बस इतनी सी ही तो ख्वाहिस थी
तुम मेरी कलम की ताकत बनो और
मै तुम्हारे लिए दोनो जून की
दाल रोटी बनाऊँ तुम्हारी सरपरस्ती मे,
दाल - रोटी बनाते - बनाते किचेन के
8×12 वाले दायरे मे खडी होकर भी
तुम्हारे सहारे पूरी दुनिया की गोलाई नाप लूँ
अपनी तीखी बेतरतीब कलम से,
हजार बार एक ही ख्वाब, बस यही एक ख्वाब:
मै तोडू समाज की तमाम कुत्सित वर्जनाए
किन्तु तुम्हारे स्नेह और प्यार के दायरे मे रहकर
चकले से उठाकर तवे पर डालते हुए
अपने हाथो से बेली गई गोल - गोल रोटी को
उलटते - पलटते - और सेकते हुए  !

तुम्हे पता है ना :
घर, आँगन, की छाँव
दाल -  रोटी बनाने का शौक
8×12 की लम्बाई - चौडाई वाले
घर के किचेन के अलावा
भावनाओ के जाल मे डूबती - उतराती
शब्दो के धागे मे जीवन के
विभिन्न पहलू की कहानी बुनती
मेरी कलम
इससे ज्यादे कुछ और की कभी
कामना ही नही रही मेरी,
मै चाँद तक जाकर भी
दिल से जमीन पर कायम रहती हूँ
जानते हो क्यो :
क्योकि :
तुम्हारे चेहरे की पाक मुस्कुराहट
मुझे तुम्हारी बाँहो के बाँह - पास मे
बडी हिफाजत से जकडे हुए है ,
तुम्हारी दो जागीरे :
एक : पूरी दुनिया के लिए खुशी बाटते
तुम्हारे दोनो हाथ ,
दूसरा : तुम्हारा निष्कलुश मन,
शायद यही तो मुझे तुमसे जोडती है
यह कहते हुए कि :
तुम्हारे खुशी बाटने वाले हाथ
मेरी कलम को भी उर्वर करेगे !
अब इससे ज्यादे एक स्त्री
कुछ और कहाँ पाना चाहती है
किसी पुरूष से !!

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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता

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