अपने तत्कालीन साहित्यकारों की उपेक्षा के शिकार महान राष्ट्रवादी चिन्तक, विचारक, एवम उपन्यासकार वैद्य गुरूदत्त के लेखन कौशल पर एक समीक्षा :
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वैद्य गुरूदत्त अपने समय के प्रखर राष्ट्रवादी, प्रखर चिन्तनशील विचारधारा के उपन्यासकार रहे है ! देश की आजादी से पूर्व एवम देश की आजादी के बाद केवल देश एवम देश के भविष्य को केन्द्र मे रखकर देश की व्यवस्था मे उपजती नकारत्मकता पर अपनी रचना एवम अपने व्यक्तित्व से सीधा प्रहार करने वाले लेखक के रूप मे गुरूदत्त के लेखन कौशल ने समय देशकाल और समाज तीनो को चैतन्य करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर झकझोरने का कार्य किया है !
वैद्य गुरुदत्त उपन्यासकार गुरुदत्त के रूप मे हिन्दी के महान उपन्यासकार थे। वे उन रचनाकारों में से थे जिनकी कृतियाँ कालातीत हैं। गुरुदत्त के उपन्यासों में कतिपय ऐसे विशेष तत्त्व हैं जो कथाकार को लोकप्रियता की चरम सीमा तक पहुँचने में सदैव सहायक होते हैं। पर इसे समय और व्यवस्था की साजिश कहे अथवा भारतीय साहित्य विधा मे उपन्यास लेखन की भेद भाव पूर्ण की रणनीति जिसके चलते गुरूदत्त एवम गुरूदत्त के उपन्यास असहिष्णुता के शिकार हुए !
गुरूदत्त के उपन्यासों की घटनात्मकता,स्वभाविक चित्रण, समाज के कटु और नग्न सत्य, इतिहास की वास्तविकता, घटनाओं की आकस्मिकताएँ तथा अनूठी वर्णन-शैली आदि लोकप्रियता को बढ़ाने वाले तत्त्व पाठकों के लिए विशेष आकर्षण बनते हैं। वर्ग-संघर्ष, यौनाकर्षण, चारित्रिक पतनोत्थान, व्यर्थ का दिखावा और चकाचौंध में छिपी कटुता, नग्नता और भ्रष्टाचार का सुन्दर अंकन उनके उपन्यासों को जनमानस के निकट ले जाता है। आम जनमानस मे यही उनकी कृतियों के अत्यधिक लोकप्रिय होने का प्रधान कारण रहा है।
जिसे आजादी के बाद वाला हमारा भारतीय साहित्य समाज पचा नही पाया और शुरू कर दिया गया गुरूदत्त के लेखन पर साजिशो का खेल ! भारतीय जनमानस एवं पाठकों के बीच एक भ्रम फैलाया गया कि : गुरूदत्त के उपन्यास सेकुलरिज्म व्यवस्था के विरूद्ध है ! जबकि :
वैद्य गुरूदत्त के उपन्यासो की दृढ़ धारणा थी कि आदिकाल से भारतवर्ष में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित हो सकता है क्योंकि उसका ही इस देश की धरती से मातृवत् सम्बन्ध है। उनका विचार था कि शाश्वत धर्म के रूप में यदि किसी को मान्यता मिलनी चाहिए तो वह एकमात्र ‘वैदिक धर्म’ ही हो सकता है क्योकि वैदिक धर्म से सेकुलर इस दुनिया मे कुछ भी नही है अतः इस वैदिक परम्परा एवम सनातन धर्म को अनदेखा कर के इस देश मे सेकुलरिज्म की नीव रखना भविष्य मे देश उन्नति के लिहाज से घातक शिद्ध होगा !
