{{ प्रेम }}

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सुनो कलम वाली बाई पश्चिम से पूरब तक सब प्रेम दिवस के आगमन - स्वागतम् के आनन्द में विह्वल हैं रोज डे, प्रपोज डे, चाॅकलेट डे, हग डे, ब्लाह.. ब्लाह .. ब्लाह.. डे, फिर स्लैप डे पर आकर प्रेम का पूर्ण अंत याने - के 28 दिन मे एक वेल प्लान्ड एजेण्डे के तहत प्रेम का आरम्भ और फिर हार्ट ब्राॅकन ( हृदय विदारक ) अंत, ...ओह प्रेम का इतना दुखद, इतना सोचनीय अंत बाई सा.....लेकन क्यो..???
मै पूछती हूं कृष्ना से और स्वयम से भी क्या प्रेम की उम्र इतनी छोटी, इतनी बौनी भी हो सकती है कृष्णा .?
प्रेम विषय पर 1 फरवरी से लेकर प्रेम दिवश 14 फरवरी तक पूरब - पश्चिम, उत्तर - दक्षिण, चारो कोनो, दसों दिसाओं मे अप्रमेय गति से अनवरत  लिखा - पढ़ी होती आ रही है, अब यह कोई नई बात थोड़े ही है अर्ची, हर वर्ष यह लिखा - पढ़ी होती है, कोई प्रेम जुड़ने पर अपना गुलाबी संस्मरण लिखता है, तो कोई प्रेम टूटने पर अपना अवसादी संस्मरण लिखता है, सब लिखते है, हां जी सब लिखते  हैं यह और बात है कि : इसे समझता कोई नहीं है क्योंकि 28 दिन मे उत्पन्न और क्षय हो जाने वाले इस डे आधारित प्रेम मे इतनी समझ होती ही कहां है ..????
28 दिवश 28 प्रकार के उपहार के भरोसे टिके इस प्रेम दिवस से “लव बर्ड” को आखिर में एक रोज जब कोफ्त हो जाती है तो थप्पड़म - थप्पड़ी, टूटम्म - टुट्टी का मुकाम आता है इस मुकाम के बाद तो "नो एनी चांस फाॅर द जुगाड़म - फुगाड़म् .........
                        कृष्णा क्या तुम्हें नहीं लगता :
" प्रेम गली अति सांकरी " वाले तुम्हारे फार्मुले पर आधारित तुम्हारा वाला प्रेम अब हमारी युवा पीढ़ी के लिए आऊट डेटेड हो चला है ? आज की हमारी सयानी युवा पीढ़ी संत बैलेंटाईन बाबा के 28 दिवसिय कोढ़ी प्रेम में खाज कर - कर के खुश है उसे कहां पता कि : भारत मे घनानंद नामक कवि ने सदियों पूर्व प्रेम के लिए कुछ इस तरह अपना विचार दिया था :

        " अति सूधो सनेह को मारग है ,
           जहाँ नैकु सयानप बांक नही 
           तुम कौन सो पाठ पढ़ो है लला
           मन लेहू पै देहू छटाक नहीं ..???!!

कृस्णा : जो प्रश्न कभी राधा ने तुमसे अपने मौन प्रेम में किया होगा ,
जो प्रश्न योगन मीरा ने कभी अपनी बेसुध/अटूट बिरह प्रेम वेदना में तुमसे किया होगा ,
वही प्रश्न , हां वही प्रश्न , एक एक शब्द वही प्रश्न आज तुम्हारी अर्चिता भी तुमसे करती है,
एक हजार आकुलता - व्याकुलता से आहत होकर कृष्णा आज तुम्हारी चरण रज सिरोधार्य करने वाली तुम्हारी अर्चिता तुमसे पूछती है :
बोलो कृष्णा क्या मुखर होना ही प्रेम की पराकाष्ठा है ....??
क्या प्रेम पर लिखा - पढ़ी करना ही प्रेम का आधार है .....????
क्या प्रेम केवल कहने - सुनने - व्याख्यायित करने का विषय मात्र है .....?????
क्या अमूल्य उपहार और अगाध तृष्णा ही प्रेम तय करने के मानक रह गए हैं .....???????
क्या राधा, मीरा, की तरह तुम्हारे प्रेम मे डूब कर उबर जाना प्रेम नही है ......?
क्या महल की चहारदीवारी की वर्जनाओं को तोड़कर अपने पैरों मे तुम्हारी भक्ति को घूंघरु बना कर डाल देना फिर उन्ही घुंघरुओं की थाप पर तुम्हें पुकाते - पुकारते भावविभोर होकर नाच पड़ना " पग घुंघरु बांध मीरा नाची रे" प्रेम नही है ...???
क्या मीरा का चित्तौडगढ़़ से वृंदावन तक का सफर तय कर लेना प्रेम नहीं ....???
क्या हर सांस में कृष्णा तुमको महसूस करने वाली तुमको बसा कर कर जीने वाली इस बावली अर्चिता की बावली भावनाएं प्रेम नही ...???
क्या मेरे कृष्णा का योग ऋषि बाबा उधव से यह कहना कि :
            " उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही
               वह यमुना की सुन्दर नगरी
                 वह कुंजन की छांही
                उधौ मोहि ब्रज बिसरत ....!!"

प्रेम की पराकाष्ठा नही है .....???
कृष्णा तुम्हारी अर्ची आज जानना चाहती है कि क्या भोग ही प्रेम है .??
क्या भौतिक सुख ही प्रेम है ..???
क्या प्रेम का मांसल हो जाना ही प्रेम की पराकाष्ठा है .....???
बिल्कुल नही क्योंकि अगर भोग, भौतिकता, मांसलता, ही प्रेम की पराकाष्ठा होती तो कुरूक्षेत्र में खड़ा तुम्हारा वह धनन्जय, तुम्हारा वह कौन्तेय, तुम्हारा वह सखा अर्जून तुम्हारी सरपरस्ती में गाण्डिव लिए महाभारत नहीं लड़ रहा होता । महाभारत के नाश पर पून: जीवन नहीं लिख रहा होता, ना ही जीवन आभा मे धर्म ध्वज फहरा रहा होता ...???
हां कृष्णा तुमसे ही तो मैने जाना है कि : प्रीयतम जब कर्म पथ पर हो तब प्रीयतमा का प्रेम मौन होना चाहिए ताकि प्रेम को निर्विकार भाव से शक्तिशाली बनने का अवसर मिल सके ।
प्रीयतम जब योग पथ पर हो तब प्रीयतमा को जगत वर्जनाओं को तोड़ कर योगीनी बन कर चीर समाधि धारण करना चाहिए ताकि प्रेम अमरत्व को प्राप्त हो सके। प्रीयतम जब भावनाओं के सागर में अपनी प्रेम नौका डाले डूब - उतरा रहा हो तब प्रीयतमा को करुणा बन उसको सम्बल देना चाहिए .....
प्रीयतम जब मीरा की भक्ति बन जाए तब प्रीयतमा के पग के एक - एक घुंघरु कोटि - कोटि नृत्य साधना मे रम कर अटूट श्रद्धा से नाच उठने चाहिए ।
क्योंकि : प्रेम अखण्ड है , प्रेम अलौकिक है, प्रेम कहने-सुनने का नही आत्मा के स्तर पर अनुभव करने वाली अनुभूति का नाम है , प्रेम राधा है, प्रेम मीरा है, प्रेम स्वयम योगीराज कृष्ण है, प्रेम कर्म है , प्रेम कुरुक्षेत्र में गाण्डिव लिए खड़ा अर्जून है, प्रेम दिव्य है, प्रेम सृजन है, प्रेम सत्य है , प्रेम सुन्दर है , प्रेम वैराग्य है , प्रेम साधना के स्तर पर मोक्ष है । प्रेम अजर - अमर पवित्र वेद ऋचा है । प्रेम वह बसंत है जो देर - सबेर सबके जीवन मे आता रहता है कोई इसे मीरा बन जग जाहिर कर देता है, कोई राधा की तरह मौन हो जाता है, कोई अर्चिता की तरह तड़प कर भी वेदना की मीठास में खो जाता है बिना किसी प्रतिक्रिया के,
प्रेम ना देह है, ना उम्र है, ना असमानता है, ना ही जिद्द है, प्रेम केवल योग और वैराग्य है, तुम्हारे मुँह से निकले  एक शब्द सुनने के लिए युगो से तरसता हुआ वैराग्य !
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
स्तम्भकार/पत्रकार/लेखिका/
समीक्षक/स्वतंत्र टिप्पणीकार/
मोबाईल नम्बर : 09919353106

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