तुम अभिमन्यु की तरह घिरे हो
वह कौरव की तरह अडे है
सुनो भारत :
हजार युग बीत गए
क्या तुम अब तक न सीख पाए
छलित ब्यूह रचना से
बाहर निकलना
चक्रव्यूह का सातवा द्वार तोड कर ..?
यह कहाँ उचित होगा आर्यव्रत कि :
तुम इतिहास से कुछ भी न सीख लो
यह कहाँ उचित होगा कि भरत खण्डे :
हर युग मे कोई अर्जुन ही
बदला चुकाता रहे
निर्दोष अभिमन्यु के वध का ..?
युग के अनुसार अब हमे
भारत ؛ तुम्हारे किरदार मे
कुछ नया बदलाव चाहिए,
छलित व्यूह रचना के
सातवे द्वार पर :
अभिमन्यु का नही बल्कि
जयद्रथ का शीश चाहिए !!!
==================================
ट्रेन मे बैठे बैठे बस यूँ ही
कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
स्तम्भकार/पत्रकार/लेखिका/
समीक्षक/स्वतंत्र टिप्पणीकार/
Comments
Post a Comment