वैद्य गुरूदत्त ने जिन-जिन ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है उन सब में हमारे देश की तत्कालीन संस्कृति, सभ्यता और घटनाओं के चित्रण के साथ-साथ उनकी अपनी स्वस्थ्य कल्पना मुखर बनकर घटनाओं के क्रम के साथ ही आकस्मिक रोमांच का भी निर्माण करती है। उनके द्वारा ऐसे नये पात्रों को प्रस्तुत किया जाता है, जिनका भले ही उपन्यास से दूर का भी सम्बन्ध न हो परन्तु जो उपन्यास के दृष्टिकोण को सबल रूप से प्रस्तुत कर सकें और समय-समय पर, स्थान स्थान पर ऐतिहासिकता का बौद्धिक विश्लेषण भी करते रहें।
वैद्य गुरुदत्त के उपन्यास लेखन पर चिन्तन करने के बाद देश के भविष्य पर जो स्वस्थ्य तथ्य मुझे नजर आते है वह है उनके सभी प्रकार के उपन्यासों के रचनाक्रम में विशिष्ट दृष्टिकोण का स्पष्ट होना, सुखद लगता है की गुरूदत्त का वह विशिष्ट दृष्टिकोण भारत के विकास निर्माण के लिए परिलक्षित होता है।यही बात उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में भी देखने में आती है अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी बात अर्थात् अपना विशिष्ट दृष्टिकोण पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास हर पल करते है गुरूदत्त ! इतिहास का पुट इसलिए रखते है क्योंकि पूर्वयुगीन घटना चक्र राजाओं अथवा बादशाहों, राज्यों और राष्ट्रीय महापुरुषों की कथाओं से सम्बन्धित होता है, इसलिए इस वर्ग के उपन्यासों में उन्होंने अपनी मनन परिधि को भी राजा और प्रजा तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों तक सीमित किया है। अपनी कृतियों में उन्होंने राजा और राज्य का अन्तर, राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध तथा राज्य की सुरक्षा एवम विकास का एकमात्र साधन एवं बल, इन तीन प्रश्नों का विश्लेषण करके इनका अनुकूल उत्तर देने का प्रयास किया है। वे राजा और प्रजा के पारस्परिक सम्बन्ध को शासन और शासित का सम्बन्ध नहीं मानते, अपितु वे राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित करने का पूरा यत्न करते रहे हैं। उन्होंने अपने उपन्यास की घटनाओं के बौधिक विश्लेषण को विशेष स्थान दिया है। सामान्यता पात्रो के द्वारा कथा कहते-कहते देश हित के लिए अनेक गम्भीर बातों की ओर उन्होंने संकेत भी कर दिए हैं।
गुरूदत्त जी ने जिस विधा एवं विषय पर अपनी लेखनी चलाई है उसे उसके मुद्दे तक पूर्णता प्रदान किया है। उनके द्वारा लिखित उपन्यासो को पढ़ने के उपरान्त पाठक के मन में कोई संशय बचा नहीं रह जाता सारे तथ्य आँख के सामने इस प्रकार जीवन्त हो जाते है ! लिखने की गुरूदत्त की यही शैली मुझे हमेशा उनकी विशेषता के रूप मे नजर आती है ।
वैसे तो बहुत सौतेला व्यवहार किया गया है भारतीय साहित्य समाज मे गुरूदत्त साहब के साथ ! साहित्य मूर्धन्यो ने साहित्य के बेजा पण्डितो ने तो उनके लेखन को उनके उपन्यासो को असहिष्णुता का प्रतीक ही घोषित कर दिया भारतीय साहित्य जगत के लिए और हर कदम उन्हे एवम उनकी रचना को आम जन मानस से दूर करने का प्रयास होता रहा है पर सत्य तो यह है कि : वैद्य गुरूदत्त से बडा सहिष्णु लेखक आजादी के बाद भारत मे कोई दूसरा हुआ ही नही ! गुरूदत्त इस देश के आखिरी व्यक्ति को केन्द्र मे रखकर अपनी रचना करते थे ,
पण्डित दीनदयाल की सोज को अगर सच मे किसी ने पुरजोर शब्द की ताकत प्रदान किया है इस देश मे तो वह एक मात्र लेखक वैद्य गुरूदत्त ही रहे है !
पर दुखद की 8 अप्रैल 1989 अपने निधन से पूर्व तक स्वयम गुरूदत्त भारतीय व्यवस्था पर हावी चाटुकारिता का राग गाने वाले छद्म राष्ट्रवादियो, छद्म सेकुलरो, छद्म साहित्यकारो, की उपेक्षा का दर्द झेला !
और उनके निधन के बाद इस देश की निरंकुश होती अति वादी व्यवस्था द्वारा गुरूदत्त के लेखन कार्यो को आम जनमानस से दूर रखने की साजिश के चलते उनके उपन्यास भी सदैव उपेक्षा का दर्द झेलने को विवस कर दिए गए है !
क्रमशः
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
25/12/2018
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