दस्तूर-ए-जमाने में : हैं क्या क्या रंग दिखाते लोग

दस्तूर-ए-जमाने में :
हैं क्या क्या रंग दिखाते लोग,
बात करने से कतराते हैं लोग,
राह मेरी चलने से कतराते हैं लोग !!

एक-एक चेहरे की  हुई है सौ-सौ परख,
बदलते रिश्तों की हुई है सौ - सौ परख,
बुझ गई है फानुस-ए-रौशनी अब तो अर्ची :
अंधेरों में ही चलने की गरज कर लो,
रूठा हो जब वक्त तो :
नही मनाते बरबादी-ए-सोग !!

शब्द-शब्द मौत बिछी है जब :
खुदाया खामोशी ओढने में ही करम,
सूनी आंखो में बेवजह अश्क क्यों ??
दिल की दरिया में बेवजह हलचल क्यों ??
वक्त, वक्त की बात है :
वक्त के साथ अक्सर बदल जातें हैं लोग !!

इतनी उम्मीद क्यों गैरों से,
इतनी घुटन क्यों गैरों से,
एक कदम चल के तो देखो ! खुद के पैरों से,
यह जिंदगी ! दुश्वारियों की तपती रेत पर भी
एक सबक है,
खाकर ठोकर हजार
अपने बुरे वक्त में ही ! हैं सम्हल जाते लोग !!
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कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
“मेरी ग़ज़ल मेरे जज़्बात”

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