1857 की क्रांति के सूत्रधार, राष्ट्र स्वराज्य के प्रथम उद्घघोषक बाग़ी फ़क़ीर दयानंद सरस्वती !!
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1857 की क्रांति में राष्ट्र ऋषि दयानन्द सरस्वती का योगदान :
सन 1857 भारतीय इतिहास का वह पन्ना है अर्चिता जिसपर राष्ट्र की आजादी के लिए क्रान्ति के अंगड़ाई लेने का प्रथम दौर स्वर्ण अक्षरों मे अंकित किया गया है !
सन 1857 में अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद से भारत को पूर्णतया लूटा दबाया और लार्ड डलहौजी ने 20 हजार से अधिक पुरानी जमींदारियों को अपनी अपहरण नीति के तहत जब्त करके हर प्रकार से हमारा राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक, धार्मिक, व्यापारिक एवम औद्योगिक शोषण किया सारे देश में, रियासतो और रजवाड़ों मे सर्वत्र डलहौजी के अत्याचारों के विरुद्ध त्राहि - त्राहि मच गई। यह प्रथम अवसर था भारत के लिए जब यहाँ की रियासते अपने निज स्वार्थ एवम सस्ते दम्भ का मोह त्याग कर देश हित एवम आजादी के लिए सोचने को मजबूर हुई, और डलहौजी के अत्याचारों का विरोध शुरू हुआ !
राजा, नवाबों एवम आम जनता में डलहौजी के  खिलाफ विद्रोह की अग्नि जल अग्नि धधक उठी !
विद्रोह की इस धधकती अग्नि के पीछे जो संचालन कर्ता थे वह कोई और नही गोल मुख वाले सन्यासी के नाम से प्रसिद्ध बागी सन्यासी, स्वामी बिरजानन्द दण्डी के अनन्य शिष्य, सत्यार्थ प्रकाश के लेखक, आर्य समाज के संस्थापक, सनातन परम्परा के पूर्ण अनुयायी, मूर्ति पूजा के खण्डनकर्ता, भारत एवम भारतीय जनमानस को : वेदों की ओर लौटो का नारा देने वाले, स्वामी दयानंद सरस्वती जी थे !
1857 मे दयानंद सरस्वती जी की देख - रेख मे देश का
साधु वर्ग एवम रियासतो सहित आम जन मानस देश की स्वतन्त्रता के लिए आंदोलित हुआ।
गोल मुख वाले इस बागी सन्यासी के कुशल लोकतांत्रिक नेतृत्व में राष्ट्रीय विपत्ति के समय प्रथम बार इस देश ने वह कर दिखाने की ठानी जिसके अभाव  के कारण यह देश सदियो सदियो से हजार हजार बार गुलाम हुआ था।
अगर हम गम्भीरता से चन्तन करते है तो पाते है कि : 1857 के संग्राम में दयानन्द सरस्वती के प्रेरक संयोजन
में केवल उच्चकोटि के विद्रोही सन्यासी, साधू - संतों की संख्या ही दो से ढाई हजार थी ! जिनमें साढ़े चार सौ साधु ऐसे थे जिन्होने दयानन्द के गुरू स्वामी विरजानन्द ने पूरे देश मे आजादी के लिए क्रान्ति की अलख जगाने  की अहम जिम्मेदारी सौपी थी !
