वन्दे मातरम् :

वन्दे मातरम् :
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             जब देश के राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् को लेकर देश के भीतर बेजा भ्रान्ति एवम चरमता की सीमा तक आपसी विद्वेष फैलाया जा रहा है तो ऐसे मे मेरे जैसे प्रत्येक कलमकार की कलम का यह नैतिक दायित्व बन जाता है कि वह देश की अस्थिर होती व्यवस्था एवम देश के नागरिको को वास्तविक सत्य से रूबरू कराते हुए वाजिब साक्ष्य प्रस्तुत करे ! आइए आज आप सभी को लिए चलती हूँ मै भारत के  राष्ट्रगीत “ वन्दे मातरम्” के वास्तविक स्वरूप एवम  वास्तविक सत्य के निकट ! देश के भीतर व्याप्त वर्तमान उथल - पुथल को देखते हुए एक लेखक के लिए राष्ट्रगीत का सत्य उजागर करने का आज मौका भी है, और दस्तूर भी अर्ची क्योकि : अपने देश के संविधान में उल्लिखित, वर्णित, एवं संविधान सभा 24 जनवरी 1950 की बैठक मे सर्वसम्मति से अंगीकार किए गए हमारे देश के राष्ट्रगीत बंदे मातरम् के इतिहास एवम वर्तमान के विषय में इस देश के प्रत्येक नागरिक के साथ एक संवाद किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है, आज की तारिख मे जरूरी है कि : अपने एक अरब पच्चीस करोड़ देशवासियों से साझा किया जाए राष्ट्रगीत वन्दे मातरम के गौरवपूर्ण अतीत को और वर्तमान एवम भविष्य को, जो की इस प्रकार है :
7 नवम्वर 1876 बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ की रचना की।
1882 वंदे मातरम बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंद मठ’ में सम्मिलित।
1896 रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।
मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में।
वंदे मातरम् का अंग्रेजी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया ।
दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया, बंग भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय नारा बना।
1906 में ‘वंदे मातरम’ देव नागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया, कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने इसका संशोधित रूप प्रस्तुत किया।
1923 कांग्रेस के अधिवेशन में वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे।
पं॰ नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम अजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति ने 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस राष्ट्रगीत के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पैरे ही प्रासंगिक है, इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया।
14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन..’ के साथ..।
1950 में ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान बना।
15 अगस्त 1947 को बंदे मातरम को लाल किले के प्राचीर से प्रथम बार गाया गया !
इसकी अगली सुबह 16 अगस्त 1947 को पंडित ओंकार नाथ ठाकुर की आवाज में आकाशवाणी से इसे प्रसारित किया गया !
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में 'वन्दे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वह वक्तव्य इस प्रकार है :
“शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा !  (भारतीय संविधान परिषद,द्वादश खण्ड 24-01-1950 )

मेरे प्यारे देशवासियों आप सभी से आग्रह है निज स्वार्थ से, निज जाति - धर्म से, उपर रखे अपने देश की एकता, अखण्डता, स्वतंत्रता एवं इस देश के संविधान को ! इस देश के संविधान से बडा कुछ और नही होना चाहिए आप सब के लिए !
जय हिन्द ! वन्दे मातरम.....!!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
03/01/2019

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माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

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