archi ki story
1857 की क्रांति के लिए 3 मई का दिन स्वामी जी ने निश्चित किया था ! मथुरा मे होने वाली सभी गुप्त सभाओं में स्वामी दयानन्द की देख रेख मे राव तुलाराम और राजा नाहरसिंह भी पूर्ण सहयोग सहित सम्मिलित हुए थे।
अपने गुरु विरजानन्द के आदेश अनुसार दयानन्द सरस्वती जी ने इस क्रान्ति की रूपरेखा तय करते हुए इस बात का सदैव ध्यान रखा कि : अंग्रेज़ स्त्री - बच्चों की सुरक्षा पर कोई संकट न आए !
1857 के क्रान्ति की तैयारी मात्र एक गदर अथवा केवल एक सैनिक क्रांति भर ही नहीं थी अर्चिता अपितु यह दो राष्ट्रों ( ब्रिटेन v/s भारत के बीच पूर्ण स्वाधीनता के लिए बडे स्तर पर संग्राम का प्रथम योजनाबद्ध तरीके से उद्घघोष था ! देश से गुलाम राज समाप्त करो पूर्ण आजादी ले आओ के ध्येय से आयोजित क्रांति युद्ध था का बिगुल था ! ऐसा क्रान्ति युद्ध जिसमे साधुओं, फकीरों ने गोल मुँह वाले सन्यासी ( दयानन्द सरस्वती ) के निर्देशन मे स्थान - स्थान पर अपने कई - कई नाम और वेश रूप बदल कर गुप्त भाषाओं, गुप्त संकेत के माध्यम से सन 1857 की क्रान्ति के समाचारो का आदान - प्रदान किया ! तीर्थ स्थानों, विशेष पर्वों, मेलों मे यह साधु गुप्त संदेश देने के साथ ही साथ राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए आम जनमानस मे कमाल का देशप्रेम जागृत करते थे । धारा प्रवाह सस्कति बोलने वाले वेदो के मर्मग्य स्वयम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जब जन सामान्य से रूबरू होते तो गुजराती एवम हरियाणवी मिश्रित सामान्य हिन्दी मे ही बात - चीत करते थे ! एक समय ऐसा भी आया जब यह सनातनी सन्यासी अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बन गया, तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता को यह लगने लगा की अगर दयानन्द को रोका न गया तो यह उनकी सत्ता को भारत से उखाड कर जल्द ही फेक देगा क्योकि यह आम जन मानस का चहेता क्रान्ति गुरू बन चुका है !
अपनी क्रान्ति योजना का भेद खुल जाने के कारण ही दयानन्द जी विशेषतया गुप्त रहने लगे थे और उनका नाम भी केवल गोल मुख वाला साधु प्रचलित कर दिया गया था। 1857 के संग्राम प्रचार में स्वामी दयानन्द के कुछ एक दो और बदले हुए नाम थे जैसे मूलशंकरा, रेवानन्द और दलालजी !
गृहत्याग काल से ही स्वामी दयानन्द सरस्वती जहाँ ज्ञान और योग के तीव्र पिपासु थे वही वह 1855 ई० में हरिद्वार कुम्भ मेले में स्वामी पूर्णानन्द से उस दौर के व्याकरण पण्डित गुरु विरजानन्द का पता पाकर भी सीधे मथुरा नहीं गए अपितु पूर्णानन्द से प्रेरित होकर, क्रांतियोजनाबद्ध होकर, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा पंचायत में पहुँचें और 11 अक्टूबर 1855 में पुन: स्वामी पूर्णानन्द की गुप्त साधु सभा में हरिद्वार निकल लिए। इतिहास मे मौजूद बहुत सारे तथ्य इस बात की पुष्टी करते है कि वर्ष 1855 के अंत में दयानन्द जी बिठुर में 5 दिन तक नाना साहब के साथ मिलकर क्रान्ति की योजना बनाने मे सहयोग किए, नाना साहब जो की दयानन्द जी के ही समवयस्क थे।
दयानन्द की देख रेख मे जो विशेष योजना बन रही थी उसके चलते 1855 से 1856 ई० तक भारत के अनेक तीर्थ स्थानों पर नाना साहब ने दयानन्द जी से 11 बार मुलाक़ात किया । दयानन्द जी ने साफ तौर पर नाना साहब से कहा था कि अंग्रेजों से स्वतंत्र होने पर हमारे वेदो मे वर्णित गण व्यवस्था पर आधारित पंचायती राज चलाकर सम्पूर्ण भारत को स्वर्ग बनाएँगे। देश को पूर्ण आजादी मिलने के बाद राष्ट्र ऋषि ने हमारे राष्ट्र के लिए
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।
वाली व्यवस्था चाहा था !
