विवेकानन्द जी
{{ स्वामी विवेकानन्द, 4 जुलाई1902 देहावसान }}
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आज 4 जुलाई है याने-के युवा दार्शनिक, नव चेतना क्रान्ति के प्रथम संन्यासी, मां भारती के अलौकिक पुत्र, गुरू रामृष्ण परमहंस के चिरंजीव शिष्य मेरे आदर्श और समस्त विश्व के अध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द जी की पुण्यतिथि ।
आइए स्वामी जी की पावन पुण्यतिथि पर आज मैं आप सबको उनके महान दर्शन और उनके अपने ही देश में, हमारे वर्तमान भारत में उस दर्शन की उपेक्षा पर एक निरपेक्ष निर्विकार चर्चा पर लेकर चलती हूं !
यथा :
शून्यता मे जिसने विवेक देखा, विवेक मे जिसने आनन्द की खोज की, और उस आंनद मे जिसने अखण्ड ब्रहमाण्ड को समाहित कर दिया ऐसे युग महापुरूष,
बचपन से मेरे आदर्श ( Role Model ) रहे स्वामी विवेकानन्द जी का कथन था "अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा "
किसे पता था उनके कथनों का तिरस्कार करके 125 साल बाद उनका अपना देश भारत (जिसका दर्शन जिसकी वैदिक समृद्धि का परचम वह स्वयम दुनिया मे लहरा रहे थे ) अनाथों की श्रेणी में जा खड़ा होगा।
12 जनवरी 1863 मे जन्में मेरे अध्यात्मिक गुरु मेरे आदर्श मेरे जीवन मूल्य, बाबा विश्वनाथ और माता भुवनेश्वरी देवी का अद्वितीय पुत्र, स्वामी रामकृष्ण का विलक्षण शिष्य 25 साल की आयु में राष्ट्र समृद्धि,राष्ट्र दर्शन, राष्ट्र मूल्य से दुनियां को परिचित करवाने के लिए भगवा/वल्कल ( संन्यास ) धारण करने वाला इस युवा दार्शनिक ने कहा था अर्ची :
“भारत की भौगोलिक सीमा रेखा में जन्म लेने वाला,
यहां का अन्न-जल ग्रहण करने वाला,
यहां के संसाधन से अपना जीविकोपार्जन करने वाला,
यहां के वातावरण में सांस लेने वाला,
प्रत्येक व्यक्ति जन्म से, कर्म से, धर्म से, हिन्दू है
हिन्दू दर्शन कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखता है अत: व्यक्ति का कर्म ही उसकी जाति, उसका धर्म तय करता है, आपसी वैमनष्यता को भूल कर इसी सिद्धांत पर अमल करते हुए हमें केवल अपनी राष्ट्र माता, अपनी भारत माता की पूजा करनी होगी ! हिन्दू भूमि के उत्थान के लिए अपने 36 कोटि देवी देवताओं को अपने मन/कर्म/धर्म/चौके से बाहर करके सिर्फ एक धर्म,एक जाति, एक कर्म अपनाना होगा केवल-और-केवल राष्ट्रमाता की पूजा " ! दुखद कि : 125 साल बाद आज भारत - हजार -हजार संकीर्ण जातियों, धर्मों और संकीर्ण विचारों का सरणस्थली बन गया पर उस युवा संन्यासी, उस युवा यायावर - दार्शनिक का इतना सा दर्शन न समझ सका समृद्धि का इतना सा पाठ न पढ सका की राष्ट्र देवी से बडा कुछ और नही होता है इस अखण्ड ब्रहमाण्ड मे !
धिक्कार है हिन्दू भूमें कि कलकत्ते वाला वह नरेन जो तुम्हारे लिए केसरिया क्रांति बाना ओढकर सम्पूर्ण विश्व से 11 सितम्बर 1893 को दो-दो हाथ कर आया, शून्य पर खड़ा होकर अपने दो अथातों कदमों से और एक घोर जिज्ञासु - पिपासु खोजी दिमाग से अखिल ब्रहमाण्ड नाप कर शिकागो के मुँह पर तमाचा जड़ आया ऐसा तमाचा कि : 3 साल तक गोरे अपने ही देश मे हमारी उस मेधा के पैरों में लोट-लोट कर अपना इलाज करवाते रहे, और हमने उसे मात्र 126 साल में खारिज कर दिया ।
अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में साल 1893 में भारत माता के नरेन,अर्ची के आदर्श विवेकानंद, स्वामी विवेकानंद का भाषण जरा पढ़िए, घोर निज स्वार्थ मे डूबे 65 करोड वर्तमान भारतीय युवा शक्ति, अकर्मण्यता की तरफ जाते 35 करोड भारत माता के अजातशत्रु पुत्रों जरा पढिए, आपके, हमारे,नरेन ने दुनिया से क्या कहा था जरा पढिए :
(( मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है, हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते,बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं...))
शिकागो की धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने अपने इस भाषण से दुनियां को एक नया, एक अनोखा-अलौकिक दर्शन दिया किन्तु उनके अपने ही देश ने,अपने ही देश वासियों ने उस दर्शन पर अमल नहीं किया क्यों...???कभी फुर्सत मिले तो एक अरब पच्चीस करोड़ी भीड़ वाले मेरे भारत कृपया इसपर अवस्य विचारना.,,,
यकीन मानो पश्चाताप और अपराध बोध के अलवा कुछ तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा ।
कभी भारत के युवा शक्ति को जगाने के लिए विवेकानंद ने हमारी चुनिंदा वेद ऋचाओं के माध्यम से यह आवाहन किया था :
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।"
अर्थात्
“उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत”
“ Arise ! Awake ! And stop not
Until The Goal is Reached.”
खेदजनक अर्ची ! यहां का युवा आज तक नहीं जागा
क्योंकि वह ध्येयनिष्ठ ही नहीं है !!
स्वामी जी आपने कहा था:
“ मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है”
स्वामी जी ! दुर्भाग्य आपके और हमारे,भारत ने तोप-तीर-तलवार-बम बाजी सब कर लिया किन्तु आपकी इस शिक्षा पर ना तो अमल किया नाही बेदों का एक भी पन्ना खोला ...!
कभी मेरे नरेन ने कहा था अर्ची :
सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं :
1: शुद्धता, 2: धैर्य, 3: दृढ़ता,
लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।
हाय भारत ! तुमने शिव सिंह खेडा को पढ़ लिया,
तुमने अरिहन्त को पढ़ लिया, हजारो-हजार काउंसलर की सरण में तुम माथा टेक आए पर नरेन द्वारा दिए गए सफलता के इन तीन मंत्रो पर कभी अमल नहीं किया ।
युवा संन्यासी तुमने कहा :
(( हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति का विकास हो, ज्ञान का विस्तार हो, जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं,
खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं, अपनी सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है ...???
हमारी सोई हुई आत्मा के जागृत होने पर हमारे अंदर -बाहर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगी, मेरे आदर्शों को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे। शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की चेष्टा करते हैं,फिर इसी चेष्टा की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और अपार दुख को आमंत्रित करते हैं।
पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है, कमजोरी से अज्ञानता आती है , एवम अज्ञानता से दुख उपजता है।
अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओ की सच्ची पूजा करनी है तो अगले 50 वर्ष तक सब कुछ भूल कर भारत माता की पूजा करनी होगी ।
इसे घोर दुर्भाग्य कहें अथवा कुछ और अर्ची कि :
“हम भारत के युवा ! भारत लगायत दुनिया की सारी यूनिवर्सिटी में पढ लिए , कैम्ब्रिज़ में पढने चले गए ,
आॅक्सफोर्ड मे पढने चले गए फिर भी गुरु रामकृष्ण के शिष्य विवेकान्द तुम्हारी शिक्षा हमें समझ नहीं आ सकी । यह हम सबका, एवम भारत देश का, घोर दुर्भाग्य है संन्यासी की तुम्हारी चेतना की आग पर भारत की एक अरब पच्चीस करोड़ आबादी अपने निरा शून्य खाली हाथ सेंक रही है आज की तारीख में !!
कहा सुना माफ मेरे जीवन आदर्श, मेरे जीवन मूल्य, आपकी पावन पुण्यतिथि पर मेरी हृदय वीणा के एक एक झंकृत तारों से आपको कोटि-कोटि प्रणाम ।
आप को कोटि-कोटि श्रद्धांजलि !!!
कलम से:
भारद्वाज अर्चिता
04/07/2018
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