मकर संक्रांति एक अहसास बचपन का !
सूर्य आज से उत्तरायण हो गए और अब सर्दियों की विदाई की घड़ी करीब आ गई !
सालों पहले संक्रांति के आने की तैयारियां हमारे पैतृक कुटीर' में ज़ोरों से हुआ करतीं थी ! सूर्यदेव जिस दिन कृपा करते तिल चुन धो कर सुखाये जाते खास कर काले तिल जिनको रगड़-रगड़ कर धोया जाता, तिल सूखते और कढ़ाईयां चढ़ जातीं पूरे घर में उबलते गुड़ की गर्म खुशबू फैलने लगती ! काले तिल के लड्डू, सफेद तिल के लड्डू, मूढ़ी,चूड़े और मूँगफली की लाई संक्रांति तक तैयार हो जाती, कैसरोल का ज़माना आया नहीं था सो दही जमाना भी मशक्कत भरा था, धीमी आँच पर खूब गाढ़े किये दूध को जमाने के लिए रसोई का गर्म कोना चुना जाता ताकि सुबह थक्केदार दही तैयार मिले ! खुशबूदार कतरनी, बासमती, चावलों की तैयारी पहले ही हो जाती थी !
संक्रान्ति की सुबह-सुबह सूर्य देव के आने के पूर्व ही माँ, बडी माँ,और दादी हम सबों को जगाने में जुट जातीं, उठते ही नहाने की तैयारियां होतीं और जल्दी जल्दी नहा धो कर सब तैयार हो जाते फिर होती सूर्य पूजा और भगवान के नाम के साथ दान का अन्न-द्रव्य निकाला जाता ! इस बीच मे माँ और दादी हमारी पेट पूजा की तैयारियां भी करतीं जातीं, आलू गोभी मटर की रसेदार सब्जी, सेम बैंगन की सूखी सब्जी, कुम्हड़े की खट्टी- मीठी सब्जी, हरी चटनी, टमाटर की मीठी चटनी बनती साथ ही होता मौसमी सब्जियों का अंचार, गर्मागर्म घी के घेवर अहा, और बनती इन सबके साथ खाने में नए चावल और उड़द दाल की लजीज खिचड़ी,
इन सारे रस्मों- रिवाज़ों में एक था बडी माँ और दादी माँ का बच्चों को तिल चौरी देना ! नहा कर आते ही हाथों में तिल चौरी ( तिल और गुड़ का मिश्रण) रखतीं और पूछतीं 'ये तिल जो मैं दे रही हूँ क्या तुम इनका भार वहन करोगे ? यह तिल परिवार एवम माता- पिता के प्रतीक होते थे और हम बच्चे जवाब में हाँ बोलते थे !
समय के साथ परिवर्तन और आधुनिकता ने हमे अपनी गिरफ्त मे लेना इस कदर आरम्भ कर दिया कि : अपनो का वह अपना पन, अपनो का वह अविरल निश्चल प्यार, वह तिल - चौरी, तिल के लड्डू मिलने का सिलसिला लगभग बन्द ही हो गया ! शायद जीवन की तेज हो गयी आपाधापी और परिवेश के हम पूरी तरह गुलाम बन गए है आज जहाँ न तीज त्योहारो मे अपनापन जिन्दा रह गया है, न ही दिल मे निश्चलता और पवित्रता बची है, ना ही बचा है एक साथ एक घर मे दादा - दादी, माँ - बाप, ताया - ताई, चाचा - चाची, नाती - पोतो वाला वह पूराना विश्वास भरा परिवार, ऐसा लगता है सब अपने - अपने स्वार्थ के लिए कही दूर दूर बिखर गए है !!
लेकिन मेरी मुठ्ठियों में आज भी, अब भी, अपने बचपन के उन तिलों का अहसास बाकी है, मुझमे आज भी मेरा अपना वह बचपन वाला भरा-पूरा घर कही गहरे तक जिन्दा है, तभी तो नौकरी के चलते घर से दूर होने पर भी हर वर्ष मकर संक्रांति की सुबह मै अपने आप से ही कुछ बुदबुदादी हूँ और मन ही मन दुहाराती हूँ अर्ची बचपन वाले वह एक एक वादे यथा :
“मैं करूँगी वहन, हाँ मैं करूँगी वहन,अपनो से मिले बचपन वाले उन तिलों में भरे ढेर सारे विश्वास का”!!
आप सभी को मकर संक्रांति की ढेरों शुभकामनायें!!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
15/01/2019
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