ग़ज़ल ======= हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती, शहर में मोहब्बत के अर्ची आग नफरत की अच्छी नहीं होती, किस फितूर में जला बैठे हो हाथ नासमझो, जब जानते हो : गोया जली हुई हथेलियों की कोई किस्मत नहीं होती ....... हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती .....!! आग से खेलने का है गर सौक इतना .... करके "खुद को" दीया मिट्टी का चरागा रोशनी हो जाओ, है दुनिया में अंधेरा बहुत .... बिना फर्क एक टुकड़ा उजाला हो जाओ, बगैर उजाले इस अंधेरी दुनिया में कभी ...बरकत नहीं होती, हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती ....... !! दुनिया-ए-अंजुमन में लगा कर बोली : यूँ बेचो ना तार - तार आबरू वतन की, खनक चंद सिक्कों की : दावत - ए - क़त्ल ईमान की, बीके हुए ईमान की : कोई कीमत नहीं होती, हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती !! यह जो देहरी - देहरी, अलग - अलग, खुदा अपना बनाए बैठे हो : दुनिया-ए-फसाद इसी से तो कायम है, है इसी से तो सारी बेईमानी जिंदा, देहरी से बाहर निकल कर जरा एक नज़र आइना-ए-दुनिया देखो .. इल्म होगा तुमको अर्ची : देहरी - देहरी कायम खुदा की कोई फितरत नहीं होती, हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती ..... !! ================================= कलम से : भारद्वाज अर्चिता

ग़ज़ल
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हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती,
शहर में मोहब्बत के अर्ची
आग नफरत की अच्छी नहीं होती,
किस फितूर में जला बैठे हो हाथ नासमझो,
जब जानते हो :
गोया जली हुई हथेलियों की कोई किस्मत नहीं होती .......
हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती .....!!

आग से खेलने का है गर सौक इतना ....
करके "खुद को" दीया मिट्टी का
चरागा रोशनी हो जाओ,
है दुनिया में अंधेरा बहुत ....
बिना फर्क एक टुकड़ा उजाला हो जाओ,
बगैर उजाले इस अंधेरी दुनिया में कभी ...बरकत नहीं होती,
हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती ....... !!

दुनिया-ए-अंजुमन में लगा कर बोली :
यूँ बेचो ना तार - तार आबरू वतन की,
खनक चंद सिक्कों की :
दावत - ए - क़त्ल ईमान की,
बीके हुए ईमान की :
कोई कीमत नहीं होती,
हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती !!

यह जो देहरी - देहरी, अलग - अलग,
खुदा अपना बनाए बैठे हो : 
दुनिया-ए-फसाद इसी से तो कायम है,
है इसी से तो सारी बेईमानी जिंदा,
देहरी से बाहर निकल कर जरा
एक नज़र आइना-ए-दुनिया देखो ..
इल्म होगा तुमको अर्ची :
देहरी - देहरी कायम खुदा की कोई फितरत नहीं होती,
हर बात पर सियासत अच्छी नहीं होती ..... !!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता

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“ सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।” भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है अर्ची, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है । इस जगत मे बहुत कम ऐसे गुरू हुए है जिनको उनकी अपनी सफलता के साथ साथ ही उनके अपने शिष्य की सफलता से पहचान मिली हो ऐसे ही भाग्यशाली गुरू रहे है “रमाकान्त आचरेकर” जिन्हे पूरी दुनिया सचिन तेंदुलकर के क्रिकेट कोच “ क्रिकेट गुरू ” के रूप मे जानती है और इसी रूप मे ही सदैव याद भी रखना चाहती है ! ईश्वर के साम्राज्य मे पहुँचने पर आज गुरू आचरेकर का स्वागत नाराण ने निश्चित तौर पर यही कह कर किया होगा “ क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के गुरू रमाकान्त आचरेकर जी आईए आपका स्वागत है !!” दिवंगत आचरेकर जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !! ================================ Bhardwaj@rchita 03/01/2019

माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं. गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं. गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं. सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष सर्वोच्च ब्रह्म है अपने उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करती हूँ, कोटि-कोटि प्रणाम करती हूं !! साभार : भारद्वाज अर्चिता