अपने देश के वर्तमान Teenage Youth “किशोर वय युवाओं” को समर्पित मेरा लेख “ Article ” ================================== विद्या ददाति विनयम् विनयाद याति पात्रताम | पात्रत्वाद धनमाप्नोती धनाद धर्मस्तत: सुखं || अर्थात विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म,एवं धर्म के पालन से सुख की प्राप्ति होती है | यह सुख किशोर वय युवाओं के उज्जवल भविष्य एवम् राष्ट्र उन्नति का प्रतीक है ! उपरोक्त संस्कृत सूक्ति शायद आज के हमारे किशोर वय युवाओं को सही सही समझ न आए पर हिन्दी मे अनुवाद करने पर इसका जो अर्थ निकलता है वह किशोर वय युवाओं के जीवन के विकास एवम सफलता के लिए प्रत्येक Angle “कोण” से उत्तम एवं अनुकरणीय है ! पर वर्तमान समय मे मै प्रायः यह देखती हूँ कि “विद्या” Education प्राप्ति के पश्चात् विवेक के अभाव में विनय का प्रादुर्भाव होने के स्थान पर युवाओं के भीतर अहंकार, की उत्पत्ति होती है | तद्पश्चात अहंकार अविनयसिक्त विद्या से येन - केन प्रकारेण योग्यता एवं धन भी प्राप्त तो हो जाती है पर युवाओं मे तर्क एवम विवेचना शक्ति नहीं विकसित हो पाती है जिसके रिजल्ट के रूप मे क्षणिक सुख “satisfaction” तो प्राप्त हो जाता हैं परन्तु यह satisfaction भविष्य मे स्थायी आत्मिक सुख मे बदलेगा इसकी गारंटी “guarantee” तय नही होती उद्दाहरण स्वरूप हमारा युवा नव चेतना से सदैव वंचित रह जाता है और परिणाम मे विवेक हीन विद्या का परिणाम क्षोभ जनक सुख मे बदल जातात हैं | अब किशोर वय युवाओं के भीतर एक प्रश्न खडा होना लाजमी है ....अर्चिता ...आखिर यह विनयशील विवेक क्या है जो विद्या अर्जन के पश्चात भी अधिकांश जनों मे विकसित नहीं हो पाता है ? वास्तव में वर्तमान समय में जिसे ज्ञान, विद्या कह कर degree के नाम पर सरकारी गैर सरकारी शिक्षण संस्थानों “Institutes” द्वारा बेचा जा रहा है वह केवल सूचना है, वह केवल एक cirtificate है भविष्य मे रोटी कमाने के लायक बनाने का cirtificate पर भविष्य मे अपनी रोटी इस cirtificate से हमारा युवा कमा सकेगा इसकी भी पूरी guarantee नही होती ! मस्तिष्क में सूचनाएं भर लेने से हमारी आज की किशोर वय युवा पीढ़ी, किशोर वय से उपर वाली युवा पीढ़ी मात्र एक सूचना संग्रहालय तो बन गयी है पर मनुष्य नहीं बन रही है राष्ट्र के सामने यह एक जटिल परिस्थिति खडी हुई है ! अगर हम दुनिया का इतिहास खँगाले तो पाएंगे कि : इस धरती पर आज तक की समस्त मानव जनित विभत्स दुर्घटनाएं जिन्हें मानव निर्मित दुर्घटना Man - made Calamities कहा जाता है उनके केन्द्र मे जो नेतृत्व कर्ता चेहरे रहे , जो planner “ योजनाकर्ता ” रहे वह सूचना के भंडार वह सूचना के जनक थे परन्तु इतिहास मे घटा विध्वंस उन्हे विवेक हीन मनुष्य ही करार देता है | अब एक प्रश्न यह भी है कि आखिर यह विवेक यह संस्कार आता कहाँ से आता है ? हम सब जानते है विद्या अर्थात सूचनाएं तो हमे पुस्तकों के संपर्क से प्राप्त हो जाती है परन्तु विवेक एवम संस्कार भी पुस्तको से ही आ जाए यह तय नही है ना ही कोई पुस्तक इसे जबर्दस्ती आरोपित ही कर सकती है क्योंकि विवेक तो अच्छे संस्कारों से उत्पन्न होता है एवं अच्छे संस्कार पूर्ण रूप से पारिवारिक परवरिश आस-पास के परिवेश एवम समाज के साथ-साथ Genetic अनुवांशिकी होते है ! तथा जीव विज्ञान का मानक कहता है विशेष रूप से बच्चे के जन्म से लेकर 5 वर्ष की बाल्यावस्था तक माता के संस्कारयुक्त संस्कार तत्पश्चात बचपन से किशोर वय तक परिवार, परिवेश, आस - पडोस, समाज, मेे घटने वाले प्रत्येक events के प्रभाव ही तय करते है युवा पीढ़ी के विवेकशील, विनयवत, चिन्तलशील, सफल भविष्य का खाँका ! ================================== कलम से : भारद्वाज अर्चिता

