करने की है.

इसलिए वे इस समस्या के सामाजिक समाधान को अधिक तरजीह देती हैं. उपन्यास एक बड़ा प्रश्न उठाता है कि एक लिंगपूजक समाज लिंगविहीनों को कैसे बर्दाश्त करेगा? यौन केंद्रित समाज से मुक्ति ही इस उपन्यास का स्वप्न है और इसका केंद्रीय कथ्य भी.

चित्रा मुद्गल के सरोकार का दायरा आरंभ से ही व्यापक रहा है. सामाजिक, आर्थिक या लैंगिक हर प्रकार की विषमता के विरुद्ध उन्होंने अनवरत संघर्ष किया है और आज भी वे इन प्रश्नों पर मुखर रहती हैं. सामाजिक विसंगतियां उन्हें हमेशा लेखन के लिए उद्वेलित करती हैं. प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं ने उन्हें रचना-कर्म की ओर प्रेरित किया. वे कहती हैं, "प्रेमचंद की इस कहानी ने मेरे मन में जातिगत भेद-भाव के प्रति तीव्र वितृष्णा पैदा की. कहानी पढऩे के बाद जब मैं जातिगत भेदभाव के प्रति सचेत हुई तो मैंने देखा कि ऐसा भेदभाव तो स्वयं मेरे घर के लोग भी करते हैं.''

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के प्रसिद्ध जमींदार खानदान के ठाकुर बजरंग सिंह की पोती चित्रा के लिए यह जातिगत श्रेष्ठता बोध से मुक्त होने की शुरूआत थी. जो बात वे कह नहीं सकती थीं उसे उन्होंने लिखकर अभिव्यक्त करना शुरू किया. चित्रा उन रचनाकारों में नहीं हैं, जिनके जीवन और रचना-कर्म में भारी अंतर्विरोध दिखाई देता है. जीवन में सुविधाभोगी होना और रचना में विद्रोही बनना उनकी फितरत नहीं है. वे जीवन में संघर्षों के अभाव की पूर्ति रचना से नहीं करतीं. स्त्री के प्रति पक्षधरता उनके जीवन और साहित्य, दोनों जगह स्पष्ट दिखती है. अगर वे मानती हैं कि स्त्री को अपने फैसले स्वयं लेने का हक होना चाहिए तो वे इसे अपने जीवन से प्रमाणित भी करती हैं.

हम कल्पना कर सकते हैं कि साठ के दशक में एक ठाकुर जमींदार परिवार की लड़की का अंतरजातीय प्रेम विवाह करना कितना कठिन रहा होगा. घर-परिवार में उनका विरोध लंबे समय तक जारी रहा. विरोधों के बीच ही उनके लेखकीय व्यक्तित्व ने आकार लिया है. मुंबई में उच्च शिक्षा के दौरान प्रसिद्ध मजदूर नेता दत्त सामंत के संपर्क में आईं और संगठित तथा असंगठित क्षेत्र के मजदूर आंदोलनों से उनका गहरा जुड़ाव रहा. वहां उन्होंने बड़े घरों में झाड़ू-पोछे का काम करने वाली महिलाओं के लिए संघर्ष किया.

हम कह सकते हैं कि चित्रा मुद्गल ने स्त्री विमर्श का झंडा नहीं उठाया है बल्कि उसे जिया है. इसीलिए उनका स्त्री विमर्श कुछ फैशनेबल स्त्री विमर्शकारों से अधिक व्यापक और सरोकारधर्मी है. वे स्त्री विमर्श को देह विमर्शकारों से अधिक व्यापक और सरोकारधर्मी बनाती हैं और स्त्री विमर्श को देह विमर्श में अवमूल्यित कर देने का घोर विरोध करती हैं.

वे स्त्री प्रश्न को पश्चिम के नजरिये से नहीं बल्कि भारतीय संदर्भों में समझने और सुलझाने पर जोर देती हैं. शायद इसीलिए उनके मन में मातृत्व और पत्नीत्व को लेकर कोई हिकारत-भाव नहीं है जैसा कि कुछ स्त्रीवादियों में दिखाई देता है. वे कहती हैं, "मैं स्त्री-पुरुष के बीच की गैरबराबरी को समाप्त करना चाहती हूं लेकिन उनके वैशिष्य्  को समाप्त कर स्त्री को नंबर दो का पुरुष बना देने को मैं कहीं से भी उचित नही मानती.''

रचना-कर्म को सामाजिक हस्तक्षेप का पर्याय मानने वाली चित्रा मुद्गल ने अब तक लगभग तेरह कहानी संग्रहों, चार उपन्यासों और पांच बाल कथा-संग्रहों के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है. रचना-कर्म को सामाजिक हस्तक्षेप का पर्याय मानते हुए भी उन्होंने कभी "राजनैतिक रूप से सही'' होने की चिंता नहीं की. उनकी प्रतिबद्धता किसी लेखक संगठन या पार्टी के प्रति न होकर साहित्य और अपने समाज के प्रति रही.

उन्होंने अपने अब तक के जीवन और साहित्य के जरिए प्रतिबद्धता और सरोकार जैसे शब्दों को पार्टी और संगठनों के बंधन से मुक्त करने का काम किया है. वे इस बात का प्रमाण हैं कि रचनाकार को अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध और सरोकारी होने के लिए किसी पार्टी या संगठन की सदस्यता आवश्यक नहीं है.

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