जब से होश संभाला आज तक कभी मानव चालित रिक्शे पर बैठने की हिम्मत नही जुटा पायी मैं ! यह सोच कर ही शरीर में सिहरन होने लगती है कि : एक आदमी मुझे मानव चालित रिक्शे पर बैठाकर केवल इस लिए खींचेगा क्योंकि उसके बदले में मैं उसे चन्द रूपए दूंगी ! कभी-कभी देश की 1947 वाली आजादी पर भी छोभ होता है यह सोच कर कि : वह देश कितना आजाद है अर्ची जहां आजादी के 71 साल बाद भी एक मानव दूसरे मानव का गुलाम बनकर ठण्डी, गर्मी , जाडा, बरसात,वर्ष भर जानवरों की तरह मानव रिक्शा खींच रहा है चन्द पैसों के लिए ! बिहार, उत्तर प्रदेश के लोग इस पेशे में ज्यादे हैं ! आज साम सब्जी मण्डी से गुजर रही थी कि : अचानक तीन चार रिक्शे वालों को आपस में बात करते सुना : ( आज त कुच्छु कमाई नईखे भईल हो, 80 रूपया में 50 रूपया मलिकअ ले लिहंअ तअ बची का 40 ठो रूपया ) आज तो कुछ कमाई नही हुई है, 80 रूपए मिले हैं 50 रूपया तो मालिक ही ले लेंगे फिर बचेगा क्या केवल 40 रूपया..??? मैं उनके शब्द सुनकर उनकी तरफ मुडी और पूछा उनसे : क्या यह रिक्शा जो आप लोग चलाते हैं वह आपका अपना नही होता है ...?? ( उनका जवाब था : नाही मेम साहब हम्मन लोगन रिक्शा किराया पर लिहल जाला रोज क रोज मालिक के 50 रूपया दिहल जाला सांझी खानी ) मैने महसूस किया “वह जीर्ण शीर्ण काया मनुष्य क्या हमारे इसी समाज का हिस्सा हैं ?? ” अगर हां तो यह एक उस अति सभ्य आजाद देश के मूंह पर करारा तमाचा है जो 71 साल बाद भी इन मानव रिक्शा चालकों के हाथ में ई रिक्शा की चाभी नही पकडा पाया केवल राजनीति-राजनीति खेलता रहा, कुर्सी-कुर्सी करते हुए सत्ता पर मरता रहा ! 10 साल रिक्शा चलाने के बाद बिहार एवम उत्तर प्रदेश के दिहाडी मजदूर का मानव रिक्शा चालक बेटा बडे शहरों से बैंक बैलेंस लेकर नही बल्कि टीवी की बीमारी लेकर अपने घर परिवार में लौटता है अर्ची और समय से पहले ही जिंदगीं के कूंचे से कूंच कर जाता है !!!
जब से होश संभाला आज तक कभी मानव चालित रिक्शे पर बैठने की हिम्मत नही जुटा पायी मैं ! यह सोच कर ही शरीर में सिहरन होने लगती है कि : एक आदमी मुझे मानव चालित रिक्शे पर बैठाकर केवल इस लिए खींचेगा क्योंकि उसके बदले में मैं उसे चन्द रूपए दूंगी !
कभी-कभी देश की 1947 वाली आजादी पर भी छोभ होता है यह सोच कर कि : वह देश कितना आजाद है अर्ची जहां आजादी के 71 साल बाद भी एक मानव दूसरे मानव का गुलाम बनकर ठण्डी, गर्मी , जाडा, बरसात,वर्ष भर जानवरों की तरह मानव रिक्शा खींच रहा है चन्द पैसों के लिए !
बिहार, उत्तर प्रदेश के लोग इस पेशे में ज्यादे हैं !
आज साम सब्जी मण्डी से गुजर रही थी कि : अचानक तीन चार रिक्शे वालों को आपस में बात करते सुना :
( आज त कुच्छु कमाई नईखे भईल हो, 80 रूपया में 50 रूपया मलिकअ ले लिहंअ तअ बची का 40 ठो रूपया )
आज तो कुछ कमाई नही हुई है, 80 रूपए मिले हैं 50 रूपया तो मालिक ही ले लेंगे फिर बचेगा क्या केवल 40 रूपया..???
मैं उनके शब्द सुनकर उनकी तरफ मुडी और पूछा उनसे : क्या यह रिक्शा जो आप लोग चलाते हैं वह आपका अपना नही होता है ...??
( उनका जवाब था : नाही मेम साहब हम्मन लोगन रिक्शा किराया पर लिहल जाला रोज क रोज मालिक के 50 रूपया दिहल जाला सांझी खानी )
मैने महसूस किया “वह जीर्ण शीर्ण काया मनुष्य क्या हमारे इसी समाज का हिस्सा हैं ?? ”
अगर हां तो यह एक उस अति सभ्य आजाद देश के मूंह पर करारा तमाचा है जो 71 साल बाद भी इन मानव रिक्शा चालकों के हाथ में ई रिक्शा की चाभी नही पकडा पाया केवल राजनीति-राजनीति खेलता रहा, कुर्सी-कुर्सी करते हुए सत्ता पर मरता रहा !
10 साल रिक्शा चलाने के बाद बिहार एवम उत्तर प्रदेश के दिहाडी मजदूर का मानव रिक्शा चालक बेटा बडे शहरों से बैंक बैलेंस लेकर नही बल्कि टीवी की बीमारी लेकर अपने घर परिवार में लौटता है अर्ची और समय से पहले ही जिंदगीं के कूंचे से कूंच कर जाता है !!!
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