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सरदार भगत सिंह के क्रान्तिगुरू थे चाचा सरदार अजीत सिंह

सरदार भगत सिंह के क्रान्तिगुरू चाचा सरदार अजीत सिंह :

समाजवाद और क्रान्ति का पाठ तो जन्म के साथ ही सरदार भगत सिंह को घुट्मिटी मे मिल गया था 

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सरदार अजीत सिंह (1881–1947) भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। वे भगत सिंह के चाचा थे। उन्होने भारत में ब्रितानी शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। उन्हें राजनीतिक 'विद्रोही' घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। 1006 - 1907 ई० में लाला लाजपत राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था।

इनके बारे में कभी श्री बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं । जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल २५ साल थी। १९०९ में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र २८ वर्ष की थी। इरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की।

नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया। मुसोलिनी तो उनके व्यक्तित्व के मुरीद थे। इन दिनों में उन्होंने ४० भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर ली थी। रोम रेडियो को तो उन्होंने नया नाम दे दिया था, 'आजाद हिन्द रेडियो' तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। मार्च १९४७ में वे भारत वापस लौटे। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नही। इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे सरदार, कि पहचानना बहुत ही मुश्किल था। ४० साल तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताने वाली श्रीमती हरनाम कौर भी वैसे ही जीवत व्यक्तित्व वाली महिला थीं।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

अजीत सिंह के बारे में कभी श्री बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल 25 वर्ष थी। 1909 में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र 27 वर्ष की थी। ईरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। अजीत सिंह ने भारत और विदेशों में होने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों में पूर्ण रूप से सहयोग दिया। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। रोम रेडियो को तो अजीत सिंह ने नया नाम दे दिया था, 'आजाद हिन्द रेडियो' तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। अजीत सिंह परसिया, रोम तथा दक्षिणी अफ्रीका में रहे तथा सन 1947 को भारत वापिस लौट आए। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नहीं हुआ। अजीत सिंह इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे कि उन्हें पहचानना बहुत ही मुश्किल था।

विपक्षी गतिविधियां

सरदार अजीत सिंह "पगडी संभल जाट्ता" आंदोलन के नायक थे। "पगडी संभल जाट्ता" आंदोलन, किसानों से परे, सेना को घेरने के लिए फैल चुका था। 1907 में, लामा लजपत राय के साथ बर्मा में मंडाले जेल को निर्वासित किया गया था। उनकी रिहाई के बाद, वे ईरान से भाग गए, जो सरदार अजीत सिंह और सूफी अम्बा प्रसाद की अगुवाई वाले समूहों द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों के केंद्र के रूप में तेजी से विकसित हुए, जिन्होंने 1 9 0 9 से वहां काम किया था। इन समूहों के रंगरूटों में ऋषिकेश लेता, जिआ-उल-हक, ठाकुर दास धुरी। 1 9 10 तक, इन समूहों की गतिविधियों और उनके प्रकाशन, हयात, ब्रिटिश खुफिया द्वारा देखा गया था 1 9 10 के आरंभ में रिपोर्टों ने तुर्की और फारस को एकजुट करने और ब्रिटिश भारत को धमकी देने के लिए अफगानिस्तान जाने के लिए जर्मन प्रयासों का संकेत दिया। हालांकि, 1 9 11 में अजीत सिंह की प्रस्थान ने भारतीय क्रांतिकारी गतिविधियों को पीसने के लिए रोक दिया, जबकि फारस के ब्रिटिश प्रतिनिधियों ने देश में जो कुछ भी गतिविधि बनी थी, उन पर सफलतापूर्वक प्रतिबंध लगा दिया। वहां से, उन्होंने रोम, जिनेवा, पेरिस और रियो डी जनेरियो की यात्रा की।

1918 में, वह सैन फ्रांसिस्को में गदर पार्टी के निकट संपर्क में आया था। 1 9 3 9 में, वे यूरोप लौट आए और बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इटली में अपने मिशन में मदद की। 1 9 46 में, वह पंडित जवाहर लाल नेहरू के निमंत्रण पर भारत लौट आए। दिल्ली में कुछ समय बिताने के बाद, वह डलहौज़ी गए

15 अगस्त 1 9 47 को उन्होंने अपनी आखिरी श्वास उठी; इस तारीख को भारत को आजादी मिली उनके अंतिम शब्द थे, "भगवान का शुक्र है, मेरा मिशन पूरा हो गया है।"

मृत्यु

जिस दिन भारत आजाद हुआ उस दिन सरदार अजीत सिंह की आत्मा भी शरीर से मुक्त हो गई। भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि 15 अगस्त, 1947 के सुबह 4 बजे उन्होंने अपने पूरे परिवार को जगाया, और जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली।

क्या आप जानते हैं कि-

 

१. वो उन बिरले क्रान्तिकारियों में से थे, जिनका नाम ही अंग्रेज सरकार कोअन्दर तक हिला देता था।

२. जब वो मात्र 25 वर्ष के थे, उनके लिए लोकमान्य तिलक जैसे व्यक्ति नेकहा था कि वो भारत का राष्ट्रपति बनाने की योग्यता रखते हैं।

३. वो शहीद-ए-आजम भगतसिंह के प्रेरणाश्रोत थे और उन्हीं के पदचिन्होंपर चलकर भगतसिंह क्रान्ति की राह के राही बने।

४. अपने अंतिम समय में भी भगतसिंह उन्हीं के दर्शन चाहते थे या उनकेबारे में जानकारी चाहते थे।

५. उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए पूरे 38 वर्ष विदेशों में रहकर अलखजगाई और अपने को तिल तिल कर गला दिया।

६. जब देश से बाहर जाने के पूरे 38 वर्ष बाद वो भारत वापस आये तोउनकी एक झलक पाने के लिए पूरा कराची स्टेशन पर जमा हो गया था परउनकी अपनी पत्नी को विश्वास नहीं हो पाया कि ये उनके पति ही हैं।

७. 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता की देवी अपनी आँखें खोल रहीं थीं, ये हुतात्मा चहल पहल और जलसों से दूर अपनी आँखें बंद कर रहा था, हमेशा के लिए , इन शब्दों के साथ कि उसका लक्ष्य पूरा हुआ !



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सरदार अजीत सिंह

भारतीय असंतुष्ट

सरदार अजीत सिंह (1881–1947) भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। वे भगत सिंह के चाचा थे। उन्होने भारत में ब्रितानी शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। उन्हें राजनीतिक 'विद्रोही' घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। १९०६ ई. में लाला लाजपत राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था।

इनके बारे में कभी श्री बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं । जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल २५ साल थी। १९०९ में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र २८ वर्ष की थी। इरान के रास्ते तुर्कीजर्मनीब्राजीलस्विट्जरलैंडइटलीजापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की।

नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया। मुसोलिनी तो उनके व्यक्तित्व के मुरीद थे। इन दिनों में उन्होंने ४० भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर ली थी। रोम रेडियो को तो उन्होंने नया नाम दे दिया था, 'आजाद हिन्द रेडियो' तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। मार्च १९४७ में वे भारत वापस लौटे। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नही। इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे सरदार, कि पहचानना बहुत ही मुश्किल था। ४० साल तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताने वाली श्रीमती हरनाम कौर भी वैसे ही जीवत व्यक्तित्व वाली महिला थीं।

भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि १५ अगस्त १९४७ के सुबह ४ बजे उन्होंने उसके पूरे परिवार को जगाया, ओर जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली।

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