अपने देश के वर्तमान Teenage Youth “किशोर वय युवाओं” को समर्पित मेरा लेख “ Article ”
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       विद्या ददाति विनयम् विनयाद याति पात्रताम |
       पात्रत्वाद धनमाप्नोती  धनाद धर्मस्तत: सुखं ||

अर्थात विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म,एवं धर्म के पालन से सुख की प्राप्ति होती है |
यह सुख किशोर वय युवाओं के उज्जवल भविष्य एवम्  राष्ट्र उन्नति का प्रतीक है ! उपरोक्त संस्कृत सूक्ति शायद आज के हमारे किशोर वय युवाओं को सही सही समझ न आए पर हिन्दी मे अनुवाद करने पर इसका जो अर्थ निकलता है वह किशोर वय युवाओं के जीवन के विकास एवम सफलता के लिए प्रत्येक Angle “कोण” से उत्तम एवं अनुकरणीय है ! पर वर्तमान समय मे मै प्रायः यह देखती हूँ कि “विद्या” Education प्राप्ति के पश्चात् विवेक के अभाव में विनय का प्रादुर्भाव होने के स्थान पर युवाओं के भीतर अहंकार, की उत्पत्ति होती है | तद्पश्चात अहंकार अविनयसिक्त विद्या से येन - केन प्रकारेण योग्यता एवं धन भी प्राप्त तो हो जाती है पर युवाओं मे
तर्क एवम विवेचना शक्ति नहीं विकसित हो पाती है जिसके रिजल्ट के रूप मे क्षणिक सुख “satisfaction” तो प्राप्त हो जाता हैं परन्तु यह satisfaction भविष्य मे स्थायी आत्मिक सुख मे बदलेगा इसकी गारंटी “guarantee” तय नही होती उद्दाहरण स्वरूप हमारा युवा नव चेतना से सदैव वंचित रह जाता है और परिणाम मे विवेक हीन विद्या का परिणाम क्षोभ जनक सुख मे बदल जातात हैं |
अब किशोर वय युवाओं के भीतर एक प्रश्न खडा होना लाजमी है ....अर्चिता ...आखिर यह विनयशील विवेक क्या है जो विद्या अर्जन के पश्चात भी अधिकांश जनों मे विकसित नहीं हो पाता है ?
वास्तव में वर्तमान समय में जिसे ज्ञान, विद्या कह कर degree के नाम पर सरकारी गैर सरकारी शिक्षण संस्थानों “Institutes” द्वारा बेचा जा रहा है वह केवल सूचना है, वह केवल एक cirtificate है भविष्य मे रोटी कमाने के लायक बनाने का cirtificate पर भविष्य मे अपनी रोटी इस cirtificate से हमारा युवा कमा सकेगा इसकी भी पूरी guarantee नही होती !
मस्तिष्क में सूचनाएं भर लेने से हमारी आज की किशोर वय युवा पीढ़ी, किशोर वय से उपर वाली युवा पीढ़ी मात्र
एक सूचना संग्रहालय तो बन गयी है पर मनुष्य नहीं बन रही है राष्ट्र के सामने यह एक जटिल परिस्थिति खडी हुई है ! अगर हम दुनिया का इतिहास खँगाले तो पाएंगे कि :
इस धरती पर आज तक की समस्त मानव जनित विभत्स  दुर्घटनाएं जिन्हें मानव निर्मित दुर्घटना Man - made Calamities कहा जाता है उनके केन्द्र मे जो नेतृत्व कर्ता चेहरे रहे , जो planner “  योजनाकर्ता  ” रहे वह
सूचना के भंडार वह सूचना के जनक थे परन्तु इतिहास मे घटा विध्वंस उन्हे विवेक हीन मनुष्य ही करार देता है |
अब एक प्रश्न यह भी है कि आखिर यह विवेक यह संस्कार आता कहाँ से आता है ?
हम सब जानते है विद्या अर्थात सूचनाएं तो हमे पुस्तकों के संपर्क से प्राप्त हो जाती है परन्तु विवेक एवम संस्कार
भी पुस्तको से ही आ जाए यह तय नही है ना ही कोई पुस्तक इसे जबर्दस्ती आरोपित ही कर सकती है क्योंकि विवेक तो अच्छे संस्कारों से उत्पन्न होता है एवं अच्छे संस्कार पूर्ण रूप से पारिवारिक परवरिश आस-पास के परिवेश एवम समाज के साथ-साथ Genetic अनुवांशिकी होते है ! तथा जीव विज्ञान का मानक कहता है विशेष रूप से बच्चे के जन्म से लेकर 5 वर्ष की बाल्यावस्था तक माता के संस्कारयुक्त संस्कार तत्पश्चात बचपन से किशोर वय तक परिवार, परिवेश, आस - पडोस, समाज, मेे घटने वाले प्रत्येक events के प्रभाव ही तय करते है युवा पीढ़ी के विवेकशील, विनयवत, चिन्तलशील, सफल भविष्य का खाँका !
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता