हर कोई यहां मुझसे बहुत बडा है अर्ची
हर कोई यहां मुझसे बहुत बडा है अर्ची
अपने जूते की नोक पर रखकर
जब जी चाहा मेरी औकात नाप लेता है !
मैं फकीर फासला-ए-शहर नंगे पांव
तय करती रही
कहानी तो शहर खुद-बखुद लिख देता है !
ना राम हूं, ना रहींम ही ,
आदमी बनकर ! आदमियत को भटकती हूं ,
मेरे सर “तमगा-ए-ताज हर कोई अपने हिसाब से
रख देता है !
निकले थे कभी घर से तो हजार घर सामने खड़े मिले
उस दहलीज़ से, इस दहलीज़ तक, बस घर ही घर मिले
फिर वह कौन है !
घरों के दरवाजों पर जो ताले लगा देता है,
यह रहा चम्बल मेरा
यह रही जागीर मेरी
लुटा दिया मैंने लो कुल तीन ही कदम तहरीर मेरी
मै सुन सकूं भला ऐसी सदा अब मुझको कौन देता है !!
कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
9919353106
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