जरा गौर से देखा जाए तो नजर आता है कि : नास्तिक भी नास्तिकता को अपना धर्म बना लेता है

आखिर नास्तिक भी तो अपना धर्म बना लेता है
बानगी के तौर पर पढिए कैसे नास्तिकता को ही
अपना धर्म बना बैठा था लेनिन ! ???
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धर्म की अवधारणा से नास्तिकता का पुजारी 'लेनिन भी तो नही बच पाया वक्त के साथ नास्तिकता को ही अपना धर्म बना बैठा था एवम दास कैपिटल, कम्युनिस्ट
मैनिफेस्टो, को अपने लिए गीता, कुरान, बाईबिल जितना ही सत्य एवम महत्वपूर्ण कर दिया था ?
स्वयम को नास्तिक घोषित करके भी लेनिन स्वयम को कम्युनिस्टों का अवतार' ही बनाए रखा था, एवम आखिर तक बुर्जूवा वर्ग का भगवान बनने की मंशा से नही उबार सका था आपने आप को,
सदैंव गहरी आस्था पाले बैठा था अपने नास्तिक धर्म से ??

नास्तिक भी अपना धर्म बना लेता है; नास्तिकता उसका धर्म बन जाती है। कम्युनिस्ट हैं, उन्होंने भी अपना धर्म बना लिया। काबा नहीं जाते, क्रेमलिन जाते हैं। मक्का नहीं जाते, मास्को जाते हैं। निश्चित ही गौतम बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, इनके चरणों में नहीं झुकते; लेकिन कार्ल मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, इनके चरणों में झुकते हैं। मंदिर नहीं जाते, मस्जिद नहीं जाते; लेकिन मास्को के रेड स्क्वॉयर में लेनिन की लाश को अब भी बचा कर रखा है, उस पर फूल चढ़ाते हैं, वहां सिर झुकाते हैं। दूसरों पर हंसते हैं कि क्या पत्थर की मूर्तियों को पूज रहे हो! और लेनिन की सड़ी-गली लाश, उसको पूज रहे हैं–और खयाल भी नहीं आता कि तुम जो कर रहे हो वह भी वही है!

फिर जो महावीर को पूजता हो, बुद्ध को पूजता हो, कृष्ण को पूजता हो–माना कि अतीत को पूज रहा है, लेकिन फिर भी किसी जाग्रत व्यक्ति का स्मरण शायद तुम्हारे भीतर भी जागरण की लहर ले आए। लेकिन लेनिन को पूजो, कि मार्क्स को, कि एंजिल्स को, वे उतने ही अंधे थे जितने अंधे तुम हो। अंधा अंधा ठेलिया, दोई कूप पड़ंत! अंधे अंधों का नेतृत्व कर रहे हैं!

ईसाई ट्रिनिटी को पूजते हैं: ईश्वर–पिता; और फिर जीसस–पुत्र; और पवित्र आत्मा। ये तीन।

और हिंदू त्रिमूर्ति को पूजते हैं: ब्रह्मा, विष्णु, महेश।

और कम्युनिस्ट, वे भी त्रिमूर्ति और ट्रिनिटी के बाहर नहीं जाते–मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन। स्टैलिन ने घुसने की कोशिश की कि त्रिमूर्ति में घुस जाए, चतुर्मूर्ति कर दे इसको; नहीं घुसने दिया। माओ ने भी बहुत कोशिश की, मगर त्रिमूर्ति को खंडित नहीं होने देते।

नास्तिक भी अपना धर्म बना लेता है। नास्तिक भी अपनी नास्तिकता के लिए मरने-मारने को तत्पर होता है। नास्तिक के भी पूजागृह हैं, धर्मशास्त्र हैं। दास कैपिटल, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो–ये उसके गीता हैं, कुरान हैं, बाइबिल हैं। इतना पर्याप्त है किसी कम्युनिस्ट को बता देना कि यह दास कैपिटल में लिखा है, बस काफी है; जैसे दास कैपिटल में लिखे होने से कोई बात अनिवार्य रूप से सत्य हो जाती है! वैसे ही जैसे हिंदू के लिए बता देना काफी है कि गीता में लिखा है; बस प्रमाण हो गया, बात खतम हो गई। अब न कोई विवाद की जरूरत है, न कोई तर्क की जरूरत है, न सोच की, न खोज की। मुसलमान को कुरान की आयत दोहरा दो, बस पर्याप्त है। अगर कुरान में है तो ठीक ही होगा। कुरान में कहीं कुछ गलत होता है? वही स्थिति कम्युनिस्ट की है। कम्युनिस्ट, जो अपने को नास्तिक मानते हैं, वे भी धर्म से नहीं बच पाते।

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