मैं प्रधानमंत्री हूं पर हूं तो गरीब ही, मैं यह महंगा उपहार नहीं ले सकता

मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुंचे तो उन्होंने साड़ियां दिखलाने को कहा। मिल मालिक व अधिकारियों ने एक से एक खूबसूरत साड़ियां उनके सामने फैला दीं। शास्त्रीजी ने साड़ियां देखकर कहा- 'साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं, क्या मूल्य है इनका?'

'जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1 हजार रुपए की है।' मिल मालिक ने बताया।

'ये बहुत अधिक दाम की हैं। मुझे कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए,' शास्त्रीजी ने कहा। यहां स्मरणीय है कि यह घटना 1965 की है, तब 1 हजार रुपए की कीमत बहुत अधिक थी।

'जी, यह देखिए। यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की' मिल मालिक ने दूसरी साड़ियां दिखलाते हुए कहा।

'अरे भाई, यह भी बहुत कीमती हैं। मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूं।' शास्त्रीजी बोले।

'वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, गरीब कैसे? हम तो आपको ये साड़ियां भेंट कर रहे हैं।' मिल मालिक कहने लगा।

'नहीं भाई, मैं भेंट में नहीं लूंगा', शास्त्रीजी स्पष्ट बोले।

'क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें', मिल मालिक अधिकार जताता हुआ कहने लगा।

'हां, मैं प्रधानमंत्री हूं', शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- 'पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊं। भाई, मैं प्रधानमंत्री हूं पर हूं तो गरीब ही। आप मुझे सस्ते दाम की साड़ियां ही दिखलाएं। मैं तो अपनी हैसियत की साड़ियां ही खरीदना चाहता हूं।'

मिल मालिक की सारी अनुनय-विनय बेकार गई। देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियां ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं। ऐसे महान थे शास्त्रीजी, लालच जिन्हें छू तक नहीं सका था।

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