सन 1857 की योजनाबद्ध क्रान्ति शुरू होने से पहले ही मेरठ छावनी मे छिड गया विद्रोह जब इस क्रान्ति की विफलता साबित हुआ तब मई 1857 से नवंबर 1860 तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अज्ञात रहे ! इतिहासकारो के बीच उनके जीवन के यही तीन वर्ष ‘अज्ञात वास’ कहलाते है ! अपने अज्ञात वास के इन्ही तीन वर्षों में विशेषतया गुप्त रहकर स्वामी जी ने संग्राम की विफलता के कारणों को जानने और अँग्रेजी अत्याचारों से शोषित जनता की जानकारी लेने का सारे देश का गुप्त भ्रमण किया था जिसमें वे श्वेत अश्वारोही भी रहे थे।
इन तीन वर्षों की अज्ञात यात्रा में भारत के बड़े - बड़े राज विद्रोहियों के क्रांति कार्यों की खुफिया जांच करने वाले स्वदेशी - विदेशी सरकारी कर्मचारियों से स्वामी दयानन्द की 31बार मुठभेड़ हुई थी ! 1860 में स्वामी जी जब मथुरा में अपने गुरु स्वामी बिरजानन्द महराज से स्पष्टया मिले तो उनके मस्तिष्क पर 1857 की क्रान्ति के विफलता का प्रभाव स्पष्ट झलक रहा था उनकी इस वेदना को भाँपकर गुरू बिरजानन्द ने उन्हे वेदो की शरण मे जाकर पुन: आजादी का मार्ग तय करने का रास्ता खोजने को कहा अपने गुरू के कहे अनुसार ढाई वर्ष अनवरत स्वामी जी ने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, दर्शन, उपनिषद, निरुक्त आदि ग्रंथ पढे।
“जब गुरु विरजानन्द 1857 के क्रांति की विफलता के पश्चात तीन वर्षों तक की दयानन्द द्वारा देश भ्रमण की इतिवृत्ता दयानन्द जी से सुन चुके तब उन्होने कहा वेदो की शरण मे जाने के बाद ही इस राष्ट्र का उत्थान सम्भव है ! यहाँ एक बात तो बिल्कुल साफ हो गयी कि “स्वामी दयानन्द सरस्वती जी केवल एक सन्याशी ही नही थे बल्कि वह दूरदर्शी राजनैतिक द्रष्टा भी थे।
1857 संग्राम की विफलता का मुख्य कारण स्वामी जी ने उस वक्त भारतीयों की आपसी फूट, उत्तम अस्त्र का अभाव, चरम अनुशासनहीनता, तथा युद्ध के केन्द्र मे रखा गया अकुशल नेतृत्व चेहरा को माना साथ ही उनकी नजर मे निश्चित तिथि से पहले ही मेरठ में युद्ध छिड़ जाना भी एक बडी वजह थी ! इस विफलता से दयानन्द जी इतने दुखी हुए की वह देश के युवाशक्ति को केन्द्रित करने के लिए “सारे भारत में घूम कर की तलास किए उन्होने लिखा है कि पूरे राष्ट्र का चक्कर लगाने के बाद मुझे धनुर्वेद के केवल ढाई पन्ने ही मिल पाए है ! “ यदि मैं अपने उद्देश्य मे सफल रहा तो एक दिन सम्पूर्ण धनुर्वेद प्रकाशित कर के रहूँगा।” स्वामी जी ने यही बात एक नही कई कई बार अपनी सभाओ मे भी कही थी ! आखिरी बार नवंबर 1878 ई० में अजमेर में भी इसका जिक्र किया था !
सन 1857 की क्रांति को कुचलने के बाद महारानी विक्टोरिया ने कहा था कि : भारतीय प्रजा के साथ ब्रितानी सरकार माता - पिता के समान कृपा, न्याय एवम दया का व्यवहार करेगी।
विक्टोरिया को जवाब देते हुए महर्षि जी ने सत्यार्थ-प्रकाश में लिखा है कि कोई कितना ही दया क्यो न करे हमपर परंतु स्वदेशी राज्य ही सर्वोपरि एवम उत्तम होता है राष्ट्र के लिए ! प्रजा पर माता - पिता के समान कृपा, न्याय और दया के मात्र से कभी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकता।”
एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप मे दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश मे लिखा है “ 1857 के संग्राम में अँग्रेजी तोपों द्वारा जब महलों के तोड़ने, बाघेरों द्वारा लड़ने की घटना मुझे असहज करती है मन्दिरो मे खडी उन मूर्तियो के प्रति जिन्होने कोई शक्ति प्रदर्शन नही किया अपने राष्ट्र के स्वाभिमान को बचाने मे ! इसी के चलते सत्यार्थ प्रकाश के 11वें समुल्लास में उन्होने लिख दिया कि “जब सन 1857 ई० के वर्षों में तोपों के की आग मे झुलसे - लपटो के मारे मन्दिर, मन्दिर की मूर्तियाँ अंग्रेजों ने उड़ा दी थी तब इन मूर्तियो की शक्ति कहाँ गई थी।
प्रत्युत बाघेर लोगों ने अदम्य वीरता से लड़कर शत्रुओं को मारा परंतु उनकी मूर्तियो ने एक भी मक्खी की टांग न तोड़ सकी।
अगर आज हमारा समाज आडम्बर मुक्त होता और
श्रीकृष्ण के समान कोई कर्म पुरूषहोता तो यह तय था कि ब्रिटिश हुकूमत के धुर्रे उड़ा देता और यह ब्रिटिश अत्याचारी भागते फिर रहे होते ”
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