ग़ज़ल
आज़ाद कर दिया उन्हें अर्ची
जो मेरे साथ घुट रहे थे,
भीड़ के शहर मे :
बोझिल सा हो चला था सफ़र
सच कहूँ तो रिश्तो में ......
सूरतें ग़ज़ल की तरह
अब लोग नही मिलते !
“चाँदी का भरम रेत के घर में ” जैसी ज़िन्दगी
टूट जाने की हद तक मिन्नते
फिर भी :
ख्वाहिशों का रेत होकर बिखर जाना
सच कहूँ तो :
रेत पर लिखी हुई ग़ज़ल को
कभी भी लोग आईने जज़्बात होकर ...
रूह तक नही पढ़ते !
थी रुखसती की आरज़ू अगर
तो गले मिलकर ....
सामने से रूखसत हुए रहते,
वक़्त तुम्हारा यूँ दबे पाँव चुपके से निकलना
सच कहूँ तो :
एक धोका है,
क्या तुम्हे खबर नही :
बिना वजह अपनो से फरेब नही करते !
अब जब दामन छुड़ा ही लिए हो माजी,
तो फिर मेरे अरमानों की कत्ल से गुरेज कैसा ?
परवाह तुम्हे क्यूँ इतनी कि :
तुम्हारा जाना हमारी हार होगी ?
हम तो शायर हैं टूटना हमारी फितरत में,
सच कहूँ तो : अपनी इसी अदा पर
जमाने से मिले हर एक जख्म को
हम ग़ज़ल की तरह जी लेते हैं !!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
स्तम्भकार/पत्रकार/लेखिका/
समीक्षक/स्वतंत्र टिप्पणीकार/
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