परवरिश
भारत मे बोर्ड एक्जाम - माता-पिता और बच्चे, कितना कुछ बदल गया है दो दसक मे ?
एक चीनी कहावत है - जितनी सावधानी से छोटी मछली के व्यजंन पकाए जाते हैं, उतनी ही नजाकत से संभालना पड़ता है एक परिवार को।
चीन और जापान ने तो इस कहावत की बुनियाद को बहुत गंभीरता से लिया है पर भारत मे बच्चों की सही परवरिस के मूल्यों मे अनवरत गिरावट जारी है, यही वजह है कि आज की तारीख में बोर्ड परीक्षा मे फेल बच्चा आत्महत्या जैसा कदम उठा रहा है !
हमारे यहां अभिभावक बच्चों की परवरिश यानी पेरेंटिंग को पिछले दो दशक से केवल गंभीरता से नही ले रहा बल्कि बच्चे को All Rounder and Multi in One की तर्ज पर पूरी दुनिया से होड लगाकर परवरिस दे रहा है यह पूर्वाग्रह पाले हुए कि “मेरा बच्चा सबसे अच्छा”
हम बेझिझक कह सकते है कि बच्चों मे असफलता के बाद आत्महत्या करने की प्रवृत्ति जगाने के पीछे सबसे बडी वजह यही है “मेरा बच्चा सबसे अच्छा” का ही साइड इफ़ेक्ट है
हैं। मध्य वर्ग के अभिभावक आज भी अपने बच्चे की पैदाइश से ले कर उसके वयस
माता-पिता की कोशिश रहती है कि वे अपने बच्चों को हर वो चीज मुहैया करवाएं, जो उन्हें हासिल नहीं हुई। चाहे वह अच्छे स्कूल में पढ़ाई हो, या वीडियो गेम्स, आलीशान बर्थडे पार्टी हो या विदेश की सैर। बच्चों को बिना मांगे बहुत कुछ मिल रहा है और बिना चाहे मिल रहा है अंधाधुंध प्रतियोगिता, माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाएं और अपने आप को साबित करने का दबाव।
यही वजह है कि बाल मनोचिकित्सक डॉक्टर उमा बनर्जी कहती हैं, ‘आजकल के माता-पिता और बच्चों के बीच का व्यवहार मुझे असामान्य सा लगता है। माता-पिता अपने बच्चे को भगवान सा दर्जा दे कर उन्हें सिर पर बिठा कर रखते हैं। यही बच्चे जब अपनी मनमानी करने लगते हैं, तो माता-पिता हमारे पास आते हैं अपनी समस्या लेकर।’
आज के अभिभावक अपने समय में बिलकुल अलग जिंदगी जीते थे। संयुक्त परिवार। कई बच्चों की भीड़ में पल रहा बच्चा। समय पर खाना मिल जाता था और डांट भी। मां की भूमिका मूलत: घर संभालने की ही होती थी। बच्चों की परवरिश में उनका दखल न के बराबर रहता था। उस समय के अधिकांश पिता अपने बच्चों के साथ एक दूरी बना कर चलते थे। घर में एक अनुशासन बना रहता था। बच्चे अपनी रोजमर्रा की दिक्कतें या उलझनें अपने दोस्तों या अपने हमउम्र बच्चों से बांटते।
माता-पिता और बच्चों के बीच एक अनकही सी दूरी आज के समय में एकदम मिट गई है। आज के दौर के माता-पिता अपने आपको बच्चों का दोस्त कहलवाना पसंद करते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे हर बात उनसे शेअर करें, उनके बीच किसी किस्म की दूरी न रहे।
बच्चों और माता-पिता के बीच दोस्ताना रिश्ते अगर एक दायरे में रहे, तो संबंधों में दरार नहीं आती। लेकिन ऐसा नहीं होता। बच्चे कब हद पार कर जाते हैं, इस बात का अभिभावकों को पता ही नहीं चलता।
डॉक्टर उमा बनर्जी के पास बारह साल के अक्षय के माता-पिता लगभग रोते हुए आए थे। अक्षय राजधानी के एक नामी स्कूल में सातवीं में पढ़ता है। एकलौता बच्चा। शुरू से उसकी हर जरूरत पूरी की। अक्षय के पिता राजीव बिजनेसमैन हैं। बेटे के कहने पर उन्होंने बड़ी गाड़ी ली, प्लास्मा टीवी लिया। इस साल छठी में कम नंबर आने पर जब मां ने अक्षय को डांटा, तो उसने एकदम से मां पर हाथ उठा दिया। यह पहली बार नहीं है कि अक्षय ने मां या पिता पर हाथ उठाया हो। इससे पहले वह सिनेमा न ले जाने पर, पिज्जा न खिलाने पर ऐसा किया करता था। पर पहली बार विधि के डांटने पर उसने मां को अपशब्द कहा और मारा।
उमा कहती हैं कि विधि और राजीव की तरह महीने में कम से कम पंद्रह अभिभावक उनके पास बच्चे के उद्दंड होने या मारपीट करने की समस्या ले कर आते हैं। उमा का मानना है कि जिस दिन पहली बार बच्चा माता-पिता पर हाथ उठाए, उसे रोकना बहुत जरूरी है। चाहे वह जिद खाने-पीने जैसी मामूली चीज के लिए क्यों न हो।
‘बच्चे का दोस्त बनने के लिए उनकी हर जिद पूरी करना जरूरी नहीं है। बल्कि शुरू से उन्हें सही मूल्य और संस्कार देना चाहिए। उन्हें तर्क के साथ बताएं कि बड़ों के साथ मार-पीट या डांट फटकार क्यों गलत है। बच्चों को सेंसिटिव बनाना स्कूल का नहीं, माता-पिता का दायित्व है। अगर शुरू से उन्हें पैसे से कोई चीज ले दे कर बहलाया जाएगा, तो मानवीय मूल्यों की इज्जत नहीं कर पाएंगे।’
पेशे से इंजीनियर स्मिता नायक को अपने बच्चों यश और स्मीहा से कोई शिकायत नहीं। वे कहती हैं, ‘मेरे सबसे अच्छे मित्र मेरे बच्चे हैं। यश चौदह साल का है और स्मीहा दस की। मैं उनसे हर बात शेअर करती हूं। दो साल पहले रिसेशन की वजह से मेरे पति कल्पेश की नौकरी चली गई थी। उस साल न हम बच्चों को गरमी की छुट्टियों में कहीं बाहर ले जा पाए न ही समर क्लासेस में डाल पाए। मैंने उन्हें स्पष्ट बता दिया था कि घर की आर्थिक स्थितियां ठीक नहीं है। दोनों बच्चों ने अच्छी तरह समझ लिया। उन्होंने पूरे साल न नए कपड़ों की मांग की, न बाहर जा कर फिल्म देखने या खाना खाने की। उस साल हम बच्चों का बर्थडे भी नहीं मना पाए। पर मैंने पाया कि इस घटना से स्मीहा अचानक बहुत मैच्योर हो गई है। अब वह पैसे की कद्र करने लगी है।’
इतनी आदर्श स्थिति हर परिवार में नहीं होती। अब वह समय नहीं रहा कि बच्चे पढ़-लिख कर ठीक-ठाक नौकरी कर लें, तो माता-पिता को सुकून मिल जाता था। आज के दौर में हर तरफ गजब की प्रतियोगिता है। कई माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षा पूरा करना चाहते हैं। नाच-गाना, पेंटिंग, अबाकस, खेल, स्विमिंग और दूसरे कई क्लासेस में जाने के बाद उन्हें अपनी नियमित पढ़ाई के लिए ट्यूशन भी भेजा जाता है। जिन बच्चों पर जरूरत से ज्यादा अपेक्षाओं का बोझ होता है, वे बहुत जल्द मनोवैज्ञानिक दिक्कतों से घिर जाते हैं। बच्चों में डिप्रेशन अब आम बात हो गई है।
उमा बनर्जी को ‘क्वालिटी टाइम’ देने वाले अभिभावकों से भी आपत्ति है। वे कहती हैं, ‘बच्चों को पूरा वक्त देना चाहिए। उस वक्त में हो सकता है आप सब साथ बैठ कर खाना खाएं, टीवी देखें या कुछ पढ़ें। मैं तो यहां तक मानती हूं कि क्वालिटी टाइम एक भ्रामक शब्द है। इसके नाम पर जरूरत से ज्यादा पैंपरिंग या लाड बच्चों को बिगाड़ता है। उनकी समझ विकसित नहीं होती। बच्चे के साथ कुछ समय मॉल में या पार्क में बिताने से एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रिश्ता नहीं बन पाता।’
यह सही है कि आज परिवार में माता-पिता और बच्चों के बीच दूरियां रही ही नहीं। शिक्षित मांएं बच्चों की बेहतरीन परवरिश चाहती हैं। वहीं आधुनिक पिता की भूमिका भी ‘ब्रेड अर्नर’ से कहीं ज्यादा की है। वह बच्चों का फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड है। माता-पिता चाहते हैं कि घर के निर्णयों में भी बच्चों की भागीदारी हो।
हर दौर में माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते बदलते रहे हैं। हर दौर के अभिभावक मानते हैं कि वे अपने माता-पिता से बेहतर अपने बच्चों की परवरिश कर सकते हैं। अगर आज की पीढ़ी कम संवेदनशील है या उनके मूल्य बदल रहे हैं, तो कहीं न कहीं इसमें उनकी सोच से ज्यादा उनके अभिभावकों की सोच शामिल है।
परिवार की उष्मा को बनाए रखने के लिए उमा बनर्जी के टिप्स-
बच्चों को शुरू से सिखाएं कि ईमानदारी, सच्चाई, धैर्य और अनुशासन का कोई पर्याय नहीं। आप उनके सामने खुद उदाहरण बनें।
उनकी प्रशंसा का कोई अवसर ना चूकें। अगर बच्चा गलती करता है, तो उसे अकेले में फटकारें, दूसरे बच्चों के सामने नहीं।
उनका आत्मविश्वास बढ़ाएं। उन्हें जीने की कला सिखाएं।
जानवरों से प्यार करना सिखाएं, इससे वे संवेदनशील होंगे।
बच्चों के दोस्त बनें, लेकिन हमेशा एक हलकी दूरी बनाए रखें। पति-पत्नी अपनी बातें उनसे ना शेअर करें।
बच्चों को अपनी बात कहने दें। हमेशा संवाद बनाए रखें।@@#######@#
अपने बच्चों को ऑल राउंडर्स बनाने के चक्कर में वर्तमान भारतीय पारिवार एवम परिवेश बच्चों के सामने खड़ा कर रहे हैं असामान्य समस्याओं का जटिल पहाड़ : जिसके चलते बच्चों की सुरक्षित परवरिश एवम स्वस्थ विकास पर प्रश्नचिह्न लग गया है ?? ===============================
भारत में, बच्चों पर शिक्षा और शिक्षकों द्वारा डाला गया दबाव पारंपरिक तनाव का एक प्रमुख कारण है। पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए माता-पिता द्वारा बच्चों पर डाला गया असामान्य दबाव अधिकांशता अधिक रहा है। अन्य देशों के विपरीत, भारतीय छात्र के संकट में साथियों द्वारा दबाव नहीं डाला जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि परिवार से आने वाले शिक्षकों में विशिष्टता की जरूरत है, क्योंकि बच्चों से किया गया खराब व्यवहार उनके मनोबल को कमजोर कर देता है और यह उनके विफल होने का एक प्रमुख कारण बनता हैअधिक कमाई वाले कारोबार के रूप में खेल और मनोरंजन के उदय के साथ, अधिकांश भारतीय लोगों का पारंपरिक कैरियर के रूप में इन क्षेत्रों में ध्यान आकर्षित हुआ है। हालांकि, अधिकांश भारतीय माता-पिता, बच्चों के लिए शिक्षक की आवश्यकता को दूर करने में असमर्थ हैं। भारत के सबसे प्रसिद्ध क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने, कई माता-पिता को यह बताकर सोंचने पर मजबूर कर दिया कि उनके माता-पिता ने उनके शिक्षकों को अभ्यास के दौरान होने वाली गलतियों पर पिटाई करने की अनुमति दी थी। और अब, किसी भी खेल या मनोरंजक गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रतिस्पर्धा आवश्यक है, माता-पिता अपने बच्चों को ऑल राउंडर्स बनने के लिए प्रेरित करते हैं, इसमें बच्चों की कहानी अक्सर सफल कहानी के बजाय एक पीड़ित कहानी के रूप में खत्म होती है।
बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव
भारत में 15 से 29 साल की उम्र के किशोरों और युवा वयस्कों के बीच आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। परीक्षा में विफलता देश में होने वाली आत्महत्याओं के शीर्ष 10 कारणों में से एक है जबकि पारिवारिक समस्या शीर्ष तीन में है। शुरू में, खराब मानसून वाले क्षेत्रों के किसानों को सबसे कमजोर समूह माना जाता था, हाल ही में 2012 और 2014 के बीच किये गये अध्ययन से पता चला है कि शहरी इलाकों में अमीर और शिक्षित परिवारों के युवा वयस्कों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति अधिक है। 2014 में जारी एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, 2013 में परीक्षाओं में असफल होने के बाद 2,471 छात्रों ने अपनी जान गवां दी थी, 2012 में, यह संख्या 2,246 पर आंकी गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें से ज्यादातर आत्महत्याओं का कारण पढ़ाई के लिए बच्चों पर माता-पिता का दबाव और अच्छे रिजल्ट की उम्मीद है, जो छात्रों के कौशल या हितों के अनुरूप नहीं है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश ने इस क्षेत्र में सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज कराया है। कई मामलों में बच्चों के मन में आत्महत्या करने की भावना नहीं होती है, माता-पिता द्वारा इस प्रकार का अनुचित दबाव डाला जाता है, इसमें बच्चों के खराब पालन पोषण और देखभाल के आरोप शामिल हैं जो कई प्रकार के मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण बनते हैं। यह समस्या युवा और वयस्कता के विभिन्न चरणों में प्रकट होती है।
शिक्षक बनाम खेल बनाम कला
आधुनिक भारत में शिक्षा प्रणाली और माता-पिता की सबसे बड़ी विफलताओं में दो कारण हैं, यह बच्चे की सीखने की अक्षमताओं की पहचान करने में असमर्थता और जीवन के अंत में शैक्षणिक विफलता पर विचार करने में असमर्थ हैं। जबकि छात्रों और बच्चों पर बढ़ते दबाव के लिए सरकारा द्वारा चलाई गयी नीति को भी दोषी ठहराया जाता है इसमें 8 वीं कक्षा तक किसी बच्चे को फेल नहीं किया जाता है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि दबाव का एक बड़ा हिस्सा माता-पिता की तरफ से आता है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु इसका उदाहरण हैं जहाँ बच्चों पर उनके माता-पिता द्वारा हाई स्कूल में विज्ञान और गणित लेने के लिए बाध्य किया जाता है, ताकि वह आगे चलकर डॉक्टर या इंजीनियर बन सकें। बच्चों के वाणिज्य या कला में रुचि के विकल्प को नकार दिया जाता है।
बच्चों की वृद्धि के लिए खेल और शारीरिक गतिविधियां जरूरी हैं, यह उनके तनाव को कम करने में काफी सहायता प्रदान करती हैं। बच्चों में खेल संबंधी गतिविधियां उत्पन्न करने की आवश्यकता है लेकिन माता-पिता द्वारा डाला गया अनुचित दबाव बच्चों में खेल के प्रति घृणा उत्पन्न करता है। प्रतिस्पर्धात्मक अभिभावकों द्वारा बच्चों की लगातार तुलना और शर्मिंदा करने की प्रवृत्ति ने इस स्थिति को और भी बदतर कर दिया है।
बच्चों की रचनात्मकता को उत्तेजित करने के लिए नृत्य, संगीत, कला और अन्य गतिविधियां उत्कृष्ट विकल्प हैं। इसमें वह अनुशासन, ध्यान केन्द्रित करने और टीम वर्क जैसे महत्वपूर्ण मूल्यों को सीखते हैं, इससे उनको किताबी दुनिया से बाहर आकर अपनी क्षमताओं को पहचानने में मदद मिलती है। अच्छा प्रदर्शन करने के लिए बच्चों पर अभिभावकों द्वारा डाले गये दबाव ने इन सुखद गतिविधियों को प्रतिस्पर्धी घटनाओं में बदल दिया है। इसने बच्चों को भारी तनाव में डाल दिया है।
