फ़िल्म क्षेत्र में ऑस्कर अवार्ड :
बेहतरीन हिंदी फिल्मों को भी क्यों नही मिलता ऑस्कर ?
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इस वर्ष 3 मई 2018 को हमारा भारतीय सिनेमा पूरे 105 साल का हो गया। हम सब जानते है कि : किसी भी देश में बनने वाली फिल्में उस देश के सामाजिक, राजनीतिक जीवन, रीति - रिवाज, सभ्यता - संस्कृति, एवम संस्कारों का दर्पण होती हैं। भारतीय सिनेमा के एक सौ पांच वर्षों के लम्बे इतिहास में हम सब भारतीय समाज के विभिन्न चरणों का अक्स साफ - साफ देख सकते हैं।
3 मई वर्ष 1913 में मनोरंजन के क्षेत्र में दादा साहब फल्के ने गुलाम भारत मे एक बडा क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिखाया था जब इस तिथि को पहली बार उनके निर्देशन में भारत की पहली फीचर फ़िल्म “राजा हरिश्चंद्र” का रुपहले परदे पर पदार्पण हुआ ।
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के द्वारा आरम्भ किया गया भारतीय फिल्मों का यह सफर आज जब 105 वर्षों की अपनी लम्बी यात्रा तय कर चुका है ऐसे में हिन्दी सिनेमा के सामने एक बडा और गम्भीर यक्ष प्रश्न यह है कि : जब हिन्दी सिनेमा ने केवल भारत के लिए ही नही बल्कि पूरी दुनियाँ को भी बेशुमार कला प्रतिभाएं दीं, भारतीय समाज और चरित्र को गढ़ने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है, तो फिर क्यो हमारा हिन्दी सिनेमा विश्व स्तर का वह एक बडा सम्मान हासिल करने मे आज तक असफल रहा है दुनियाँ जिसे “ ऑस्कर  ” के नाम से जानती है  ???
1 फरवरी 2019 शुक्रवार को देर रात वर्ष 1971 मे बनी “आनंद फिल्म” देखते - देखते मेरे दिमाग में अचानक कई  सवाल आए ! ऋषिकेश दादा के निर्देशन में बनी एवम राजेश खन्ना अभिनित “आनंद फिल्म” देखते - देखते मै बहुत ज्यादे भाऊक हो गयी इस फिल्म के अन्त तक मेरी आँखो मे आँसू भी थे और दिल मे एक अजीब सी टीस भी :
“एक कैंसर रोगी, आनंद अपनी जिंदगी संपूर्णता से व्यतीत करता है, यह जानते हुए भी कि उसकी मौत उसके सामने खडी है फिर भी वह पूरी निडरता के साथ हर किसी का जीवन खुशियों से भर देने की चाहत रखता है वह भी एक - एक पल मे जिन्दगी को हजार - हजार बार जीते हुए ! एक ऐसा कैंसर रोगी जो जिन्दगी के प्रति अपनी साकारात्मक सोच के चलते अपने ही चिकित्सक  डा० भास्कर को अपने जीवन पर किताब लिखने के लिए प्रेरित कर देता है।” आखिर ऐसी फिल्मे जो समाज को मजबूर कर देती है बहुत कुछ सोचने पर वह क्यो पीछे छोड दी जाती है ऑस्कर सम्मान की दौड मे " ??
युगान्तर फिल्म “मदर इण्डिया - 1958” से लगायत वर्तमान परिवेश पर आधारित हिन्दी फिल्म -“ न्यूटन - 2018 ” तक क्यो एक भी भारतीय सिनेमा ने ऑस्कर अवार्ड मे वह स्थान नही बनाया जिसकी सख्त जरूरत आज बालिवुड सिनेमा को है !
जबकि 20वीं सदी की शुरुआत से ही हमारे भारतीय हिन्दी सिनेमा ने विश्व के चलचित्र जगत पर अपना एक अलग और गहरा प्रभाव छोड़ा है। आज की तारीख मे  भारतीय फिल्मों का जबर्दस्त अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया में होता है। साथ ही भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक माध्यम (परिवर्तन) के रूप में भारतीय सिनेमा ने देश मे विदेश मे अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल कर लिया है ! इस लोकप्रियता का अन्दाजा आप सब इस तथ्य से लगा सकते है कि : यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनती हैं। आज भारतीय सिनेमा पर्दों की कुल कमाई 2,706,000,000  है ! कुल$1.5 बिलियन 150 करोड़ अमरीकी डॉलर !
20वीं सदी से अब तक हमारा भारतीय सिनेमा संयुक्त राज्य अमरीका के हॉलीवुड सिनेमा एवम फिल्म उद्योग के साथ - साथ एक वैश्विक उद्योग बन गया है। वर्ततमान समय में वैश्विक स्तर पर गौर करे तो : अब भारत के बाद नाइजीरिया सिनेमा, हॉलीवुड और चीन के सिनेमा का स्थान आता है ! आज भारतीय फ़िल्म की आय $3 अरब (₹ 150 अरब) तक पहुँच चुकी है। बदलती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय सिनेमा का चेहरा बदला है। अब तो देश मे दशको से सुपर हीरो तथा विज्ञान कल्प जैसी फ़िल्में भी बनाई जाने लगी हैं, यह वो फिल्मे है जिन्होने विश्व रिकार्ड स्थापित किया है हम सब जानते है एंथीलड रन, रा.वन, ईगा और कृष - 3 वैश्विक स्तर पर ब्लॉकबस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है, अपनी सफलता के बडे झण्डे गाडी है ! पर मेरा सवाल यथावत बना हुआ है आखिर क्यो नही ऑस्कर सम्मान के लायक समझा गया इन उम्दा फिल्मो को ???
आज भारतीय सिनेमा ने विश्व भर के 90 से भी ज़्यादे  देशों में अपना बाजार बनाया है जहाँ हर वर्ष सैकडो फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। पर मेरा प्रश्न अभी भी वही है जब  सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन,अडूर गोपाल कृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे पूर्व के निर्देशकों ने समानांतर वैश्विक सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा भी जीती है साथ ही दो दशक पूर्व के भारतीय फिल्म निर्देक शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने जब विदेशों में असीम सफलता  पाई है। जब 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी जब फिल्म उत्पादन और वितरण में आशातीत सफलता पाई है तो फिर हिन्दी सिनेमा ऑस्कर सम्मान से आज तक मरहूम क्यो है ???
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बाद, 1944 से 1960 की काल अवधि मेरी नजर मे भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाना चाहिए क्योकि इस दौर की फिल्मे देखकर आप महसूस करेगे कि : भारतीय सिनेमा इतिहास की सर्वाधिक व प्रशंसित फिल्में इस समय ही निर्मित हुई थी। इस अवधि की गहराई मे मैने स्वयम जब जाकर जब झाँका तो मुझे स्पष्ट रूप से नजर आया कि : कुछ बडे निर्देशको के नेतृत्व में एक नया समानांतर सिनेमा आंदोलन भारत मे इसी दौर मे उभरा बानगी के तौर पर  चेतन आनंद' की नीचा नगर -1946, ऋत्विक घटक' की नागरिक  -1952 और बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन -1953, ने नव यथार्तवाद और "नयी भारतीय लहर " की नींव रखती पथेर पांचाली -1955, जो की सत्यजित राय की अपु त्रयी  - 1955 –1959 का पहला भाग था, ने सत्यजित रॉय के साथ भारतीय सिनेमा में क्रान्तिकारी परिवर्तनशील फिल्मो के प्रवेश की घोषणा कर दी थी।अपु त्रयी ने विश्व भर के प्रधान फिल्म समारोहों में प्रमुख पुरुस्कार जीते और भारतीय सिनेमा में 'समानांतर सिनेमा' आंदोलन की सुदृढ़ता से स्थापना की ! उस दौर के विश्व सिनेमा पर इसका प्रभाव उन युवाकमिंग ऑफ ऎज नाटक फिल्मों के रूप में देखा जा सकता है जो 1950 से अपु त्रयी की कर्ज़दार हैं।
20वी सदी के आरम्भ मे ही हमारा भारतीय हिन्दी सिनेमा व्यावसायिक लिहाज से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित हो रहा था इस दौर की प्रशंसित फिल्मों में गुरु दत्त की प्यासा - 1957, कागज़ के फूल - 1959, राज कपूर साहब की आवारा - 1951, श्री 420 - 1955 फिल्मे उस दौर के सामाजिक विषय जो की उस वक़्त के हिसाब से बहुत दूरूह था क्योकि यह फिल्मे एक विशेष वर्ग को दर्शाती थी ! इसी दौर मे बन कर तैयार हुई थी वह कालजयी फिल्म अर्चिता जिसे भारतीय हिन्दी सिनेमा की तरफ से प्रथम बार ऑस्कर अवार्ड के लिए नॉमिनेट होने गौरव हासिल है, महबूब खान की मदर इंडिया 1957 बनी वह फिल्म है जिसे वर्ष 1958 मे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया ! ऑस्‍कर के लिए पहली भारतीय फिल्‍म 'मदर इंडीया' को 1958 में नॉमिनेट किया गया था। हालांकि यह फिल्‍म अवॉर्ड तो नहीं जीत पाई लेकिन इसने काफी तारीफें बटोरीं। ऑस्कर मे इसे बेस्‍ट फॉरेन लैंग्‍वेज फिल्‍म के लिए सम्मानित किया गया था ! अब जबकी 2019 के 91वें ऑस्कर के लिए फिल्मो के लिए नामांकन की घोषणा लगभग हो रही है और कयास लगाए जा रहे है ऑस्कर फिल्म सम्मान समारोह का आयोजन 24 फरवरी, 2019 को होगा ऐसे मे क्या आप सबको नही लगता कि फिल्म भारत मे इस वर्ष भी हमारे पास कई ऐसी फिल्मे है जो ऑस्कर्स की प्रबल दावेदार है पर होना वही है जो हर वर्ष होता आ रहा है पिछले 60 वर्षो से !
आप पाठकों को बताती चलूँ कि ऑस्कर्स में विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी में शीर्ष पांच तक अब तक हमारे देश भारत की सिर्फ तीन ही फिल्में पहुंच पाई हैं ! इनमें 'मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे, और 'लगान - वंस अपॉन ए टाइम इन इंडिया' शामिल है ! कल देर रात तक जगकर और आज सुबह 9.30 तक मैने उपरोक्त तीनो फिल्मो को देखा, पूरी गम्भीरता से देखा और प्रयास करती रही कि : मुझे कोई एक गलती मिल जाए जिसकी वजह से मै मानू की यह तीनो फिल्मे ऑस्कर्स ज्यूरी की आँखो पर लगे खोजी तार्किक विवेकी चश्मे से छूटनी चाहिए थी, अथवा ऑस्कर सम्मान से बाहर होनी चाहिए थी ! यकीन मानिए मुझे एक भी ऐसी वजह नही मिली क्योकि यह अपने आप मे  वह उम्दा फिल्मे है जिनपर कालजयी होने की मुहर लगी है !
कितना दुखद है कि : आज  हिन्दी सिनेमा के पास “पैडमैन जैसी, “102 Not Out” जैसी, ज्वलन्त समसामयिक, सामाजिक मुद्दो पर बनी दमदार फिल्मे है फिर भी बालिवुड सिनेमा ऑस्कर्स की नजर मे और ऑस्कर की दौड मे असफल साबित होने को विवस है !
मुझे तो अब साफ तौर पर लगता है कि: दोष शायद ऑस्कर चयन समिति की दूरदर्शिता का ही है जो आनंद जैसी सर्वकालीन फ़िल्म के महत्व को नही समझ सके। मेरे हिसाब से हिंदी फिल्मों को सम्मानित किये बिना शायद ऑस्कर अधूरा है।" ऑस्कर ज्यूरी के चयन के मापदंडों में सुधार की आवश्यकता सर्वथा प्रतीत होती रही है ! सदैव लगता रहा है कि : ऑस्कर चयन प्रक्रिया में दूरदर्शिता नही है। यह कहना बिल्कुल गलत न होगा कि : कमजोरी हमारी बॉलीवुड फिल्मो में नही है बल्कि कमजोरी ऑस्कर की ज्यूरी मे है ! ज्यूरी की ही कमजोरी का परिणाम है की विश्व सिनेमा विरादरी मे भी हमेशा प्रश्न उठता रहा है कि : हर तरह से उच्च दावेदारी के बाद भी ऑस्कर ज्यूरी 1958 से आज तक लगातार क्यो दोयम दर्जे का व्यवहार करती आ रही है हिन्दी सिनेमा के साथ ????
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सहयोग से विभांशु जोशी
कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
स्तम्भकार/पत्रकार/लेखिका/
समीक्षक/स्वतंत्र टिप्पणीकार/
मोबाईल नम्बर : 09919353106

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