चित्रा मुद्गल को हिंदी लेखन के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड
चित्रा मुद्गल को हिंदी लेखन के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड
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स्त्री विमर्श के फॉर्मूला लेखन से कोई क्रांति संभव नहीं मानने वाली चित्रा मुदगल को हिंदी लेखन के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया। चित्रा जी के तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आठ भाषाओं में अनूदित उनके उपन्यास ‘आवां’ को देश के छह प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। ‘आवां’ पर 2003 में ‘व्यास सम्मान’ मिला था।
10 सितम्बर 1943 को जन्मी एक आधुनिक शैली की लेखिका, जिनकी कलम हमेशा समाज के दबे और कमजोर वर्ग के साथ खड़ी रही, आज भी उसी तेजी से लिख रही हैं, उसी गर्मजोशी और युवाभाव के साथ, जिससे की उन्होंने 1964 में शुरुआत की थी.
आपने अक्सर देखा होगा किसी गरीब, दलित या निम्न परिवार के बच्चे को अपने लिए या अपने समाज के लिए आवाज उठाते हुए. लेकिन क्या कभी किसी उच्च वर्ग, सम्पन्न परिवार के महज 5 साल के बच्चे को ऐसा करते देखा है. ऐसा करने वाली वह नन्ही बच्ची आज लाखों पिछड़ों, दलितों, मजदूरों और महिलाओं की आवाज बन गई है. वह खुद में एक प्रेरणा हैं कुछ कर दिखाने की, कुछ बदल डालने की…
मैं बात कर रही हूं अधुनिक युग की विख्यात लेखिका चित्रा मुद्गल की. तमाम सुविधाओं के बीच भी जो कलम फूल, सौन्दर्य और प्रेम को छोड़ कर संघर्ष को तलाश ले और उस संघर्ष में रह कर, उसे भोग कर ही उसे अक्षरों में गढ़े, तो अनुमान लगा लीजिए कि उनकी हर रचना का एक-एक अक्षर कितना अनमोल और सटीक होगा.
थर्ड जेंडर पर आधारित अपने उपन्यास नालासोपारा पो. बॉक्स नं. 203 के बारे में चित्रा जी का कहना है कि यह उपन्यास अपने आप में एक नई पहल है. यह शायद मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है. एक किन्नर यौन विकलांग जरूर है, लेकिन एक मस्तिष्क का धनी भी है, जो हमेशा चार्ज रहता है. उसका दिमाग भी ठीक वैसे ही सोचता है जैसे कि आपका या मेरा. जरा सोचिए एक मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य के साथ इतनी क्रूरता! कन्या के साथ तो समाज पहले से ही क्रूर था, उनकी चुपचाप हत्या या भ्रूण हत्या की जाती है. फिर भी जन्म होने पर उन्हें घर में रखा जाता था, उन्हें ब्याह कर घर से भेजा जाता था. लेकिन किन्नरों के साथ तो खुलेआम ऐसा किया जाता है. इन्हें जन्म होते ही फेंक दिया जाता है. माता-पिता अपने नवजात बच्चे को किन्नरों के समूह को सौंप देते हैं, सिर्फ इस वजह से कि वह यौन विकलांग है!
जब मैं मुंबई के नालासोपारा में रहती थी, तब मैं एक ऐसे ही युवक से मिली थी. उसे किन्नर होने के चलते घर से निकाल दिया गया. यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है. सामाजिक और धर्म की कंडिशन चली आ रही है, यह सृष्टि के लिए बाधक है. जरा सोचिए पहले जब बच्चा होता है, तो यही किन्नर उन्हें आशीर्वाद देने आते हैं. सबको अच्छा लगता है. लेकिन अगर दूसरे दिन वे फिर पहुंच जाएं, तो उन्हें धक्का मार दिया जाता है. महिला को अपनी कोख पर पूरा अधिकार जताना चाहिए. ऐसे बच्चों के लिए बदलाव की जरूरत है.
चित्रा जी ने कहा कि आधी आबादी आज समाज और व्यवस्था से आगे आई है, तो उसके पीछे पितृसत्ता का वह हिस्सा है, जिसने उसे आगे बढ़ने के अवसर और शक्ति दी है। दमन और दलन के आरोपों के बीच भी स्त्री मन ने अपसने मन की करने और सोचने की राह निकाली।
दरअसल, आज स्त्री विमर्श के नाम पर जैसी कंडीशनिंग हो रही है, वह तो पुरुष विमर्श की प्रतिकृति है। चित्रा ने कहा, “सर्जना एक दृष्टि के साथ चलती है, वह समाज सापेक्ष होती है। सामाजिक चेतना से बदलाव आता है !
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