तनाव के लक्षण
उदासीनता तनावपूर्ण बच्चे के सबसे बड़े लक्षणों में से एक है।अध्ययन, खेलने का समय, टेलीविजन और मनोरंजन या बाहरी गतिविधियों में दिलचस्पी का अभाव आदि इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि कुछ सही नहीं है। जब आप इन कारणों की जाँच करें तो असाधारण थकान, भूख की कमी, नींद के अशान्त तरीके आदि पर भी ध्यान दें।बच्चों के बार-बार बीमार होने पर भी ध्यान दें यह तनाव का एक आम लक्षण है। अक्सर सिरदर्द, पेट में दर्द और जी मिचलाना आदि आने के कुछ मायनों में एक बच्चा सामान्यतः किसी विशेष गतिविधि के संबंध में भय या चिंता से निपट सकता है।जब बच्चों की मानसिक स्थिति की बात आती है तो नकारात्मकता और नकारात्मक व्यवहार उनकी गतिविधियों से स्पष्ट होता है। नकारात्मक व्यवहार में अस्थिर मनोदशा, आक्रामकता, सामाजिक अलगाव या साथियों से बातचीत न करना और घबराहट आदि शामिल हैं।किशोरों के मामले में अभिभावकों द्वारा डाले गये अत्यधिक दबाव से तनाव में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। जब छात्र अभिभावक के अनुचित दबाव से निपटने में असमर्थ हो जाते हैं तब वह धूम्रपान, नशीली दवाओं का सेवन और विद्यालयों में बेकार घूमने आदि जैसी अनदेखी गतिविधियों का अभ्यास करने लगते हैं।जिन गतिविधियों में बच्चे आमतौर पर भाग लेना अधिक पसंद करते हैं, वह कार्य करने के लिए रोकर जिद कर सकते हैं। बच्चों पर शिक्षकों या अभिभावकों द्वारा डाला गया अत्यधिक दबाव उनके उस क्षेत्र में भी प्रदर्शन को खराब कर देता है जिसमें वह स्वाभाविक रूप से निपुण होते हैं।
अभिभावकों की सकारात्मकता
आत्मनिरीक्षण – आत्मनिरीक्षण माता-पिता का एक महत्वपूर्ण तत्व है। लंबे दिन के बाद अपने माता-पिता को अपने बच्चों से बातचीत करनी चाहिए। क्या आपने पारस्परिक प्रभावों पर ध्यान दिया है या आपके बच्चे को असहमति का अधिकार है? क्या आपके व्यवहार में उसको समझाने और प्रेरणा देने की बजाय मजबूर किया जा रहा है?
प्रोत्साहित करें – माता-पिता द्वारा बच्चे को प्रोत्साहित करना, उसकी सफलता का एक मूल मंत्र हो सकता है। आप अपने बच्चे के जीवन में एक प्रमुख खिलाड़ी हैं उसको आत्मविश्वास, कड़ी मेहनत और उत्कृष्टता सिखाना आप पर निर्भर करता है। यह भी आपकी ही जिम्मेदारी है कि आपका बच्चा आपकी हर बात को दिल से स्वीकार करे। विफलता नए अवसरों की तलाश करने और शोक का एक अवसर नहीं है।
बातचीत करें – आपके बच्चे के साथ बिताए जाने वाले कुछ सबसे अच्छे पल वह होते हैं जब आप खेल रहे हों और मस्ती या मनोरंजन की गतिविधियों में खुशी से भाग ले रहे हों। इन पलों को गहरी मित्रता और दोस्ती बनाने के अवसर के रूप में इस्तेमाल करें। आपके द्वारा दी गयी कोई भी वह सलाह जो उसको आज्ञा या दबाव न लगे, बच्चे के व्यक्तित्व को मजबूत करने में बहुत सहायता करेगी।
सहायता प्राप्त करें – आपको और आपके बच्चे के लिए लगातार सहायता मांगना वर्जित नहीं है। वास्तव में परिवार परामर्श के लिए जीवन का एक जरूरी हिस्सा है, जिससे हम आगे बढ़ रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों और परामर्शदाताओं को नकारात्मक व्यवहार संबंधी गतिविधियों की पहचान करने और उन्हें अलग करने में आपकी सहायता करने के लिए प्रशिक्षित किया
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