11 सितम्बर 1893 शिकागो ( अमेरिका ) के विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए व्याख्यान की Anniversary पर मेरी कलम से दो शब्द भारत के वर्तमान युवावों के लिए ====================

11 सितम्बर 1893 शिकागो ( अमेरिका ) के विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए व्याख्यान की Anniversary पर मेरी कलम से दो शब्द भारत के
                   वर्तमान युवावों के लिए
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11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) के विश्व धर्म सम्मेलन में शून्य पर खडा होकर अखण्ड ब्रहमाण्ड को वेदों के साथ-साथ आदर्श वैदिक परंपरा एवम विशुद्ध भारतीय वैदिक दर्शन शास्त्र के मानक पर नापने वाले भारत के युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद जी के उस भाषण की Anniversary पर आज 11 सितम्बर को आईए देश के सभी युवा एक साथ मिलकर स्वामी जी को एवम उनके द्वारा शिकागो में दिए गए उस व्याख्यान को स्मरण करते हुए सपथ लें कि : अपने राष्ट्र के विकास में, निर्माण में, अपने सम्पूर्ण जीवन को दान कर देंगे !
हमारा यह जीवन जिन बुनियादी सांचों में ढलकर राष्ट्र निर्माण हेतु उपयुक्त बनेगा , सहयोगी साबित होगा स्वामी जी के अनुसार वह बुनियादी सांचे हैं :
(1)वेदों का अध्ययन करना,,
(2)स्त्री -पुरुष शिक्षा में समानता लाना,
(3)सभ्य सुसंस्कृत आचरण करना,
(4) राष्ट्र निर्माण के उद्देश्य से नव आविष्कार की जिज्ञासा के साथ स्वस्थ्य सपने देखना और उन सपनों को पूरा करने हेतु बेचैन हो जाना,
(5) संकीर्ण,जटिल,वैचारिक, अनैतिक, परंपरा से स्वयम के साथ - साथ अपने राष्ट्र को भी मुक्त रखना !
11 साल की उम्र से आदर्श बनकर तुम्हारे विचारों,एवम  आचरण में समाए स्वामी जी का शिकागो ( अमेरिका ) में दिया गया ऐतिहासिक व्याख्यान इस प्रकार है अर्चिता :

“मेरे अमेरिका के बहनो और भाइयों :
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा !
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दुनिया को विज्ञान के मानक पर ले जाकर भारतीय वैदिक परम्परा एवम दर्शन को पूर्ण प्रमाणित सत्य साबित करके अज्ञानता की गहरी नीद से झकझोर कर जगाने वाले युवा दार्शनिक, युवा राष्ट्रवादी , युवा संन्यासी एवम
मेरे दार्शनिक गुरू, मेरे जीवन आदर्श स्वामी जी आपके श्री चरणों में मेरा कोटि - कोटि विनयवत प्रणाम्  !
कलम से :
भारद्वाज अर्चिता
11/09/2018

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माँ सीता के द्वारा माँ पार्वती स्तुति अयोध्याकाण्ड जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।। जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।। [दोहा] पतिदेवता सुतीय महुँ, मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस सारदा सेष।।235।। सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायिनी पुरारि पिआरी।। देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहिं कें।। कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।। बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।। सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।। सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।। [छंद] मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु, सनेहु जानत रावरो।। एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय, सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली।। [सोरठा] जानि गौरि अनुकूल सिय, हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे।।

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