उक्त संग्राम में राष्ट्रवादी संतों के निर्देशक स्वयम बागी संत दयानन्द सरस्वती ने सवा सौ धूर दूरदर्शी साधूओ को तैयार करने के लिए प्रमुख संयोजक प्रेरक वेद संस्कृत के मर्मज्ञ योगी सन्यासी चार महापुरुषो को  जिम्मेदारी दिया था ! स्वामी विरजानन्द के परम प्रिय शिष्य 33 वर्षीय गोल मुख वाले स्वामी दयानन्द सम्पूर्ण भारत में साधुओं और क्रांतिकारी योद्धा राजा नवाबों के उत्साहवर्धन हेतु पद यात्रा और संयोजन मे तत्पर थे।
1854 से 1856 ई० तक मथुरा में गुरु विरजानन्द की अनुमति से दयानन्द जी ने भारत के कोने कोने से लाखों लोगों को बुलाकर श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर स्वाधीनता संग्राम का प्रबल गुप्त प्रचार योजना तैयार किया था इस योजना मे सदैव दयानन्द सरस्वती जी के क्रान्तिकारी संयोजन की उपजाऊँ भूमि रही हरियाणा की जनता ने अधिक से अधिक भाग लिया था।
सरदार भगत सिह के पूर्वजो ने भी यहाँ जाकर दयानन्द सरस्वती से भेट किया था ! जैसा कि हम सब जानते है

देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद भगत सिंह के दादा का नाम सरदार अर्जुन सिंह था। सरदार अर्जुन सिंह जी महर्षि दयानन्द के साक्षात दर्शन किये थे और उनके श्रीमुख से वेदो के उपदेशों को भी सुना था। ऋषि दयानन्द जी के उपदेशों का उनके मन व मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा था और उन्होंने मन ही मन वैदिक विचारधारा को अपना लिया था। जालन्धर जिले के खटकड़कलां ग्राम के रहने वाले सरदार अर्जुन सन् 1890 में आपने विधिवत आर्यसमाज की सदस्यता स्वीकार की और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों का उत्साहपूर्वक प्रचार करने लगे दयानन्द की देख रेख मे इनका आर्यसमाज और वैदिक धर्म से गहरा भावानात्मक संबंध हो गया था। इसका ज्वलन्त प्रमाण यह था कि भविष्य मे सरदार अर्जुन ने अपने दो पोतों श्री जगत सिंह और श्री भगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार वैदिक विधि से कराया । यह संस्कार आर्यजगत के विख्यात विद्वान पुरोहित और शास्त्रार्थ महारथी पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति के आचार्यात्व में महर्षि दयानन्द लिखित संस्कार विधि के अनुसार सम्पन्न हुए थे।
सरदार अर्जुन सिंह जी ने सिख गुरुओं की शिक्षाओं को वेदों के अनुकूल सिद्ध करते हुए एक उर्दू की पुस्तक ‘हमारे गुरु साहबान वेदों के पैरोकार थे’ लिखी थी जो वर्मन एण्ड कम्पनी लाहौर से छपी थी। उनके वैदिक धर्म - संस्कृति एवं महर्षि दयानन्द के प्रति दीवानापन का प्रभाव उनके पूरे परिवार पर इस कदर था कि भविष्य मे इनके अपने बेटे सरदार अजित सिंह आजादी की लडाई मे कूद पडे और देश मे आजादी आने तक सक्रीय रहे सैकडो बार जेल गए, काले पानी की सजा मिली, देश को आजाद कराने के लिए विश्व का भ्रमण किया  ! यह वही सरदार अजित सिंह थे जिन्हे क्रान्ति के लिए सरदार भगत सिंह की प्रेरणा होने, क्रान्ति गुरू होने एवम चाचा होने का गौरव प्राप्त है !
जब दयानन्द सरस्वती के परम शिष्य सरदार अर्जुन सिंह जी का पूरा परिवार आर्य समाजी हो गया था ऐसे मे यह तो स्वाभाविक था कि पिता के गुण उसके पुत्रो में एवम आने वाली उनकी पीढ़ियों में संचारित एवम परिलक्षित होने ही थे विज्ञान मे वर्णित आनुवंशिकता का नियम भी तो यही कहता है !
1857 की क्रांति के लिए 3 मई का दिन स्वामी जी ने निश्चित किया था ! मथुरा मे होने वाली सभी गुप्त सभाओं में स्वामी दयानन्द की देख रेख मे राव तुलाराम और राजा नाहरसिंह भी पूर्ण सहयोग सहित सम्मिलित हुए थे।
अपने गुरु विरजानन्द के आदेश अनुसार दयानन्द सरस्वती जी ने इस क्रान्ति की रूपरेखा तय करते हुए इस बात का सदैव ध्यान रखा कि : अंग्रेज़ स्त्री - बच्चों की सुरक्षा पर कोई संकट न आए !
