खोटा सिक्का
मुझे खोटा सिक्का समझकर
परे लगा रहे हो
कैसे कहूं कि :
फकीर सिक्कों से तौले नही जाते अर्ची ...
यह जो बार - बार अरदास लगा रहीं हूं
कल ना होगी यह हाजिरी मेरी
तुम ठाकुर तो रहोगे अपने मंदिर के
पर मीरा के मीरा ( मालिक ) नही .......
किस बात का गुरूर इतना
किस बात की अकड है
पुरखे गए जिस राह ....
कल अपना भी तो वही सफर है
कुछ जिंदा बचेगा तो केवल मौज-ए-फकीर
कैसे कहूं कि :
फकीर सिक्कों से तौले नही जाते अर्ची
मैने जमीन पर बैठकर सारा आसमान नाप लिया
जब गुणा किया जमीन का आसमान से तो
हर आसमान की भी एक जमीन निकली
बिना जमीन कहीं कोई आसमान न हुआ ....
यह जश्न, यह जिंदगी, यह नातेदारी,
सब फकीरों जैसे हैं
आज चमचमा रहें है
कल आंखो से ओझल
कैसे कहूं कि :
फकीर सिक्कों से तौले नही जाते अर्ची !!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
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