“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत”

जैसे जीवन मन्त्र का दर्शन दुनिया को समझाने वाले विवेकानंद जी के स्ववयम के जीवन मे इस मन्त्र का रोपण तब हुआ था जब माँ भुवनेश्वरी देवी सुबह सुबह बालक नरेन्द्र को नीद से जगाते हुए इस मन्कत्र का जाप करती जाती थी ! 
विवेकानन्द ने स्वयम स्वीकारा है कि मेरे धार्मिक, सात्विक, स्वभाव हेतु मेरी माँ ही मेरी प्रथम ध्यात्मिक गुरु रही ! बचपन मे मिला उनका संदेश सौहार्द, शांति और सद्भावना से भरा हुआ होता था ! मेरे सन्यासी पितामह दुर्गादास की बाते माँ मुझे बताती, और रामायण गीता के महान चरित्रो का वर्णन करती थी !”

माना जाता है बालक नरेंद्र बचपन मे बहुत शैतान थे, कई बार उनकी माँ भुवनेश्वरी देवी के लिए उन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता था, ऐसे में माँ उन पर ठंडा पानी डालती थी और भगवान शिव का जाप करती थी, जिससे वो तुरंत शांत हो जाते थे जब वह शान्त हो जाते उनसे माँ कहती थी कि यदि अब भी तुम शैतानी करने से बाज नहीं आए तो शिव तुमसे नाराज हो जाएंगे और तुम्हे कैलाश में प्रवेश नहीं करने देंगे । इस तरह स्वामी जी के व्यक्तित्व के प्रारम्भिक विकास में माँ का महत्वपूर्ण योगदान रहा । एक बार स्कूल में किसी बात पर अपने पुत्र द्वारा अन्याय होते देखकर माँ ने बालक नरेन्द्र से कहा था “ नरेन्द्र यह बहुत महत्वपूर्ण हैं कि “तुम सही और सत्य की राह पर चलो, कई बार तुम्हे सत्य की राह पर चलते हुए कडवे अनुभव भी हो सकते हैं और दुख भी मिल सकते है लेकिन तुम्हे किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना हैं ! स्वामी विवेकानन्द ने अपने कई भाषण में यह स्वीकार भी किया था की मैं अपनी माँ की शिक्षा का आभारी हूँ क्योकि मेरी माता के सहयोग से ही मैने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट से पश्चिमी शिक्षा हासिल की थी, और पश्चिमी और पूर्वी दर्शनशास्त्र में मेरी गहन रूचि पैदा हुई । कॉलेज की शिक्षा प्रेजिडेंसी कॉलेज से पूरी करते हुए थी. और कॉलेज पूरा करने के साथ ही मै खेल, जिम्नास्टिक, रेसलिंग और बॉडी बिल्डिंग में भी एक्सपर्ट बन चुका था इसके पीछे भी माँ का ही योगदान था बचपन मे माँ मुझसे कहा करती थी बच्चो को नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए और शरीर को मजबूती प्ररदान करने वाले खेल भी खेलने चाहिए । 
पुत्र नरेन्द्र के स्वामी विवेकानंद बनने की राह मे उनकी माँ का त्यागपूर्ण योगदान कम नही था ! 1884 में जब विवेकानन्द के पिता का देहांत हो गया,और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गई घर-परिवार की सारी जिम्मेदारी युवा नरेंद्र पर आ गयी स्थित यह यहाँ तक आ गयी की कई कई बार परिवार को भूखे भी रहना पडा ! इस दौरान भी माता भुवनेश्वरी देवी ने उनको कमजोर नही पडने दिया !
स्वामी विवेकानंद के मन मे सन्यास लेने से पूर्व घर की परिस्थिति को लेकर काफी उथल - पुथल थी जो वह माँ से कह नही पा रहे थे पर सब कुछ भाँपते हुए माँ ने कहा था “ नरेन्द्र पहले इंसान बनो फिर देखो मानवता कैसे प्रगति करती हैं ! साथ ही खुद पर भी विश्वास करो जब तक तुम खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक तुम भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते कोई भी तुम्हे अन्दर से बाहर की तरफ कैसे विकसित होना है यह पढ़ा नहीं सकता, कोई तुम्हे आध्यात्मिक नहीं बना सकता,  तुम्हारी आत्मा के अलावा कोई तुम्हे सही रास्ता नही दिखा सकता इस लिए केवल आत्मा की सुनो तुम्हारी आत्मा की आवाज के साथ मै सदैव खडी हूँ ।
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अर्चिता

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता