बिस्मिल के बलिदान का मुकम्मल दस्तावेज हूं मैं, हाँ मैं शहर-ए-गोरखपुर हूं !!
बिस्मिल के बलिदान का मुकम्मल दस्तावेज हूं मैं,
हाँ मैं शहर-ए-गोरखपुर हूं !!
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मै शहर-ए- गोरखपुर हूँ अर्चिता भूलना भी चाहूँ तो भूलने की जुर्रत न कर सकूंगा की मैं शहर-ए-गोरखपुर हूँ क्योकि मेरी आबो-हवा मे आज भी खुशबू बनकर गमकती है बिस्मिल तुम्हारी पाक शहादत, रूह बनकर आज भी धडकती है मुझमे बिस्मिल तुम्हारी एक-एक नज़्म जो तुमने जिला जेल की कोठरी नंबर 7 में बैठकर सलाखों के पीछे चार महीने 10 दिन की साधना एवम यातना के दौरान रचे थे और वेचैन थे अपनी शहादत से चन्द रोज पहले तक भी अपनी मातृभूमि की गुलाम बेड़ियाँ तोडने के लिए !
मै शहर-ए-गोरखपुर हूँ रोज मिलता हूँ जिला जेल के उस पीपल से, उस बैरक की दीवारो से और कसमसा उठता हूँ भीतर तक बिस्मिल जिसके पत्ते-पत्ते, जिसकी एक - एक ईंट, पर लिखी है गवाही तुम्हारे उस अमरत्व प्राप्त प्रतिज्ञा की जो तुमने मरते - मरते किया था अपने आप से, मुझ गोरखपुर से,सम्पूर्ण भारत के युवाओ से,माताओ से, एवम स्वयम अपनी भारत माता से अपनी आखिरी इच्छा के रूप मे यह घोषणा करके कि :
“ I wish the Downfall of British Empire ”
मै ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ !
मै शहर-ए-गोरखपुर गवाह हूँ 19 दिसम्बर 1927 की कड़कड़ाती उस सर्द सुबहा-ए-मुहूर्त का जब मेरी ही सरज़मी पर विस्मिल तुमने मादर-ए-वतन की आज़ादी की खातिर हंसकर फांसी का फंदा चूमा था, और अपना माथा गर्व से ऊँचा करके शहादत को गले लगाते हुए फांसी के तख्ते पर खडा होकर अपनी ही नज़्म मे यह सरफरोश शहीदी गीत गाया था :
“ सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना अब जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल मे है”
मै गवाह हूँ अमर शहीद विस्मिल तुम्हारी फांसी के बाद पसरे उस मातम, उस भय, उस सन्नाटे का जो ब्रिटिश हुकूमत ने मुझ गोरखपुर शहर मे धारा 144 लगाकर तुम्हारी शव यात्रा पर न किसी को रोने दिया था ना ही तुम्हारी शव यात्रा मे किसी को शामिल होने दिया था !
मैं आंखों देखी सुनाता हूं उस घंटा घर की जहाँ जिला जेल से 7 किलोमीटर की यात्रा तय कर के 4-6 लोगो द्वारा शवदाह को ले जाते समय पाकड के पेड तले बिना कफन तुम्हारा शव कुछ पल के लिए रखा गया था और धारा 144 की परवाह किए बिना चौधरी परिवार की महिला ने अपने घर की दहलीज पार कर तुम्हें अंतिम विदाई देते हुए, तुम्हे अंतिम प्रणाम करते हुए, सुराजी चरखे से कते सूत से बनी चादर तुम पर डाला था तुम्हारे कफन के रूप मे,जिसके बाद तुम राप्ती तट ले जाए गए थे !
मै शहर-ए-गोरखपुर विस्मिल आज भी नही भूला तुम्हारी जलती चिता की ऊँची लपटो को और तुम्हारी चिता की उस राख को जिसे मेरे यहाँ बहुतो ने आज भी ससम्मान कलश मे भर कर रख रखा है अपने घर के पूजा गृह में !
वह जामिन अलि भी याद है मुझे जिन्होने ब्रिटिश हुकूमत के भय की परवाह किए बिना प्रथम बार शहर के बीचो बीच घंटा घर की दीवार पर टाँगी थी तुम्हारी तस्वीर !!
और तुम्हारे ही लिखे गीत सस्वर गाए थे :
“अब न अहले - वल्वले है और न अरमानो की भीड
एक मिट जाने की हसरत अब दिले विस्मिल मे है ”
मुझे गर्व है की मै शहर-ए-गोरखपुर हूँ और विस्मिल तुम्हारी शहादत का दस्तावेज अपने भीतर समेटे हर दिन हर पल अपनी नयी पीढ़ी को कुछ इस तरह तुम्हारा बलिदानी इतिहास सुनाता हूँ : “ क्रांतिकारी, शायर, लेखक, अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने महज 11 साल की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था ! उनका जन्म 11 जून 1897 को शाहजहांपुर में हुआ था ! बचपन में राम प्रसाद बिस्मिल आर्यसमाज से प्रेरित थे और उसके बाद वे देश की आजादी के लिए काम करने लगे बिस्मिल मातृवेदी संस्था से जुड़े थे इस संस्था में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए काफी हथियार एकत्रित किया, लेकिन अंग्रेजी सेना को इसकी जानकारी मिल गई अंग्रेजों ने हमला बोलकर काफी हथियार बरामद कर लिए इस घटना को ही मैनपुरी षड़यंत्र के नाम से भी जाना जाता है काकोरी कांड को अंजाम देने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया ! काकोरी कांड की वजह से अंग्रेजों में हड़कंप मच गया काकोरी कांड में शामिल होने की वजह से अंग्रेजों ने राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को मुझ गोरखपुर के जिला कारागार मे फांसी दिया गया था ! बिस्मिल अपने क्रांतिकारी दल के बीच पण्डित जी के नाम से बुलाए जाते थे ! कविताओं और शायरी के इतने शौकीन थे कि जेल की सलाखो के पीछे रहते हुए भी क्रांति के गीत लिखे जीवन के आखिरी पल तक !
आज क्रांतिकारी राम प्रसाद विस्मिल की पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि सहित मेरा शत शत प्रणाम् !
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
19/12/2018
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