(लोकतंत्र के चार स्तम्भ मे अपाहिज हो चुका है चतुर्थ स्तम्भ “मीडिया”)

जब हम बात करते हैं लोकतंत्र के चार स्तंभों की तो उसमें चतुर्थ स्तम्भ मीडिया को बोला जाता है। वह इसलिए कि मीडिया का काम जन-जन तक सच्ची ख़बरें पहुंचाना है, क्योंकि उन ख़बरों के आधार पर ही हम-आप जैसे आम लोग अपनी धारणाएं बनाते हैं और उन्हीं धारणाओं से देश का माहौल निर्धारित होता है, सरकारें बनती बिगड़ती हैं और लोकतंत्र चलता है।

पिछले कई सालों से मैं यह देख-सुन रही हूँ कि देश में "इन्टॉलरेंस" बढ़ रहा। आए दिन हम लोगों के "इन्टॉलरेंस के कारण भयभीत हुए" बयान सुनते हैं।

इसके मुझे दो कारण समझ आए, एक तो यह कि हम अपने जीवन का सम्पूर्ण भार सरकार पर डालना चाहते हैं बिना अपने कर्तव्यों की तरफ़ आँख डाले। हम चाहते हैं कि हमारे पैदा होने से लेकर मरने तक की सारी सुविधाओं और सुधारों की ज़िम्मेदारी सरकार लेले, और हम बैठ कर खाएँ। हमें सिर्फ फल से मतलब है, फल प्राप्ति के लिए पेड़ लगाने की मेहनत और ताउम्र उसमें खाद-पानी डालने की ज़िम्मेदारी हम सरकार पर रख-छोड़ना चाहते हैं। हमने देश में डेमोक्रेसी नहीं मोबोक्रेसी बना दी है, बात-बात में हुड़दंग, तोड़-फोड़, पत्थरबाजी, बसें जलाना, आज ये बंद कल वो बंद और तथाकथित राजनीतिक रोटी सेकते आंदोलन, इन सभी ने हमें मोबोक्रेटिक बना दिया है। और इस मोबोक्रेसी को आगे ले जाने का काम करती है मीडिया हेडलाइंस।

जो मुझे इस बढ़ते इन्टॉलरेंस की दूसरी वजह भी लगती है, मीडिया द्वारा तैयार की जा रही "क्लिक वेट" हेडलाइंस। मीडिया अब यह कम देखती है कि असल ख़बर क्या है, वह यह पहले देखती है कि आपको किस हैडलाइन द्वारा लुभाया जा सकता है, भड़काया जा सकता है या आपके विचारों को बनाया या बिगाड़ा जा सकता है।

हाल ही का एक उदाहरण देखें तो मुझे मीडिया द्वारा यह ख़बर जानने में आई कि नोएडा के एक पब्लिक पार्क में कुछ मुस्लिम भाइयों द्वारा नमाज़ अता करने पर पुलिस द्वारा आपत्ति जताई जा रही है। ख़बर इस तरह से दिखाई जा रही थी कि मुझे लगा वाक़ई इस देश में पोलराइजेशन बढ़ गया है और मुस्लिम भाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता ख़तरे में है या फिर हिन्दू शासन उन्हें जानबूझकर परेशान करना चाहता है। जबकि जब इस ख़बर पर खोजबीन की तो पता चला कि असल में यह पूरा सच नहीं, सच तो यह था कि "उस पब्लिक पार्क" में "किसी भी तरह की रिलिजियस एक्टिविटी" की मनाही थी, फिर चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो।

इस बात पर पुलिस द्वारा आपत्ति लंबे समय से जताई जा रही थी, और उन लोगों को कई बार सूचित भी किया जा चुका था। और रही बात कि फिर वे लोग नमाज़ पढ़ने कहाँ जाएंगे तो जब मैंने गूगल मैप में देखा तो उस पार्क से एक किलोमीटर के दायरे में चार मस्जिद हैं, आप किसी में भी जा सकते हैं।

जहाँ तक मुझे समझ आया तो मसला सिर्फ इस बात का है कि थोड़ी सी सुविधा हो जाए, मस्जिद तक जाना न पड़े और सभी भाई मिलकर क़रीबी पार्क में ही नमाज़ पढ़ लें। अब इसे इस तरह देखिए कि कल को उस एरिया की कुछ महिलाएँ ढोलक, झाँझर, मंजीरे लेकर अपनी सहूलियत देखते हुए कीर्तन करने बैठ जाएं तो क्या उस पर आपत्ति उठाना ग़लत होगा?

मीडिया और सोशल मीडिया लिब्रल्स ने जिस तरह उस ख़बर को एक भड़काऊ समस्या बनाकर हमारे सामने परोसा उससे दूर बैठा इंसान यही समझेगा कि यह देश अब अल्पसंख्यक के लिए सुरक्षित नहीं, तब उनसे मेरा बस यही पूछना है कि यदि आप विश्व के कुछ बेहद महान और सुरक्षित समझे जाने वाले मुल्कों में जाकर क्या पब्लिक पार्क का इस्तेमाल धार्मिक आयोजनों के लिए बिना प्रशासनिक अनुमति के कर लेंगे?

यहाँ आज़ादी के हनन की बात थी ही नहीं। हमारी आज़ादी वहीं तक होती है जहाँ से किसी और की आज़ादी शुरू होती है। हमारी सुविधा यदि किसी के लिए असुविधा बन रही है, फिर चाहे वह माइक लगाकर कथाओं या अखण्ड पाठों का आयोजन हो, या पब्लिक में नमाज़ पढ़ने की बात, वह फिर धार्मिक-आस्था नहीं बल्कि दूसरों के लिए असहजता और समस्या बन जाती है। यहाँ तो बात थी भी पब्लिक स्पेस की, न कि हमारी निजी संपत्ति या धार्मिक स्थान की।

अतः अगली बार जब भी आपकी धार्मिक भावनाएँ आहत हों या मीडिया की किसी ख़बर को सुनकर या सोशल मीडिया पर छिड़ी क्रांति देखकर आप भड़काऊ महसूस करने लगें तो पहले दो मिनिट रुककर उस बात की तहक़ीक़ात ज़रूर करें।

कमेंट बॉक्स में वह लेटर भी पोस्ट कर रही हूँ जिसमें प्रशासन द्वारा उस स्थान पर किसी भी प्रकार की धार्मिक गतिविधि की मनाही है जिसमें नमाज़ अता करना भी शामिल है।

PS : पोस्ट समझ आए तभी कमेंट करें, यदि इससे आपकी किसी भी तरह की राजनीतिक, धार्मिक या क्रांतिकारी भावनाएँ आहत होती हैं तो पोस्ट से दूर रहें।

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