1857 के क्रान्ति की तैयारी मात्र एक गदर अथवा  केवल एक सैनिक क्रांति भर ही नहीं थी अर्चिता अपितु यह दो राष्ट्रों ( ब्रिटेन v/s भारत के बीच पूर्ण स्वाधीनता के लिए बडे स्तर पर संग्राम का प्रथम योजनाबद्ध तरीके से उद्घघोष था ! देश से गुलाम राज समाप्त करो पूर्ण आजादी ले आओ के ध्येय से आयोजित क्रांति युद्ध था का बिगुल था ! ऐसा क्रान्ति युद्ध जिसमे साधुओं, फकीरों ने गोल मुँह वाले सन्यासी ( दयानन्द सरस्वती ) के निर्देशन मे स्थान - स्थान पर अपने कई - कई नाम और वेश रूप बदल कर गुप्त भाषाओं, गुप्त संकेत के माध्यम से सन 1857 की क्रान्ति के समाचारो का आदान - प्रदान किया ! तीर्थ स्थानों, विशेष पर्वों, मेलों मे यह साधु गुप्त संदेश देने के साथ ही साथ राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए आम जनमानस मे कमाल का देशप्रेम जागृत करते थे । धारा प्रवाह सस्कति बोलने वाले वेदो के मर्मग्य स्वयम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जब जन सामान्य से रूबरू होते तो गुजराती एवम हरियाणवी मिश्रित सामान्य हिन्दी मे ही बात - चीत करते थे ! एक समय ऐसा भी आया जब यह सनातनी सन्यासी अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बन गया, तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता को यह लगने लगा की अगर दयानन्द को रोका न गया तो यह उनकी सत्ता को भारत से उखाड कर जल्द ही फेक देगा क्योकि यह आम जन मानस का चहेता क्रान्ति गुरू बन चुका है !
अपनी क्रान्ति योजना का भेद खुल जाने के कारण ही दयानन्द जी विशेषतया गुप्त रहने लगे थे और उनका नाम भी केवल गोल मुख वाला साधु प्रचलित कर दिया गया था। 1857 के संग्राम प्रचार में स्वामी दयानन्द के कुछ एक दो और बदले हुए नाम थे जैसे मूलशंकरा, रेवानन्द और दलालजी !
गृहत्याग काल से ही स्वामी दयानन्द सरस्वती जहाँ ज्ञान और योग के तीव्र पिपासु थे वही वह 1855 ई० में हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी पूर्णानन्द से उस दौर के व्याकरण पण्डित गुरु विरजानन्द का पता पाकर भी सीधे मथुरा नहीं गए अपितु पूर्णानन्द से प्रेरित होकर,  क्रांतियोजनाबद्ध होकर, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा पंचायत में पहुँचें और 11 अक्टूबर 1855 में पुन: स्वामी पूर्णानन्द की गुप्त साधु सभा में हरिद्वार निकल लिए। इतिहास मे मौजूद बहुत सारे तथ्य इस बात की पुष्टी करते है कि वर्ष 1855 के अंत में दयानन्द जी बिठुर में 5 दिन तक नाना साहब के साथ मिलकर क्रान्ति की योजना बनाने मे सहयोग किए, नाना साहब जो की दयानन्द जी के ही समवयस्क थे।
दयानन्द की देख रेख मे जो विशेष योजना बन रही थी उसके चलते 1855 से 1856 ई० तक भारत के अनेक तीर्थ स्थानों पर नाना साहब ने दयानन्द जी से 11 बार मुलाक़ात किया । दयानन्द जी ने साफ तौर पर नाना साहब से कहा था कि अंग्रेजों से स्वतंत्र होने पर हमारे  वेदो मे वर्णित गण व्यवस्था पर आधारित पंचायती राज चलाकर सम्पूर्ण भारत को स्वर्ग बनाएँगे। देश को पूर्ण आजादी मिलने के बाद राष्ट्र ऋषि ने हमारे राष्ट्र के लिए

         सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
      सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।

वाली व्यवस्था चाहा था !
सन 1857 की योजनाबद्ध क्रान्ति शुरू होने से पहले ही मेरठ छावनी मे छिड गया विद्रोह जब इस क्रान्ति की विफलता साबित हुआ तब मई 1857 से नवंबर 1860 तक महर्षि  दयानन्द सरस्वती जी अज्ञात रहे ! इतिहासकारो के बीच उनके जीवन के यही तीन वर्ष ‘अज्ञात वास’ कहलाते है ! अपने अज्ञात वास के इन्ही  तीन वर्षों में विशेषतया गुप्त रहकर स्वामी जी ने संग्राम की विफलता के कारणों को जानने और अँग्रेजी अत्याचारों से शोषित जनता की जानकारी लेने का सारे देश का गुप्त भ्रमण किया था जिसमें वे श्वेत अश्वारोही भी रहे थे।
इन तीन वर्षों की अज्ञात यात्रा में भारत के बड़े - बड़े राज विद्रोहियों के क्रांति कार्यों की खुफिया जांच करने वाले स्वदेशी - विदेशी सरकारी कर्मचारियों से स्वामी दयानन्द की 31बार मुठभेड़ हुई थी ! 1860 में स्वामी जी जब मथुरा में अपने गुरु स्वामी बिरजानन्द महराज से स्पष्टया मिले तो उनके मस्तिष्क पर 1857 की क्रान्ति के विफलता का प्रभाव स्पष्ट झलक रहा था उनकी इस वेदना को भाँपकर गुरू बिरजानन्द ने उन्हे वेदो की शरण मे जाकर पुन: आजादी का मार्ग तय करने का रास्ता खोजने को कहा अपने गुरू के कहे अनुसार ढाई वर्ष अनवरत स्वामी जी ने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, दर्शन, उपनिषद, निरुक्त आदि ग्रंथ पढे।
“जब गुरु विरजानन्द 1857 के क्रांति की विफलता के पश्चात तीन वर्षों तक की दयानन्द द्वारा देश भ्रमण की इतिवृत्ता दयानन्द जी से सुन चुके तब उन्होने कहा वेदो की शरण मे जाने के बाद ही इस राष्ट्र का उत्थान सम्भव है ! यहाँ एक बात तो बिल्कुल साफ हो गयी कि “स्वामी दयानन्द सरस्वती जी केवल एक सन्याशी ही नही थे बल्कि वह दूरदर्शी राजनैतिक द्रष्टा भी थे।
1857 संग्राम की विफलता का मुख्य कारण स्वामी जी ने उस वक्त भारतीयों की आपसी फूट, उत्तम अस्त्र का अभाव, चरम अनुशासनहीनता, तथा युद्ध के केन्द्र मे रखा गया अकुशल नेतृत्व चेहरा को माना साथ ही उनकी नजर मे निश्चित तिथि से पहले ही मेरठ में युद्ध छिड़ जाना भी एक बडी वजह थी ! इस विफलता से दयानन्द जी इतने दुखी हुए की वह देश के युवाशक्ति को केन्द्रित करने के लिए “सारे भारत में घूम कर की तलास किए उन्होने लिखा है कि पूरे राष्ट्र का चक्कर लगाने के बाद मुझे धनुर्वेद के केवल ढाई पन्ने ही मिल पाए है ! “ यदि मैं अपने उद्देश्य मे सफल रहा तो एक दिन सम्पूर्ण धनुर्वेद प्रकाशित कर के रहूँगा।” स्वामी जी ने यही बात एक नही कई कई बार अपनी सभाओ मे भी कही थी ! आखिरी बार नवंबर 1878 ई० में अजमेर में भी इसका जिक्र किया था !
सन 1857 की क्रांति को कुचलने के बाद महारानी विक्टोरिया ने कहा था कि : भारतीय प्रजा के साथ ब्रितानी सरकार माता - पिता के समान कृपा, न्याय एवम  दया का व्यवहार करेगी।
विक्टोरिया को जवाब देते हुए महर्षि जी ने सत्यार्थ-प्रकाश में लिखा है कि कोई कितना ही दया क्यो न करे हमपर परंतु स्वदेशी राज्य ही सर्वोपरि एवम उत्तम होता है राष्ट्र के लिए ! प्रजा पर माता - पिता के समान कृपा, न्याय और दया के मात्र से कभी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकता।”
एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप मे दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश मे लिखा है “ 1857 के संग्राम में अँग्रेजी तोपों द्वारा जब महलों के तोड़ने, बाघेरों द्वारा लड़ने की घटना मुझे असहज करती है मन्दिरो मे खडी उन मूर्तियो के प्रति जिन्होने कोई शक्ति प्रदर्शन नही किया अपने राष्ट्र के स्वाभिमान को बचाने मे ! इसी के चलते सत्यार्थ प्रकाश के 11वें समुल्लास में उन्होने लिख दिया कि “जब सन 1857 ई० के वर्षों में तोपों के की आग मे झुलसे - लपटो के मारे मन्दिर, मन्दिर की मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थी तब इन मूर्तियो की शक्ति कहाँ गई थी।
प्रत्युत बाघेर लोगों ने अदम्य वीरता से लड़कर शत्रुओं को मारा परंतु उनकी मूर्तियो ने एक भी मक्खी की टांग न तोड़ सकी।
अगर आज हमारा समाज आडम्बर मुक्त होता और
श्रीकृष्ण के समान कोई कर्म पुरूषहोता तो यह तय था कि ब्रिटिश हुकूमत के धुर्रे उड़ा देता और यह ब्रिटिश अत्याचारी भागते फिर रहे होते ”

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता